प्रकृति और प्रवृत्ति- prakriti-aur-pravritti

prakriti-aur-pravritti- प्रकृति अपना काम  करते हैं ! चाहें हम जाने या न जाने ! प्रकृति अपनी क्रिया अनायास ही करते हैं जिस तरह से पलकें बिना प्रयास के बंद हो जाती है ! ठीक उसी तरह से प्रकृति अपनी प्रवृत्ति में अपनी क्रिया करती रहती है ! जिसे हम छेड़ते रहते हैं ! 

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प्रकृति एक निर्धारित प्रवृत्ति है - 

जिसमें बंधे हुए हैं ,,हम सभी । जैसे आंखों का काम है देखना ,, कानों का काम है ,,सुनना । जीभ का काम है ,स्वाद लेना आदि, । 

ये सभी किसी वस्तुओं के गुण दोषों को महसूस करा 
कर प्रतिक्रिया देते हैं  । जिसे हम अपने इन्हीं अंगों के माध्यम से प्रगट करते हैं ।  नजरिए का निधारण करते
हैं ,,किसी वस्तु, स्थान आदि की पहचान करते हैं । जो हमारी रूचि,अरूचि का कारण बनते हैं ।जिसे हमारे कर्मेंद्रियां को  इन्हीं  प्रवृत्तियों के कारण निर्धारण करने में मदद मिलते हैं ।एक दूसरे का ।प्रकृति की।  जिसे सभी लोग बार बार हमारी पुनरावृत्ति (व्यवहार में ) को देख कर हमारी प्रकृति को जान जाते हैं । पहचान 
बनती है,,हमारी प्रवृति की।  हमारी प्रकृति की ।

लेकिन इंसानों में जानवरों के इंद्रियों जैसे गुण नहीं होते । वो प्रकृति द्वारा प्रदत्त गुणों का उपयोग करते हैं 

जबकि इंसान अपने बुद्धि का उपयोग कर कम ज्यादा कर सकते हैं । अपनी रूचि अनुसार ।
कई विचारों से व्यक्ति संचालित होते हैं । हालांकि कभी दूसरों के विचारों से आंदोलित होते हैं । उसके स्वयं के विचार बाह्य विचारों से जब टकराते हैं । 

प्रकृति में जिस विचार की प्रबलता होती है  

उसकी जीत होती है और जीत तभी होगी जब जहॉं हमारी कामनाएं होगी । भीतर ही भीतर ।कोई किसी पर प्रभाव तभी डाल सकते हैं जब उसकी भावनाओं को छूते हैं ।उनकी चाहत में हलचल करते हैं । उसे भी लगने लगते हैं यही सही है । मन को रूचते हैं । किसी की बातें तो स्वीकार करने में उसे 

प्रकृति सहज महसूस होने लगते हैं 

सही है या ग़लत,कुछ दिनों तक समाज या फिर अपनो के भय से छुपा तो सकते हैं परंतु सदा के लिए नहीं । आपकी चाहत उचित अवसर पर सबके सामने प्रगट 

हो जाएगी।भले ही देर से । उस समय कुछ लोगों पहचान जाएंगे ।आपकी प्रकृति,, जिसे आप कुछ 

झूठे व्यवहारों से छुपाए हैं ।जो कभी-कभी दिखाई 

देती है । जो आपके मूल प्रवृत्ति है !

प्रकृति की प्रवृत्ति ले जाती है । उस ओर जहां सहज क्रिया का बंधन है । जैसे आंखों का झपकना, पलकें गिरना और उठना । जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता है । बस ध्यान लगाकर और इच्छा शक्ति के बल पर इसे नियंत्रित किया जाता है । ठीक इसी तरह से कई अन्य क्रियाएं हैं । 

प्रकृति निर्धारित है  । अपने प्रवृत्ति में । निश्चित और अबाध गति से चल रही है । जो तुम्हें प्रकृति ने दिया है । उसमें बंधे हुए हो । अनायास । खाना, पीना , सोना बरबस ही करा लिए जाते हैं । जिसमें हम मजबूरीवश करते हैं । स्वीकारते हैं । 

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