इंसान की भूल Article Social.

 इंसान की भूल 


इंसान की सबसे बड़ी भूल - यही है कि वह भूल जाता है कि एक इंसान है ।Article Social. दूसरे इंसानों जैसे । सबकी चाहत एक है ,, दिल की । सबका शरीर एक है । सबकी आत्मा एक है । फिर भी भूल जाते हैं ।

आखिर एक दिन सबको मर जाना है । लेकिन जीते ऐसे हैं,, मानो उसे यहाँ सदा रहना है । दूसरों को तुच्छ मानकर । इंसानों में भेद कर जाते हैं ।  केवल रंग -रूप ,शारीरिक बनावट,धन दौलत आदि के कारण । 

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शारीरिक बनावट ही है जिसकी वजह से इंसान एक दूसरे से अलग नजर आते हैं । 
चाहे स्त्री हो या पुरुष (या फिर पुरुष से पुरुष  ),चाहे जीव-जंतु हो । सबके अंदर एक पुरुष हैं । जो सबके अस्तित्व का आभास कराते हैं । पहचान कराते हैं । इस दुनिया की । खुद को । कई संवेदनाओं को भीतर-भीतर अहसास कराते हैं । जिसकी क्रिया या क्रियान्वयन में अंतर आ जाता है । जो अपनी शारीरिक प्रकृति की वजह से अलग नजर आते । जिससे देखकर हमें घृणा या आकर्षक (प्रेम) लग सकता है । 
प्रकृति द्वारा प्रदत्त शारीरिक-मानसिक भावनाओं की उपस्थिति जो है,, लगभग सबमें समान है । केवल उसकी प्राप्ति के तरीकों और समझ में भिन्नता होती है । जितनी भी भावनाऐं हैं,, लगभग समान है । उसकी प्रस्तुति में अंतर है । किसी में आक्रमकता तो किसी में नहीं । सहज प्रतिक्रिया । किसी के स्वाद में अंतर है तो किसी के दृष्टि में ।

जैसे एक गिद्ध सड़े हुए मांस को आसानी से खा सकते हैं ।हम इंसान नहीं । क्योंकि गिद्ध की जिव्हा ही ऐसी बनी है । जिससे उसे सड़े हुए मांस का स्वाद रूचिकर लगता है । खींच खींचकर खाता है । इसी तरह अन्य जानवर भी जो इंसानों से भिन्न स्वाद रखते हैं । हालांकि भूख की शांति सबको जरूरी है । लेकिन क्रिया में अंतर है और स्वाद में भी । इसलिए हमारे दिल में नफ़रत है या प्रेम है । ये हमारे नजरियों का अंतर है । जो हमारे प्रतिकूल है या अनुकूल है ।इसी आधार पर निर्माण है ।

अक्सर एक पुरुष, पुरुष से ही ईर्ष्या-द्वेष रखते हैं । महिलाओं से कम । क्योंकि पुरुष ही है जो दूसरे पुरुष को चुनौती देकर उसकी अहमियत को कम कर सकते हैं या फिर एक ही बिरादरी के रूप में मानते हैं । जिसके सामने उसकी महत्ता को चुनौती मिलती है या फिर जानते हैं । एक दूसरे की भावनाएं और प्रकृति को ।
ठीक वैसे ही प्रतिस्पर्धा एक ही उम्र के साथ ज्यादा होती है और दोस्ती भी । जिसकी चुनौती कभी स्वीकार नहीं कर सकते हैं ।भिन्न उम्र के लोगों से सहानुभूति या फिर आदर हो सकते हैं और  प्रतिस्पर्धा नगण्य । हॉं अपवाद स्वरूप एकाध मिल जाते हैं । जबकि सभी उसी भावनाओं से गुजर कर उम्र के आखिरी पड़ाव तक जाते हैं ।
ठीक इसके विपरित स्त्री है जो कहीं ना कहीं पुरुष को पूर्णता का पर्याय मानते हैं । खुद को पुरुष से कमजोर मानने के पीछे  उसकी शारीरिक संरचना ही वजह हो सकती है या फिर पुरुष पर  उसकी निर्भरता या फिर बल की श्रेष्ठता । ऐसे ही स्वीकार की वजह से ज्यादातर पुरुष एक स्त्री को अपनी श्रेष्ठता या प्रभाव को अहसास कराने की कोशिश करते हैं और एक स्त्री अपने समर्पण को । जिसके सहारे खुद को कमजोर या मजबूत बनाते हैं । लेकिन प्रभावशील एक स्त्री है तो पुरुष को समर्पण का भाव प्रदर्शित करना अनिवार्य है । ऐसे में एक स्त्री पुरुष के सारे दायित्वों को पूरा करते हैं और पुरुष एक स्त्री पर निर्भरता । क्योंकि जिसमें क्षमता होती है उसी पर नेतृत्व का भार पड़ता है । 

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हॉं, ये अलग है कि कुछ लोग भूल जाते हैं एक दूसरे का सम्मान करना । भूल जाते हैं सबकी पीड़ा को और अपने अपने वर्चस्व में उलझे रहते हैं । भूल जाते हैं घर का संचालन कैसे किया जाय । भूल जाते हैं रिश्तों की संरचना । अपने ही अहसास की अहमियत में । किसी को छोटा किसी को बड़ा । और अपना विचार थोपने लगते हैं । यहीं कि उसकी सोच बड़ी है । उसके सामने वाले से ।
शारीरिक बनावट अलग-अलग हैं तो विचार भी भिन्न-भिन्न होंगे । विचारों के निर्माण में शारीरिक संरचना का बहुत बड़ा योगदान है । जैसे एक स्त्री पुरुष में । 
पुरुष के अंग स्त्री के अंग से भिन्न है , जबकि एक दूसरे के पूरक और एक दूसरे की जरूरत है । एक दूसरे की वासनाओं की पूर्ति की दृष्टि से अतिआवश्यकता है । ये अंतर ।  जिसका सम्मान नहीं कर पाते हैं और अपनी अपनी अहमियत में एक दूसरे से तनाव में रहते हैं ।
बचपन से ही शारीरिक बनावट में अंतर है । जिसके कारण कार्यक्षमता में भी अंतर है । जो कार्य एक पुरुष कर सकते हैं उसे एक स्त्री को करने में तकलीफ़ हो सकती है । लेकिन ऐसा नहीं जो कार्य एक स्त्री कर सकती है उसे एक पुरुष कर सके । इन दोनों की क्षमताओं पर सवाल उठाना बेवकूफी है  । क्योंकि दोनों के पास अपनी अपनी क्षमताएं असीमित है ।  जिसे पहचानने की जरूरत है । लेकिन भूल जाते हैं आजकल के सभ्य इंसान । जबकि महत्ता सबकी एक है इस धरती पर !!!!!
---राजकपूर राजपूत''राज''
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