ईश्वर की स्तूती

प्रार्थना के लिए
जब भी हाथ उठाते हैं
और दंडवत प्रणाम करते हैं
बहुत सुख पाते हैं
किसी मंदिर में
किसी मुर्ति के सामने
उस समय आपके हृदय में
दुःख, संताप की
अनुभूति होती है
दुनिया से
शिकायतें होती है
जहां आपको
सहारा नहीं मिला है
इसलिए आप झुक जाते हैं
और अपने अहम को
समर्पण कर जाते हैं
अपना सबकुछ
अपना वजूद

उस पल केवल एक सहारा
इष्टमूर्ती के सामने
अंतर्मन ने पुकारा
सारी इच्छाओं को त्याग कर
अपना सबकुछ 
इष्ट मूर्ती को मानकर
समर्पित हो जाने से
हृदय में
आनंद का संचार होता है
जिसमें आदमी ठहरता है
सारी दुनिया को छोड़कर
अपने में खोकर
आदमी रोता है
खुद को असहाय पाकर
उस समय
ईश्वर से रिश्ता जुड़ जाता है
खुद के अंदर खुद को पाता है
बेशक
ये कुछ पल के लिए प्रेरित है
जबकि
इंसान हर पल अहंकार से ग्रसित है
जो पूरी तरह से 
पराजित हो जाने पर
ईश्वर के करीब आ जाते हैं
---राजकपूर राजपूत''राज''

















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