प्रकृति में अंतनिर्हित व्यवस्था है ।यहाँ हर क्रिया के पीछे कारण है । बिना कारण के यहाँ कुछ नहीं होता है । असंतुलन भले ही प्रतीत होता है लेकिन वही संतुलन का कारण भी है । क्षरण भी है तो निर्माण भी है ।
बारिश के बाद घासों का उगना और गर्मी में सूख जाना । प्रकृति की क्रिया है जो पुनः बरसात आने पर उग आते हैं ।
ऐसा लगता है कि मानों प्रकृति के पीछे किसी चेतन तत्व निरंतर गतिशील हो ।सदा सचेत हो कर । जो प्रकृति को पारिस्थितिकी तंत्र में बांधा हुआ हो,,व्यवस्थित ।
यहाँ हर चीज़ की अपनी कीमत है । छोटे-छोटे जीवों से लेकर बड़े जीवों तक । उपभोक्ता है तो उत्पादक भी । जिसे पहचानने की जरूरत है न कि दुख या शोक प्रकट करने की ।
नहीं किसी भी जीवों को देखकर खिन्नता प्रगट करने की । जो हमारी रूचि/अरूचि के कारण महसूस होता है । हम इंसान हैं । जिसकी समझ अंतर प्रकट करता है । किसी वस्तु, जीव आदि को देखकर । रसास्वादन कर जाता है हमारी इद्रियॉं । उसके गुणधर्मो को ।
मान लो किसी सूरा कुकूर को खाते देखते हैं तो थूकना
अपने बौद्धिक गुणों के कारण असंतोष प्रकट करता है । अपनी ही मानसिकता में उलझकर अराजक व्यवस्था का निर्माण करता है । जिंदगी भर असंतुलन के भाव में जीता है । पछतावा,, शोक करता है ।
जबकि मनुष्य और जानवर एक ही प्रकृति से संचालित होते हैं । प्रकृति का निर्माण इस तरह से हुआ है कि वह प्रकृति की पारिस्थितिकी तंत्र के संचालन में मदद कर सकें । निषेचन क्रिया से लेकर अन्य क्रियाओं के लिए स्वतः प्रकृति उत्प्रेरित करते हैं । उन अंगों की ओर जिसका संबंध है । जानवरों या अबूझ लोगों को समझाने की जरूरत नहीं होती है । स्वतः प्रेरित हो कर कार्यों का संपादन कर ही देते हैं ।
केवल इंसानों के पास ही वो क्षमताएं हैं जो उसे अच्छा या बुरा रूप में अभिव्यक्त कर सकते हैं । बाक़ी जानवरों में ऐसा करने के लिए क्षमताएं नहीं होती है ।
क्योंकि प्रकृति ने इंसानों को सभी जानवरों के गुणों को भरकर दे दिया है । जिसके कारण इंसान कभी जानवरों के समान लगता है तो कभी इंसान के समान और कभी इंसानों से भी श्रेष्ठ !!!!!
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