व्यर्थ की दौड़

Vyarth-ki-daud- रवि हमेशा अपने कामों में खुश रहते थे । वह कभी भी खाली नहीं रहता था । कुछ न कुछ काम करते । जिसके कारण रवि के दोस्त हमेशा उसे उलाहना देते रहते थे कि कितने कंजुस हो कि कमा-कमाकर मर जाओगे। । यहाॅ॑ से क्या लेकर जाओगे..?

इन्ही बातों का असर उस पर भी पड़ने लगा । अपने जिन्दगी और उनके जिन्दगी में खुद को तौलते तो अपने आप को छोटा पाता । कितना मौज-मस्ती करते हैं और मैं हूँ ..! फुर्सत ही नहीं कामों से..! उनके दोस्त दिनभर यहाॅ॑ -वहाॅ॑ घुमते थे। काम कम ही करते थे। कभी नाच कार्यक्रम को देखने जाते , तो कभी किसी  नेता के भाषण रैली में जाते । इन सब कामों से फुर्सत मिलते तो बैठ के मोबाइल में घुस जाते । और शाम को पार्टी निश्चित मनाते । शराब पीके दुनियाॅ॑ भर के चिंताओं की बातें करते । मानों उसके पास खुद की कोई समस्या ना हो। हद तो तब हो जाते जब पी के नशे में चुर घुमते और उसी को जिन्दगी कहते ।

Vyarth-ki-daud-

कभी -कभी उसके बहकावे में आकर रवि उसके जैसे बन जाते। जो उसे शुरु-शुरु में अच्छा नहीं लगता था। लेकिन बाद में उन्ही लोगों में शामिल हो गये। चार दोस्तों को छोड़ नहीं सकते थे। इनके साथ ही तो रहना है। चार लोगों की बुद्धि और वे अकेले.. । उन लोगों के पिछल्गु हो जाते। उनके तर्क का जवाब नहीं दे पाते थे ।
जब चुनाव का माहौल था तो शराब मुफ्त में जुगाड़ हो जाता था । गांव के नेता लोग भी अपने-अपने पार्टी की रैली  में ले जाते ,जो शाम के समय शराब जरुर पिलाते लेकिन अब नहीं है । अपने जेब से मिला के पार्टी मनाना पड़ता था।

एक दिन जब मालती से पैसा मांगा तो वह गुस्से से तमतमा गई ।
''पिताजी(ससुर)के गुजर जाने के बाद जैसे तुम्हें आजादी मिल गई है । बंधन कुछ नहीं । मंहगा फोन खरीद लिए।गप्पे झाड़ना , खुद को कभी देखे हो , एक बुराई के पीछे कितना बुराई आ गए हैं । अब हम लोगों से तुम्हें खुशी नहीं मिलती।जो उन लोगों के पीछे दौड़ रहे हो" ।

''क्या करे ,साथी ही लोग खराब हैं। मैनें कहाॅ॑ कभी घर को  छोडा़ है । तुम लोगों के साथ ही तो हूँ।"समझाते हुए कहा।

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''फिर गलत बहानें ।"

''क्या ये बहाना.?"रवि ऐसे बोले जैसे वे मासुम हो ।

''हाँ,कोई भी किसी को नहीं बदल सकता । जब तक वे खुद न चाहे । अब कोई शराब को मुंह में जबरदस्ती तो नहीं घुसा देते हैं । एकाध बार जिंद कर देंगे । बार-बार नहीं । उसमें खुद की चाहत होती है । अंदर ही अंदर उसके स्वाद और मजा का एहसास।उसके बाद बहाना बना-बनाकर पीना-खाना।"

''चल अब ज्यादा भाषण मत दे..मुझे,100रु दो।"

"नहीं दूँगी , फिर शराब पी कर आओंगे ।" मालती जिंद करके कही तो रवि को बहुत गुस्सा आ रहा था । जी,चाह रहा था कि खीच के थप्पड़ ,गालो में छाप दे । लेकिन मालती भी बहुत गुस्से में थी । बात बढ़ जाएगी । और रवि वहां से चला गया ।अपने दोस्तों के पास । मस्ती की तलाश में।

इधर मालती बड़बडा रही थी- शराबी तो पक्का हो गया है ।उस दिन बच्चे ने उससे पैसा क्या मांगे।बच्चे से हिसाब पुछ रहा था..। उस दिन तो पांच रुपय तो दिए । कितना पैसा मांगते हो..! और उसका हिसाब कौन देगा..? जो रोज शराब के लिए सौ-डेढ सौ रुपय खर्च करते है । उसका प्राथमिक आवश्कता हैं । शर्म नहीं..! बरसात आने वाली हैं । खेत का मेढ़ जगह -जगह से टूट चुकी है । कोई चिंता है..! कल तो उसे  जाना ही पड़ेगा ।  मालती अपने आप से बात करने लगी।

अगली सुबह मालती खेत जाने की तैयारी करने लगी ।लेकिन रवि अभी तक नशे में था । कई बार जगाने के बाद नींद से उठा । ऑ॑ख खुलने के बाद महसुस हुआ कि बदन टूटा-टूटा महसुस हो रहा था । कुछ करने का मन नहीं हो रहा था । उसके सुस्ती को देखकर बोली-"हो गई मस्ती..!ये मस्ती कैसी है ..?जिसमें खुद की होश नहीं।जीवित व्यक्ति ही मस्ती कर सकता हैं । और तुम्हे..." ! मालती का फिर से बड़बड़ाना देख रवि चुपचाप घर से कुदाल लेके निकल गया । और पीछे-पीछे मालती भी आ गयी।

खेत गांव से दूर था । सूरज का अभी पता नहीं था । रौशनी पसर रही थी । खेतों में काम करने वाले दूर एकाध आदमी ही दिख रहे थे । वातावरण एकदम शांत था । कोयल बीच -बीच में मधुर आवाज निकाल रहे थे । पंछी भी कोई -कोई पेड़ में चहक रहे थे । इन सब के बावजुद रवि को वहाॅ॑ का माहौल सूना लग रहा था। ज्यादा शराब पीने कि वजह से दिमाग में ताजगी नहीं थी । वही कुछ दूर में एक बुढ़ा बैल मर चुका था । शायद रात में ही प्राण निकले चुके थे । बदबू नहीं था । रवि चुपचाप खेतों से ढेला निकालते और मालती उसे खेत के मेड़ में रख देते ।
मृत बैल के पास कुत्तों का झूण्ड आ गए थे । चार-पांच की संख्या में । जो आराम से खा नहीं रहे थे । एक-दूसरे पर भौंक रहे थे । गुर्राते.. । दांत दिखाते..। अपने से कमजोर पर शायद रौब झाड़ रहे थे । मृत पशु पर अपना हक जता रहे थे।कमजोर चुपचाप अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे । जैसे ही नजदीक जाने का प्रयास करते,बलशाली अपनी दांत दिखाते जिसे देखकर कमजोर डर में दूर हट जाते ।
कुत्तों की हरकत कुछ दूर काम कर रहे रवि को पसंद नहीं आ रहा था ।
उसने कहा-"खाते हैं तो चुपचाप खा लेते । भौंकते क्यों है .?।न खुद तो चैन से खाते हैं ,न दूसरे को रहने देते हैं। न जाने कैसे चीथ-चीथ के खा रहे हैं। बदबू नहीं आती।"  रवि गुटखा तो खा रहा था ।मूॅ॑ह बनाकर थूंक दिया । पच से।
मालती तो पहले से ही गुस्से में थी। वो बोली-
"उसका नाक और जिह्वा ही भगवान ने इसी ढंग से बनाया हैं।बदबू कहाॅ॑ से आएगी ? शराबी को ही देख लो । शराब में कितना बदबू..। और लोग पीते । मैं तो सूंघ भी न सकूँ। पीने वाले पीते हैं।"
"बस ! अब फिर उपदेश मत दे।"
"इसमें बुरा मानने वाली बात ही क्या है..!यह तो लार हैं,जो कुछ भी देखते ही मुॅ॑ह के कोर में आ ही जाती है। जिसे हम अपनी रूचि और जिह्वा के अनुसार घुटकते और थुकते हैं।अब आदमी के पास तो दिमाग है ,जब वे नहीं पहचानते तो फिर ये तो जानवर हैं..।"
और इतना कह के मालती चुप हो गयी।
रवि को बुरा तो लग रहा था,फिर भी यह मान रहा था कि जो कह  रही है सच  हैं।

और दोनों चुपचाप काम करने लगे। कुछ देर बाद न जाने कही से सियार मृत पशु की ओर जाते दिखाई दिया । रवि और मालती उसी को देखने लगें । जो कुत्ते अपने ही जाति को साथ खिला नहीं सकते । इसे कैसे झेलेंगे।
सियार मृत पशु से कुछ दूर खड़ा हो गया । बलशाली कुत्तें चीथ-चीथ के खा रहे थे । सियार पर ध्यान नहीं गया । फिर अचानक खाते हुए कुत्ते ने देखा । देखते ही दांत निकाल दिए। फिर क्या था,भौकना और गुर्राना शुरु । पास के सभी उघे हुए कुत्ते चौकन्ना हो गए । सियार भी कम नहीं था । ऐसे खडे़ थे , मानों सारे कुत्ते से लड़ जाएंगे । पुंछ उठाऐ,जमीन खोदे। मानों कह रहा हो -भागों.. ! यहाँ से। ये मेरा खाना है।

सभी कुत्ते खडे़ हो गए । तु अकेले हम लोगों से..! मानों जंग की चुनौती स्वीकार कर लिया हो । सियार को दांत दिखाएं ।सियार पलटे और जिधर से आए थे ,उधर ही भागना शुरु ।और कुत्तों का उसे दौडा़ना ..। सियार आगे, कुत्ते पीछे ।सियार इतने जोर से भागे कि एक-दो खेत आगे हो गए । कुत्तें ऐसे दौड़ रहे थे मानों मार ही डालेंगे..। लेकिन नहीं...।

कुछ दूर जाने के बाद सियार एक गड्डे में चुपचाप बैठ गया ।कुत्तें दौड़ते ही रहे । न जाने क्या सोच के..। कुछ भी तो नहीं दिख रहा था..। दौड़ते ही जा रहे थे । इधर सियार चुपके से गड्ढे से निकल के मृत पशु के पास आ के खाना शुरु कर दिया । उधर कुत्ते दूर में जा के रुक गए । उन्हे कुछ नहीं मिला । आसपास को सुंधने का प्रयास किया । कुछ थके -हारे बैठ गए । व्यर्थ के दौड़ से ।
  सियार चुपचाप खाते-खाते खतरे को भी भांफते और पेट भर खा के चलते बने । उसका काम हो चुका था।
ये सब रवि के मन में कौंध गया। कुत्तें कितने व्यर्थ मेहनत किया । बेवजह दौड़ में पुरी ताकत खत्म कर दिया और ऐसे बैठे है कि कोई बहुत बडा़ जिम्मेदारी का काम किया है।मालती हॅ॑सी जा रही है । कुत्तें के बेवकुफी और सियार के चालाकी पर । विष्णु गुप्त जी ने ठीक ही बताया है कि सियार बहुत होशियार होता है ।
लेकिन रवि के मन में दुसरा विचार आ रहा था । इस दौड़ को अपने जिन्दगी से जोड़ रहा था । कितना व्यर्थ समय गंवा देता हूँ । आज से नहीं करुंगा । फालतु घुमना -फिरना सब बंद ।
   अच्छा हुआ जो मालती मेरी ओर इशारा नहीं किए । शायद हॅ॑सी में भुल गई । रवि समझ गया कि दुसरों के पीछे व्यर्थ दौड़ने से कुछ नहीं मिलता।
उस दिन से रवि अपने कामों पर ध्यान देने लगा और बुराई अपने आप छुटते गए । मालती आज बहुत खुश हैं । अब उसे झगड़ने की जरुरत नहीं पड़ती ।

-----राजकपूर राजपूत "राज"

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