mere-apane-mere-sapane-मेरे अपने - मेरे सपने- बारहवी पढ़ने के बाद,मुझे बेरोजगारी का अहसास होने लगा। आगे की पढ़ाई कैसे करुॅ॑..।घर की हालात अच्छी नहीं रहती है।मां-बाप तो आगे पढ़ने के लिए कह रहे थे । लेकिन मेरा विचार कुछ और ही है। कितने दिनों तक घर में माँ-बाप के सहारे रहूंगा । आखिर एक दिन मुझे ही तो घर का बोझ उठाना पड़ेगा। घर में दो छोटी बहन है। जो अब बडी़ हो रही है । उसकी भी पढ़ाई में बहुत खर्चा होगा। हमारे पास इतने जमीन तो नहीं है..। कुछ तो रास्ता निकालना ही पड़ेगा । यही चिंता मुझे परेशान कर रहा था ।
mere-apane-mere-sapane-मेरे अपने - मेरे सपने -रायपुर शहर गांव से ज्यादा दूर नहीं था। वहीं करीब दो-ढाई सौ किलो मीटर होगा। गांव के कई लोग काम करने के लिए जाते है। वे लोग जब वापस आते है तो ढेरों समान और पैसा लाते है। मैं भी सोचता था कि शहर जाकर घर की हालात को सुधारुॅ॑।
हम कई चाहतें दबाकर जिन्दगी जीते हैं। अच्छा कपड़, अच्छा खाना नसीब नहीं होता।माँ-बाप बहुत प्रेम करते थे। शायद, मैं उसकी ऑ॑खों का तारा था। माँ-पिताजी को कई बार समझाने के बाद,शहर जाने के लिए राजी करवा पाया। मैं बहुत खुश था । सुबह आठ बजे का समय शहर जाने के लिए पक्का हुआ।माँ ने बिस्तर व खाने का कुछ समान एक बोरी में बांध दिया। जो एक गटठा बन गया ।
हम तीन लोग थे। मैं, शेखर और कमलेश। वे लोग कई बार शहर में काम कर चुके थे। मैं पहली बार जा रहा हूॅ॑ । मन में अजीब कोतुहल उठ रहे थे । जब बस का पहिया चला तो कई सपने ऑ॑खों के सामने आने लगे। मैं बस की खिड़की से नए जगहों को पढ़ता जा रहा था। जैसे-जैसे बस आगे बढ़ता गया दिल न जाने क्यों बैठने लगा । मुझे लगने लगा कि गांव से दूर आ रहा हूॅ॑ ।
सोचने लगा कि क्यों ना बात किया जाय।
''कमलेश हम लोग क्या काम करेंगे.?"
''सुरेश बुलाया है।देखों उसके पास क्या काम है ! "
''पैसा वहाॅ॑ ठीक है" शेखर ने कहा और मैं चुप हो गया।
''यहाॅ॑ बिना पहचान के अच्छा काम नहीं मिलता हैं" ! कमलेश ने कहा ।
बस में चार-पांच घंटे का सफर था। वे लोग अपने-अपने सीट में ही सो गए । लेकिन मैं सोचता ही रहा और देखते ही देखते रायपुर शहर आ गया।हम लोग जहां बस से उतरे वह जगह औद्यौगिक एरिया था। चारों तरफ काले-काले धूएं उड़ रहे थे।पेड़ कम ही थे । पेड़ के पत्तों पर काले-काले धूएं और धूल के परत जमे हुए थे। सांसों से धूएं के बदबू को आसानी से महसुस कर रहे थे।
।चारों ओर बडे़-बडे़ लोहे का कारखाना था।मैंने पुछा-: हम लोग यहाॅ॑ रहेगे"
"हाँ"
शेखर ने कहा और वे आगे-आगे बोरी का गठ्ठा सिर में रखे जाने लगा। मेरी खुशियाॅ॑ मानों काफूर हो गया। लोग ऐसे पैसे कमाते है..! क्या-क्या सोचे थे शहर के बारे में. ! और दिल बैठने लगा। देखते ही देखते हम लोग फैक्टरी पहुंच गए।
फैक्टरी के अंदर छोटे-छोटे कमरे बने थे। बच्चे अपने-अपने घरों के सामने खेल रहे है।शेखर अपने पहचान के आदमी सुरेश के यहाॅ॑ ले गया । वह घर पर ही था । सुरेश को देखते ही बहुत खुश हो गए । पीने के लिए पानी दिया और कहा- "आज का खाना इधर ही खा लेना। "! शायद गांव से ही शेखर की बात हो चुकी थी । वो हम लोगों को एक घर दिखाया। घर कहो या एक कमरा। सब कुछ वही था।सुरेश समझाने लगा- इस तरफ अपना बर्तन रख लेना। बाहर में खाना बना लेना । यदि बाहर अच्छा न लगे तो अंदर में ही देख लेना । कमरे के बीच में ही सो जाना । हाँ, सुबह जल्दी उठ जाना,कल ही काम में लग जाना है। फैक्टरी के अंदर का हवा बहुत दूषित थी । सांस लेने में बहुत अजीब महसूस हो रहे था । मैंने जब सुरेश को बताया तो वह कहने लगा-धीरे-धीरे आदत पड़ जायेगी।
सुरेश के यहां खाना खाने के बाद शेखर और कमलेश जल्दी ही सो गए । लेकिन मुझे नींद नहीं आ रहा थी । माँ-बाप और बहनों की याद रुला रहा था । गांव से कभी बाहर नही निकले थे । मैं तो आया हूॅ॑ पैसा कमाने के लिए । सोचते-सोचते कब ऑ॑ख लगी पता ही नहीं चला ।
सुबह शेखर जल्दी उठ गया । जल्दी -जल्दी खाना बनाया।काम में जो जल्दी लगना था । लेकिन मेरे दिल में कशक उठ रही थी । गांव की याद रह-रहकर आ रही थी । हम लोग जल्दी से काम वाली जगह पहुंच गए । हम लोगों का काम बहुत कठिन था। दिनभर बडे़-बडे़ गाडियों में छड़ लोडिंग का काम ।
ये तो हेमाली का काम है, मुझसे शायद नहीं हो पायेगा। मैं सोचने लगा।शेखर और कमलेश बडी़ फुर्ती के साथ काम कर रहे थे।वे दोनों बहुत दिनों से इसी काम में थे,कोई भी काम कर सकते है । काम पसंद के नहीं होने से और घर की याद के कारण मैं कुछ सुस्त होने लगा । काम में मन नहीं लगा पा रहा था। कई बार अपने आपको समझाने के बाद भी मन नहीं लगा पा रहा था। काम का पहला दिन मुश्किल से गुजरा । शेखर और कमलेश को कोई फर्क नहीं पड़ रहे थे।
शेखर को अपनी मन की बात बताई।
''हम लोग जो काम करते है ,वही काम दिला सकते है।यहाॅ॑ बिना पहचान के कोई काम नहीं मिलता है।और गांव में तो कह रहे थे कि कोई भी काम कर लूंगा।" शेखर ने कहा और मैं चुप हो गया।
मैं अपने अंदर उत्साह भरता कि काम में मन लग जाय,लेकिन पुरी ताकत हाथों में नहीं ला पाता था। एक दिन सुपरवाईजर ने कह भी दिया बहुत ढीले हो। बहुत बुरा लगा था। शाम को छुट्टी हुई तो मैंने शेखर से कहा-''मैं अब यहां काम नहीं करुंगा।"
''कहाँ जाओगे। जितने पैसा घर से लाऐ थे ,सब राशन में खत्म हो गए हैं।" झुुंझलाहट भरे लहजे में समझाते हुए कहा।
''किराये के मकान लेगे।शहर के आसपास रहेंगे"
"ठीक है ,हम लोगों को भी यहां अच्छा नही लगता है,जब चाहे काम में लगा देते है।"इस बार कमलेश ने कहा।शेखर के ही भरोसे मैं आया था। कही चला गया तो गांव में कई बातें होगी। शेखर गुटखा देते हुए बोला ''खा ले दिमाग प्रेस हो जाएगा।" मैंने साफ मना कर दिया।
"दिनभर घर की याद करते हो। नशा से कुछ पल की याद मिट जााएगी। गरीबी ही ऐसी चीज हैं,जिसे हर कोई गाली दे देके, पैसा देते हैं ।यदि हमारे पास इतना दौलत होता तो हम किसी का रे-बे सुनने थोडे़ आते।" मैं नहीं माना।
शेखर चाहता था,कि कम से कम एक -दो महीने रुक जाय ।कुछ पैसा लेकर चला जाय ताकि घर वाले भी उस पर दोष न दे सके।
घर में कभी भी इतना बोझ नहीं उठाये थे।जैसे-तैसे हफ्ता गुजर गए और चुकारा का दिन भी आ गया।कठोर मेहनत के कारण हाथों में गांठ बन गए थे। पैसा जब हाथों में आया तो ऐसा लगा कि मानों गांठे सूख गए हो । अद्भुत आनंद की अनुभूति हो रही थी।ऑ॑खें भर गई।
पेमेंट होते ही न जाने कहाॅ॑ से शेखर और कमलेश शराब ले आए। दोनों बहुत खुश थे । ऐसा लग रहा था ,मानों पेमेंट का ही इंतजार था। कमरे में आते ही मुझे भी कहा-"एक पैक मार लेना । दर्द कम हो जाता है। मैंने साफ मना कर दिया।
''जो बैठे-बैठे काम करते है,वे लोग भी तो पीते है।हम लोग तो कठोर मेहनत करते है।यदि नहीं पीएंगे तो शरीर जल्दी टुट जााएगा।कौन सा रोज पीते हैं"।
''गलत चीज की सलाह नहीं देते शेखर भाई। तर्क क्या है ,इसे तो सभी लोग अपनी सुविधा के हिसाब से देते है। आपको पीना अच्छा लगता है तो पीीए। मेरा क्या है ,दस-पंद्रह दिनों में घर भी भाग सकता हूॅ॑।"
इतना सुनते ही दोनों सुरेश के कमरे में चले गए । मानों मेरी बातों का बुरा लगा हो। आज कुछ मुझे भी अच्छा लग रहा था। कुछ देर में फिर वही अकेलापन घेर लिया और जैसे मैं फिर रोने लगा। शेखर और कमलेश काफी देर बाद आया।
हम लोगों ने दुसरे दिन की छुट्टी लिए थे । किराये के मकान में जाना था। फैक्टरी में काम करने वाले ने हमें एक कमरा किराये में दिला दिया । शहर के पास ही था। वहाॅ॑ का आबोहवा कुछ ठीक था। समानों को व्यवस्थित रखने के बाद बहुत समय बच गया।शेखर ने कहा -''चलों.! शहर घुमते हैं।हम सब लोग राजी हो गए । मेरे दिल में अभी भी खुशी नहीं थी।शेखर मेरा मन बहलाने की कोशिश कर रहा था। शायद ! रोकना चाहता था, शहर में।
कुछ देर बाद घूमने निकल पड़े । शहर के भीड़ में होने के बावजूद मुझे अकेला महसूस हो रहा था।कई सकरी गलियों से गुजरते हुए चौडे़ सड़क में आ गए थे।शेखर और कमलेश आगे-आगे और मैं थके -थके से पीछे चल रहा था।तभी किसी ने पीछे से आवाज दी-"हलो..ओये..रुको ना"...! पलट के देखा तो समझ नहीं आया कि वह आदमी कौन है.? जो दौड़ते हुए आ रहा है। पास आया तो शेखर को कुछ जाना पहचाना सा लगा । लेकिन पक्का नहीं।
वे आते ही बोला -'' तुम लोग शिवतराई से हो ना।""
''नहीं..!हम लोग तो डुमर तराई से है।"
''हाॅ॑ , हमारे गांव के पास ही तो है"
''हाॅ॑..,आप तो गाडा़खोल से हैं।"
''हाॅ॑ , यार ! ,कितने दिन हो गए हैं । अपने इलाके के आदमी को देखें । तुम लोगों को देखा तो बहुत अच्छा लग रहा हैं।पुरे दो साल हो गए हैं । यहाॅ॑ पड़े पड़े। चलों ! चाय-वाय पी लो।"
गांव के पास होने से हम लोगों को शायद वे देखे थे।और हम लोग उसे । भूले-भूले से याद है।
उसकी ऑ॑खें चमक रही थी । हमें देख के वह बहुत खुश था।हम लोगों के हाथ पकड़ के ले गए । उन्हे देखकर मुझे भी खुशी हो रही थी । ऐसा लगा मानों हम दोनों का दर्द एक है।दोनों अकेलेपन से जुझ रहे थे । जल्दी-जल्दी बहुत सारे सवाल पूछते गए । गांव ओर हम लोगों के बारे में । ऐसा लग रहा था , मानों वे तरस रहे थे, अपने लोगों को देखने के लिए ,वो खुशी शायद! हम लोगों से मिल रही थी।
''अकेले रहते हो"। मैंने पुछा।
''''हाँ,आज दो साल हो गए हैं , गांव नहीं गया हूॅ॑...। बहुत याद आती हैं । गांव..घर..। यही पास ही में कपडे़ के दुकान में काम करता हूॅ॑ । मेरा नाम अरुण है।"
जैसे वे मेरे ही दिल की बात कर रहा हो , ऐसा अहसास हो रहा था। उसके दर्द में, मैं अपनों को देख रहा था।
''चार-पांच महीनें में एकाध बार गांव चले जाते । आपके मन को अच्छा लगता"। शेखर ने कहा। शायद, वे भी समझ रहे थे।
''छुट्टी कहाॅ॑ मिलते हैं । दो-तीन दिनों का मिलते हैं और वहाॅ॑ जाने के बाद तो इतने दिनों में आने का मन नहीं करता है।इधर आओ,तो सेठ गाली देता हैं।"
शेखर और कमलेश गुटखा खाने लगे,तो मैंने उससे पुछा-''आप नहीं खाते"
शेखर पुछते ही पलट के देखा,मानों उसे गलत लगा हो।
''नहीं"उसने कहा।
"मुझे घर की बहुत याद आती है,जिससे तकलीफ बहुत होती है"! मैने कहा ।
"सबको याद आती है , लेकिन इससे कुछ नहीं मिलता ,अपने मन को समझाना पड़ता है, आखिर सबको देखो ! ,सिर में गट्ठा लिए दौड़ रहा हैं । इधर- उधर किसके लिए ,अपनों के खुशी के लिए । आप याद बस कर रहे हो, घर की कमी, अभाव , तकलीफ के बारे में सोचोंगे तो यहां काम करने के लिए उतावले रहोंगे । एक दिन का भी छुट्टी अखरता हैं।अपनों के खुशी के लिए जीना पड़ता हैं । मैं यहीं मानता हूॅ॑।गरीब आदमी का जिन्दगी क्या है....?किसी शायर ने खुब कहा है-
पंछी भी नहीं रहते पराएआशियाने में
हमारा उम्रर गुजर रहा हैं किराये के मकानों में"!
सभी लोग हंस दिए। इतना सुन के मैं चुप हो गया । शेखर मुझे देख के मुस्कुरा रहा था । मैं समझ गया ।वह क्या कह रहा हैं। उसने हाॅटल में नाश्ता करवाया । इधर -उधर की ढेरों बातें हुईं । बातें करते-करते समय बहुत गुजर गया, पता ही नहीं चला । अरुण से विदा लिया । वह सड़क पर खडा़ हो कर हमें देखता रहा । एक बार पलट के देखा तो वह अभी भी हाथ हिला रहा था । वह हमें तब-तक देखता रहा जब-तक दुसरे गली में ओझल न हुए। मेरा सारा संशय टूट गया था। उस लोहे की फैक्टरी में एक महीने तक काम किया ,पुरे मन के साथ । बाद में मैंने दुसरे कम्पनी में हेल्फर का काम ढु़ंढ़ लिया जो मेरे हिसाब से ठीक था । शेखर और कमलेश को भी साथ चलने के लिए कहा, लेकिन नहीं मानें।आज अपनों के लिए जीना सीख गया था । कई बार ओवर टाईम का काम करता हूॅ॑ ,तब भी थकता नहीं। मेरे अपने मेरे साथ हैं ।उनके सपने ,मेरे सपने है ।
---राजकपूर राजपूत''राज''
1 टिप्पणियाँ
बहुत खुब
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