जब से बुद्धिजीवियों ने किसी बात पर राय रखी है । तब से जनसामान्य को उसमें सत्यता का भास हुआ है । लेकिन यही बुद्धिजीवी ने बड़ी होशियारी से अपनी बात किसी न किसी एजेंडा से जोड़ दिया है । जिससे उन पर भरोसा नहीं रहा है ।
कविता हिन्दी में 👇👇
बुद्धिजीवियों के बीच मेंं
जब सत्य का शोध हुआ
तो..
सत्य और टूटता गया
शुद्धता लाने के लिए
कई बार
परिमार्जन किया
आवाजें उठी
सुविधानुसार…
अपने- अपने
सत्य की खोज में
और जिसकी
आवाजें ऊॅ॑ची थी
जिसमें नग्नता थी
उसी ने सत्य को
प्रमाणित किया
हालांकि सत्य
सबके लिए था
लेकिन
बुद्धिजीवियों ने
सत्य को
गुमराह करने की
क्षमता विकसित कर ली
अपने लिए
जिसकी चाल में
लोग भ्रमित है
आज तक!!!
---राजकपूर राजपूत''
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