बचपन की दोस्ती

bachapan-ki-dosti- मेरा और मेरे दोस्तों का बचपन बहुत गरीबी में बीता । न किसी के पास ढंग के कपड़े थे । न खेलकुद का साधन । फिर भी उस समय का मजा ही कुछ और था। बेफिक्र से घुमना फिरना । कंटीले बेर के पेड़ों से फल तोड़ना । दूसरों के खेतों में चने उखाड़ के खा जाना । आए दिन घरों में शिकायत होती थी । फिर भी हम लोग कहाॅ॑ मानने वाले थे । दूसरे दिन फिर वही मस्ती । गर्मी की छुट्टियों मेंं तो दिनभर तालाब में डूबे रहते थे । घर वाले परेशान हो जाते । तालाब में ज्यादा ना डुबे रहे इसलिए डराते थे । तालाब में जंजीर है जो दोपहर में नहाने वाले को खींच लेते हैं । और पैरों को बांध के गहरा पानी में डूबों देते हैं ‌ । फिर भी नहीं मानते थे। हाॅ॑ , डरते जरूर थे । धूप लगते तो बरगद के छांव तले बैठ के बातें करते । उसी के छांव तले गिल्ली डंडा खेलते थे ।  

 bachapan-ki-dosti-

 पूरे मोहल्ले में आठ- दस बच्चें थे । सभी कुछ भी करते तो एक दूसरे को बताते । अपनी- अपनी खुशियों को बरगद के नीचे इकट्ठे हो कर बातें करते । जब रात हो जाते तो घरों में सुनी कहानियों को सुनाते । भुतों की कहानियां बहुत पसंद थी । सहम जाते डर के मारे । सभी एक-दूसरे से चिपक जाते और उस डर में भी बहुत मज़े थे । हॅ॑सतें गाते थे और साथ में ही रहते थे । मस्ती में कब दिन गुजर जाते थे पता नहीं चल पाता था । नज़दीक के ही गांव के पास मेला लगने वाला था । हर बार सभी साथी अपने -अपने माता-पिता के साथ ही मेला घुमने जाते थे । जिसके कारण अपनी मर्जी से घुमना - फिरना नहीं कर पाते । बस पिता जी के उंगलियों को पकड़ के चलों., पीछे- पीछे । जो खिला -पिला दें । जिंद से कुछ खरीदवा तो सकते थे । लेकिन अपनी मर्जी से चल नहीं पाते । कोई दोस्त मिल भी जाते तो बस देख ही सकते थे । बड़ों के सामने कैसी मस्ती .? अपनी ही उम्र के लोगों से दोस्ती होती है । दोस्ती के लिए जरूरी है कि विचार, संवेदना समान हो । जो केवल अपनी उम्र वालों के साथ होते हैं । बड़े लोग कहाॅ॑ समझ पाएंगे..? उसकी सोच अलग होते हैं।(bachapan-ki-dosti- )

मैंने दिलीप से कहा- "अपने जितने पढ़ने वाले साथी है । सबको आज शाम बरगद के पेड़ के नीचे बुलाते हैं ।  मेला जाने के लिए । मेले में सभी साथी एक साथ घुमने जाएंगे । बहुत मजा आएगा ।"
मेरी बात सुन के दिलीप बहुत खुश हो गया । वह पढ़ने लिखने में थोड़ा कमजोर था । उसे तो ज़्यादा ऐसे मौके की तलाश रहता था । उसने मेरी बात मान ली । शाम को सभी बच्चों की पंचायत हुई । सबने अपनी-अपनी बात रखी । मोहन, राकेश ,राजेश, दिलेश, दिलीप, चंद्रशेखर, बबलु सभी सहमत हो गए । सिवाय जय के ।उसका चेहरा उतरा हुआ था । शायद वो जाना नहीं चाहते थे । उसके पिता जी कुछ अलग ही इंसान थे । जय का हम लोगों के साथ घुमना फिरना पसंद नहीं था । दिन भर घर में रह कर पढ़ो लिखों । हम लोग अक्सर उसकी खिल्ली उड़ाते थे। इसलिए कि पढ़ने के समय में पढ़ो लिखों.. खेलने के समय में खेलों ।, दिनभर किताब के सामने बैठने का क्या फायदा.?  जब ध्यान ही नहीं ।
 
उसी समय दिलीप ने कहा:-
" जय को क्या हुआ .? क्यों उदास है.? "  
"नहीं..! उदास नहीं हूॅ॑ । बस डर रहा हूॅ॑ । कहीं मेले में खो हो गए तो ।" जय ने कहा।
" कितना बड़ा मेला है । चार गली का है ।  वो भी छोटे छोटे । दो कदम गए ,गली खतम । " मोहन ने कहा । 
"पैसें -वैसे भी तो नहीं है । घर में कहूॅ॑गा तो और जाने नहीं देंगे मेरे पास अच्छे कपड़े नहीं है । सभी फट चुके हैं । "
पैसें की बात पर सभी चिंतित हो गए । यदि घरों में पैसा मांगेंगे तो घर वाले सचमुच नहीं जानें देंगे। फिर मैंने कहा:-
" चिंता मत कर । पैसा कोई घर से नहीं मांगेंगे । हम लोग छेरछेरा पुन्नी में एक साथ छेरछेरा मांगने जाएंगे। जो भी अन्न दान के इस पर्व में अन्न (धान) मिलेगा उसे बेचकर पैसा बनाएंगे । " 
जिसे सुन सभी के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई ।आपस में बातें शुरू हो गई । कोई कहता कि एक एक साथियों को चार -पांच किलो धान जरुर मिल जाएगा । जिसे बेचने पर बहुत पैसे बन जाएंगे । सभी साथी एक साथ मान गए और मेला जाना पक्का हो गया।
 
फिर भी जय के चेहरे पर उदासी थी । वह चुप ही रहा । कुछ भी नहीं कह रहा था ।मना भी नहीं कर रहे थे । 
 
" ये अपने घर वाले को डर रहा है राजू । बहाने कर रहा है और किसके  कपड़े नहीं फटे हैं । कपड़े में पैबंद सभी के हैं । "मोहन ने मुझसे कहा । 
जिसे सुन सभी हॅ॑स पड़े । हाॅ॑, सभी लोगों के पैंट फटे हुए थे।  ऐसा नहीं कि जय मेला सचमुच जाना नहीं चाहता था। वह तो दोस्तों के बिना रह नहीं सकता । घरवालों के मना करने के बाद भी वह हमारे बीच शामिल होते हैं । कुछ देर बाद जय भी मान गए । लेकिन शर्त रखी कि हमलोग उसके घर वाले को मेला के बारे में कुछ भी नहीं बताएं । 
मेला पास ही के गांव मेंं लगता है ‌। जो हमारे गांव से बस छः सात किलोमीटर दूर है ।
छेरा पुन्नी का पर्व भी आ गया और हमलोग छेरछेरा मांगने निकल पड़े ।  इस दिन किसान खुल के दान पुण्य करते हैं । धान की फसलें धरती मां की कृपा से मिसाई कुटाई करने के बाद घरों में सुरक्षित कर लेते हैं । इसी खुशी में दान पुण्य करते हैं ।
आखिर देखते ही देखते मेला का दिन भी आ गए । सभी लोगों के मेहनत से पैसें भी इकट्ठा हो गए । सभी तैयार थे, मेला जाने के लिए । सबके चेहरे पर खुशियाॅ॑ झलक रही थी । मोहन और दिलीप तो सुबह से ही तैयार हो गए थे ।  बस जय का इंतजार था । 
"ये जय ना कभी समय पर तैयार नहीं होते। कहीं भी जाओ.! देर करते हैं ।" जय देर नहीं किए थे । बस मोहन को खुशी और उत्सुकता थी, मेला जाने की । कब मेला पहुंचे । सभी बरगद के पेड़ के नीचे  इकठ्ठा हो गए। कुछ देर बाद जय भी आ गया । सभी ने फैसला लिया कि  पैसा और खर्च का जिम्मा राजू का है। जिसे मैंने बहुत मना करने की कोशिश किया। 
"कोई दूसरा रखों पैसों को मुझसे नहीं होगा । ये पैसे- वैसे का..! "
चिंता मत करो कि पैसा गिर जाएगा तो हम लोग तुमसे मांग लेंगे । यदि ऐसा हुआ तो हम सभी का जाएगा । हम सभी का उस्ताद तुम ही हो । " बबलु ने कहा ।
सभी साथियों ने पैसों की जिम्मेदारी मुझमें डाल दिया।  जिसके कारण मुझे मस्ती कम सूझ रही थी । एक जिम्मेदारी मुझमें आ गई थी । हिसाब किताब की । 
जब गांव से निकले तभी योजना बनाने लगे कि पहले क्या करेंगे ..! किसी ने कहा - झूला पहले झूलेंगे । किसी ने कहा कि जलेबी एक जगह बैठ के खाएंगे । सब उछल रहे थे । कब मेला पहुॅ॑चे । कब मस्ती करेंगे । 
तभी मोहन ने कुछ याद करते हुए कहा:- "वैसे हम लोग चौथी-पांचवी से एक साथ हैं ना । उस समय भी हम लोगों ने खुब मस्ती किए । स्कूल हमारे कच्चें मिट्टी से बने थे । तब हम लोग गोबर बिन लाते थे और लड़कियां लीप देती थी । हर शनिवार को किस्से कहानियां की पारी रहती थी । जो नहीं सुनाते थे उसे कुछ पैसा देने पड़ते थे ‌। उसी पैसों से हम लोग सरस्वती की पूजा के लिए, अगरबत्ती खरीदते थे । बहुत मजा आता था ना । "
सभी लोग साल भर पहले की यादों में खो गए।
"लेकिन,अब बड़े कक्षाओं में कहाॅ॑ मजे आते हैं .? पिछली शाला तो हमारे आश्रम से कम नहीं था। "
" बबलु ने कहा । 
"वो लंबू गुरूजी बहुत बदमाश था । पढ़ाते लिखाते कम थे । मारते-पीटते बहुत था ।" दिलीप ने कहा । 
जिसे सुन कर सभी के चेहरे पर मुस्कान आ गई । क्योंकि उसे ही ज्यादा मार पड़ता था । 
लेकिन मैं सबको समझाते हुए जा रहा था कि एक साथ रहेंगे । कोई भी मेला में गुम गए तो एक निश्चित जगह में मिलेंगे । मेरी चिंता इसलिए थी क्योंकि मैंने ही मेला जाने की बात पहले कही थी । 
मोहन ने कहा- "चिंता मत करो यार । हम सब लोग साथ ही रहेंगे । कहीं भी जाएंगे तो जोड़ी में जाएंगे । भीड़ होने से पहले ही मेले से निकल आयेंगे । अपने घरों की ओर ।"
ठीक है।  सभी साथियों के चेहरे पर मुस्कान थी ।
देखते ही देखते हम लोग मेले में पहुंच गए । जहाॅ॑ तरह-तरह के दुकानें सजी थी । एक गली में पूरी मिठाई की दुकानें थी ।झूला मेले के बाहर में था ‌। गन्ने बैलगाड़ियों से आए थे । कई तरह के गुब्बारे । चूता चप्पल से लेकर कपड़ों की दुकान ।कई ऐसी चीजें जिसे हमलोग पहली बार देख रहे थे । मेले में सब कुछ था । 
हम लोगों ने सबसे पहले झूला झूलने का फैसला किया । सभी साथी एक साथ ही झूले । खुब मजा आ रहा था । जो जैसा चिख-चिल्ला लें । किसी का कोई बंधन नहीं था । कोई टोकने वाले नहीं थे । सब कुछ खुला ।
राकेश ने कहा:-"चलों.! कुछ अब मेला का सैर सपाटा करते हैं। क्या - क्या चीज आई है ! "
और हम लोग मेला घूमने लगे । 
एक खिलौने की दुकान में जब देख रहे थे तो दुकान वाले सभी साथियों को देख डर गया । एक साथ बैठने से वो हम पर नजर नहीं रख पा रहे थे । उसे लगने लगा कि ये लोग खरीदेंगे नहीं । कुछ समान को दबा देंगे । जिससे वो चिढ़ रहा था । 
"चलों.! भागों यहाॅ॑ से"
क्यों भागे..? बेचने के लिए ही तो बैठो हो ना । " चन्द्रशेखर ने कहा । 
" खरीदोगे कुछ नहीं । मौका मिलते ही एकाध खिलोने को दबा दोगे । "
कितनी बड़ी दुकान खोल के बैठें हो .! हम चाहें तो पूरी दुकान ही खरीद देंगे ।"
जिसे सुन दुकान वाले का मूॅ॑ह तमतमा गया । वह कुछ कहते इससे पहले ही मैंने मोहन को खींच लाया । ऐसे लोगों से नहीं उलझते,यार । 
"कैसा व्यवहार है उनका..! धंधा करने बैठा है, बातें कैसी.? कौन खरीदेंगे .? "
शेखर अलग ही लड़का था । किसी भी गलत बातों को सहन नहीं कर सकता था । 
सभी साथी मंदिर की ओर आ गए । जहाॅ॑ का माहौल शांतिपूर्ण था । इंसान कितने भी बुरे हो , मंदिर के पास आते ही सबको शांति की अनुभूति होने लगते हैं । सारे विचार कुछ पल ही सही ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाते हैं । हालांकि कुछ देर बाद अपने मूल स्वभाव में स्थिर हो जाते हैं । सभी के नाम पर एक ही नारियल चढ़ाएं । पैसा कम था ।  
कुछ देर बाद एक हाॅटल से जलेबी और समोसा खरीदें और मेले के बाहर मैदान में आकर बैठ गए। सभी साथी बैंठ कर खा रहे थे तभी राकेश ने कहा:-
"ये जय कितने जल्दी-जल्दी खाते हैं । देखो ! आधे जलेबी तो अकेले ही खा जाएंगे । "
"मैं बस खा रहा हूॅ॑ और तुम लोग मुझे देख रहे हो , अच्छा है ।"  
सभी साथी हॅ॑स पड़े ।
दिलीप ने कहा :- " चलों ! और मेला घुमेंगे । "
जिस पर सभी ने" हाॅ॑ "भर दी ।
सभी  मेला घूमने में में इतना मस्त रहे कि कब जय हमसे अलग हुआ ख़बर नहीं रही । अचानक याद आया कि वे कहाॅ॑ चले गए ..? फिर क्या था । सभी दोस्त परेशान हो गए । सबको चिंता होने लगी कि आखिर कहाॅ॑ भाग गए ! बिना बताएं । पूरे मेले भर ढूंढे । फिर भी नहीं मिला । हम लोगों की खुशी कम हो गई थी । सभी चिंतित हो गए । 

कोई कहता -गांव वाले पूरे मेले भर हैं । किसी के साथ होगा । लेकिन मेरा मन डर रहा था । कही हम लोग गांव  चलें गए और जय नहीं पहुंच पाया।तो सारा दोष मुझपे ही आएगा । मन दुविधा में पड़ गया था । सभी साथी और मस्ती करने के इरादे में थे । लेकिन मैंने मना कर दिया और कहा कि चलों और कुछ खाते पीते हैं । कुछ यादें के लिए पहचान खरीदते हैं । अब जो हो गया सो हो गया । कल देखेंगे जब जय खेलने आएगा । उस समय कोई उससे बात नहीं करेगा । सभी लोगों ने वादा लिया  ।  कसम खाएं । कुछ कल के लिए मिठाई खरीदें । सभी साथी बैंठ के बरगद के पेड़ नीचे खाएंगे । सभी के लिए बजरंग बली की माला खरीदें । भुतों की कहानी सुनते समय डर जाते हैं । भगवान हमेशा साथ रहेगा तो बुरी चीज पास नहीं आएंगी । एक- एक गुब्बारा लिए। 
भीड़ बढ़ रही थी और हम लोग घर की ओर चल पड़े ।
रात में ही पता चल गया कि जय अपने पिता जी के साथ मेले से आ गए हैं । 
जब सुबह हुई और सभी साथी बरगद के पेड़ के नीचे इकठ्ठा हुए । तो सभी ने अपनी कसम दोहराया कि कोई भी जय से बात नहीं करेगा और हम लोग गोटी खेलने लगे ।
कुछ देर बाद जय संकुचातें हुए आया । उसके चेहरे पर गलती का अहसास था । कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा । सोचा कोई पहले बात करें तो वो भी कुछ कहें ‌। लेकिन सभी चुप थे ।  कुछ देर बाद--
"इधर की गोटी को मारो, राजू । कौन जीत रहा है .? आज के खेल में ।" जय ने कहा । 
सभी साथी चुप ही रहे । कुछ देर तक जय सभी लोगों से बात करने की कोशिश की । कोई उससे बात करने को तैयार नहीं देख खुद को उपेक्षित महसूस करने लगा । 
खुद को समझाते हुए कहा-"मेरे पिताजी ने मेरे लिए बढ़िया खिलौना खरीदें हैं । हम घर मेंं ही खेलेंगे । "
"जा ना..! यहाॅ॑ क्यों आया है .?"मोहन चिढ़ते हुए कहा।
"ठीक ही है । खिलौने के लालच में ही तो मेले में छोड़ दिया ।" बबलु ने कहा ।
"मुझे तो पहले ही पिताजी कह चुके थे कि मेला घुमाने ले जाऊंगा । तुम लोगों के डर से बहाना बना रहा था । जिसे समझें नहीं । तो मैं क्या करूं .! मेले में जब पिता जी देख लिया तो साथ में ले आएं । बताने का समय नहीं मिला । "
उसने अपनी बात रखी । जिससे उसको तसल्ली हो गई । उसने शिकायत करते हुए फिर कहा-
"मैं तुम लोगों के लिए मिठाई लाया हूॅ॑ । लेकिन तुम लोग सारे पैसों को खा दिए होंगे । मेरे लिए कुछ भी नहीं खरीदें होंगे । "
जय अपनी बात जीत चुके थे । सभी साथी मुझे देखने लगे । मानों जय ने सबको फटकार लगा दिया । 
"हम लोग भी लाएं है । केवल मिठाई ही नहीं , भगवान का माला भी रखें हैं । "
मैंने मिठाई निकाली और सभी साथी टूट पड़े । मेले की  यादों में न जाने कितने हॅ॑सी फुटे । कितने दिनों तक याद किए और अगले साल भी ऐसे ही दोस्तों के साथ मेला घुमने जायेंगे.. कई वादे किए । 
समय गुजरते गए और साथी छूटते गए । जैसे-जैसे हम सभी के ऊपर जिम्मेदारी पड़ी ।  एक-दूसरे से अलग होते गए । बरगद की छांव आज भी वही है ।  कुछ साथी जिंदगी के जद्दोजहद में उलझ के दूर हो गए तो कोई यूॅ॑ ही हमसे दूर हो गए । बरगद की छांव आज भी इंतजार करते हैं कि कोई आए कभी उसकी छांव तले । उसके सुनापन दूर करें । लेकिन अब हम लोग नहीं मिलते हैं ।न जाने कौन सी उम्र के पड़ाव में खड़े हो गए हैं ।  

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____राजकपूर राजपूतbachapan-ki-dosti-





 



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