एक भूला हुआ शहर ghazal on social life

ghazal on social life

 एक भूला हुआ शहर

जिसकी गलियॉं तंग थी

भीड़ थी लोग थे साथ में

फिर भी तन्हाई थी

ईंट,पत्थर और सीमेंट के बीच

जिंदगी की तलाश थी

बनाते थे ऊॅची-ऊॅची इमारतें मगर

जिसका ठिकाना झुग्गी झोपड़ी थी

कौन आता तेरे शहर में कभी

बस दो जून की रोटी थी !!!!

ghazal on social life

तेरे शहर से में अनजान था

मैं गांव का आदमी नादान था

मैं खोता गया

सड़क और ऊंची बिल्डिंगों की ऊंचाई पर

देखा ,, बहुत देखा

दूर से देखा 

पास से देखा

मगर मेरी निगाह

ऊंची बिल्डिंगों का चकाचौंध देखा

बस नहीं देखा तो चांद सितारे

जो मेरे गांव में साथ चलते थे

मैं जहां भी जाता था 

संग-संग चलते थे !!!


मैं हारा

कई बार हारा

क्योंकि मैं सुनता था

दुनिया की !!!


मैं पराजित था

जबकि मेरे साथ सच था

सच मेरे साथ अकेला था

जबकि झूठ भीड़ में था

जिसकी आवाजों में

खो रहे थे

हम रो रहे थे

हमारी आवाजें दबी हुई थी

और जो कह नहीं पाते हैं

वे रोते हैं 

इसलिए सच भी हार चुका है !!!


मैं और सच

लड़ रहा थे 

लेकिन जमाने हमें तोड़ रहे थे

जिससे अकेले हम पड़ रहे थे

उसके पास सियासत थी

जिसे झूठ का सहारा था

इसलिए मैं हारा था !!!


बस शोर मचा देना

सच को झूठ बता देना

लोग ढूंढते कहां है सूरज को

ठंड लगे तो

अलाव जला देना 

लोग भूल गए हैं लालच में

पैसा देकर ईमान गिरा देना 

मामूली बात है मगर 

धंधे के हिसाब से

बेहतर सौदा !!!


बचाने की कोशिश

कौन करता है आजकल

अपनी नीयत

अपना प्रेम

अपना ईमान

अपना वजूद

अपनी खुद्दारी

अपनी समझदारी

सबकुछ सफलता के मापदण्ड में

मायने कुछ भी नहीं है

लोग अपनी चाहत अनुसार

सफलता के लिए कुछ भी करेगा

शायद ! स्वतंत्रता का सही मायने है 

और आदमी आजाद है !!!


कई लोग कहते हैं

सच की जीत होगी

और हम देखते हैं

गला काटने वालों का

जीत होती है

बस हल्ला और शोर

बाकी शरीफ़ भी चोर !!!!


कहां की बातें कहां ले जाते हैं

आदमी सियासत का क्या कर जाते

 हैं

वो समझाते हैं कि तोड़ते हैं

द्विअर्थी संवाद कर जाते हैं !!!!!

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