ना दिल ना धर्म

na-dil-na-dharm- बहुत पहले की बात है । किसी गांव मेंं रूपचन्द्र नाम का व्यक्ति था । वह अपने आप को बहुत बड़ा ज्ञानी मानते थे । जहाॅ॑ भी जाते थे खुद को सिद्ध करने का प्रयास करते थे । उसके इस आदत को सब लोग जान गए थे ।इसलिए सब लोग उसे रूपचन्द्र नहीं ज्ञानचंद कहते थे।
  एक बार उसके गांव में एक साधु और उसके शिष्य आएं। गुरु और शिष्य के चेहरे पर अद्भुत तेज था। गुरु साठ साल के और शिष्य तीस साल के आसपास रहा होगा ।  उन दोनों की आदत थी कि वे लोग किसी के घर में और न हीं किसी के सामने कुछ मांगते थे। दिनभर गलियों में चुपचाप भजन कीर्तन करते और अपना ध्यान लगाते थे।जो भी बिना कुछ मांगे मिल जाते थे,उसी पर संतोष कर लेते थे । बस ईश्वर से उसकी यही प्रार्थना थी कि उसके सानिध्य व स्तुति में दिन गुजर जाएं । गांव वालों को अच्छी अच्छी बातें बताते । सदैव अच्छे कर्मों के लिए प्रेरित करते।

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गांव वाले साधु की इस आदत को बहुत सम्मान करने लगे ।अक्सर गांवों में चर्चा होने लगी कि साधु और उसके शिष्य बहुत ही अच्छे हैं। गांव वाले उन दोनों के लिए अपनी मर्जी से भेंट स्वरुप चांवल-दाल और कुछ पैसे दे देते थे । 
रूपचन्द्र को यह सब अच्छा नहीं लगता था। साधु के व्यवहार उसको ढोंग लगता था।वो कोई ज्ञानी-व्यानी नहीं है । केवल दिखावा करते हैं । 
उसने एक दिन जब गांव वाले को साधु भजन सुना रहे थे। वहाॅ॑ जाकर साधु से कहने लगा:-
"चलों ! मुझे बताओ कि ईश्वर है। यदि ईश्वर है तो किस रूप में है.?"

साधु ने कहा:-"ईश्वर इस सृष्टि के कण कण में व्याप्त है। उसे प्राप्त करने के लिए गहरी अनुभूति चाहिए । अनुभूति अपने इष्ट के प्रति अवलंबन से होता है । उसी में टिका रहना पड़ता है। यदि उसे प्राप्त करना चाहते हो तो ध्यान करों । "

"ध्यान नहीं, मुझे प्रमाण चाहिए"। रूपचन्द्र ने कहा ।

"कोई भी आदमी किसी अनुभूति को दिखा नहीं सकता है।"साधु ने कहा ।

"तो क्या ये देवालयों में मुर्ती है । वह सब झूठे हैं । "

"जो हृदय में अनुभूति नहीं कर सकते हैं। वो प्रतीक रूप मेंं ही अपनाते हैं। "

"आप तो उसे प्राप्त कर चुके हैं। आपको दिखाने में क्या तकलीफ़ है..? और ये धर्म क्या है..?"

"प्रश्न करना सरल है। उत्तर ढूॅ॑ढना कठिन । आप समाज से आते हैं। क्या कभी किसी की भावनाओं को देखे है। शायद..! नहीं.! आवश्यकता महसूस नहीं किया होगा आपने। जो दूसरे की पीड़ा,कष्ट महसूस कर लेते हैं। दूसरों के दुःख को महसूस कर लेते हैं।वही धर्म को सचमुच धारण करते हैं। अपने ही भावनाओं को जो सबमें थोपते है, वो गलत है। हम तो केवल अपने अनुभूति में जीते है। किसी को बाध्य नहीं कर रहे हैं। सबका अपना- अपना दृष्टिकोण है।"

"आप कुछ नहीं जानते । कोरा बकवास कर रहे हो"!

रूपचन्द्र जब बात करते तो शिष्य को बहुत गुस्सा आ रहा था। लेकिन अपने गुरु के डर से चुप था।
गुरु भी उसके बातों को समझ गया कि इस आदमी को समझाना मुश्किल है । केवल जिंद ही करते हैं। कुछ समय के लिए शांत रहने के लिए कहा और वे भजन कीर्तन करने लगे। रूपचन्द्र बड़बड़ाते रहे और गुरु के बारे में अपशब्द कहना शुरू कर दिया । 
अचानक शिष्य उठा और रूपचन्द्र के पैर में एक पत्थर पटक दिया और अपने गुरु के पास आकर आसन पर बैठ गए । रूपचन्द्र दर्द के मारे चिल्ला उठा । उसके पैरों की उंगलियों से खून बहने लगा । वहाॅ॑ उपस्थित सभी भजन कीर्तन सुनने वाले और स्वयं गुरु जी अचंभित हो गए ।
 
"तुने क्या किया" । मारे दर्द से रूपचन्द्र चिल्ला कर कहा ।
"मैंने तो कुछ भी नहीं किया है।" शिष्य ने कहा ।

"कुछ नहीं किया तो ये दर्द क्या है..? ये खून..!"

"दिखाओं..! दर्द को ..! कैसा होता है..?"

"इसको मैं कैसे दिखाऊंगा..! यह तो मेरे अन्दर महसूस हो रहा है ।"

 दिखाओ..! कैसे भी करके..! प्रमाण दो । अपने अंदर की इस पीड़ा को । अपनी व्यथा को ।"

बार बार के कहने से रूपचन्द्र समझ गया कि शिष्य क्या कहना चाह रहा है.! 
वहाॅ॑ उपस्थित श्रोताओं ने भी उसे प्रमाण देने की बात कही । साधु  अपने ध्यान में चुपचाप खो गया । वो जान गया था कि इस आदमी के पास न हृदय (दिल) है और न ही धर्म कर्म की पहचान है।
शिष्य और उपस्थित श्रोताओं के बार-बार पूछने पर रूपचन्द्र निरूत्तर हो गया।उस दिन से वह कभी भी अपनी विद्वत्ता का डींग गांव वालों के सामने हांकते नहीं थे । व्यर्थ के सवाल करना भी छोड़ दिया। अब वह चुपचाप रहना सीख गया था।

---राजकपूर राजपूत 'राज'
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