poetry on social thinking.समाज में एक दूसरे के प्रति मान - सम्मान , विस्वास, सुरक्षा , सहिष्णुता , सहयोग , अपनापन आदि क्यों क्षीण हो रहा है ?
परिभाषाएं गढ़ी गई है, नई नई । दूसरों में कमियां जल्दी ढूंढ लेते हैं । अपनी छुपा लेते हैं । दूसरों की बुराई बड़ी अपनी छोटी नज़र आती है । हम जानते हैं सबकुछ इसलिए हम बड़े हैं । बाकी सब छोटे, हमसे कमजोर । स्वयं के सिवा कोई और बड़ा नहीं है । मैं की भावना प्रबल है । इसलिए मान सम्मान किसी अन्य का नहीं देते हैं ।
poetry on social thinking
त्याग करना स्वयं को मुर्खता सिद्ध करना हो गया है । सहनशीलता को कमजोरी, सहयोग को समय बर्बाद, जब तक कोई मतलब नहीं है । ज्यादातर चालाकी को समझदारी मान बैठे हैं , सभी । इसलिए अविश्वास है । क्योंकि अक्सर लोग ऐसी ही हरकत कर देते हैं । इसलिए अपनी सुरक्षा का डर है । कहीं कोई मतलब न निकाल लें । अपनापन तो ख़त्म करना पड़ेगा । क्योंकि हम बौद्धिक युग में जी रहे हैं । जहां भावुकता से ज्यादा बौद्धिक स्तर काम आते हैं । भावुक लोगों को सभी ठगने का प्रयास करते हैं ।
क्रिया में न कर्ता है
न संज्ञा
लोग सर्वनाम
बता रहा है
शायद ! डर रहे हैं
किसी संज्ञा के उच्चारण से
विशेषण और विशेष्य से भरें पड़े हैं
उसके शब्द
उसने अपने डर को
समझदारी मान ली है !!!!
सच कहाॅं था तुमने
खुद का
जीने का नज़रिया हो
जहाॅं हॅंसती खेलती
अपनी दुनिया हो
लोग को अब फुर्सत कहाॅं
किसी के लिए
मतलबपरस्ती में जीते हैं
जहाॅं सुविधा हो
माना जीना कठिन है
मरना आसान है
जिस पर खुद का
एक नजरिया हो !!!
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