Literature-and-Society-Hindi Poetry
साहित्य रचते रचते
भूल जाते हैं साहित्यकार
अपनी सीमा
जहां एक की बुराई गिनाते हैं
वही दूसरे की भूल जाते हैं
आलोचना और तीखे शब्दों से
चोट करते हैं बार बार
लेकिन अपने समर्थन की बुराई पर
ध्यान नहीं दे पाते हैं एक बार
हां , वो प्रगतिशील हो सकते है
ऐसे कई साहित्यकार
मगर एक बेहतर समाज को
समझा नहीं पाते हैं
किस राह चलना है
बता नहीं सकते हैं
केवल आलोचनात्मक दृष्टि
समाज की बुराई
दूर नहीं कर सकते हैं
एक सामंजस्य
स्थापित कर नहीं पाते हैं
फिर साहित्यकार
कहलाने का क्या मतलब ???
Literature-and-Society-Hindi Poetry
बुद्ध हो जाना
युद्ध हो जाना है
तथाकथित नव बुद्धिस्टों ने
इस तरह प्रस्तुत किए हैं
गौतम को
जिसका ज्ञान सार्वभौमिक न हो कर
हिन्दुओं की आलोचना पर ठीक गया है
ऐसा लगता है
जैसे ज्ञान की बातें न होकर
आलोचना की है
बुद्ध ने जीवन पर
गलत लोगों ने
बुद्ध को रख लिया
अशुद्ध करके !!!
सियासत ने हर जगह दखल दिया है
कभी धर्म पर
कभी जीवन पर
कभी साहित्य पर
कब्जा किया है
सबसे ख़तरनाक तो तब है
जब धर्म ही
सियासत से चले !!!!
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