बिना पते की चिट्ठी-भाग तेरह Letter without Address - Part Thirteen

बिना पते की चिट्ठी-भाग तेरह Letter without Address - Part Thirteen उसने रवि को फ़ोन लगाया और घर आने के लिए कहा ।‌रवि आने के लिए मना कर रहा था । कह रहा था कि वह एक दो दिन कुछ स्थानीय नेताओं के बीच सामाजिक कार्यक्रम में शामिल रहेंगे । 

दो दिन बाद आऊंगा तो नहीं बनेगा । जिस पर पिता ने कहा "घर की बात है । हर चीज फ़ोन पर ही बात नहीं होती है । जरूरी काम है तभी तो बुला रहा हूं । "

जिसे सुनकर रवि मना नहीं कर पाया । 

Letter without Address - Part Thirteen

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रवि के इंतज़ार में धनुष की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। हर बीतते पल के साथ उसके मन में एक डर सिर उठाने लगा था — कहीं उसकी बेटी सचमुच उसके हाथों से फिसल तो नहीं गई? बाप था वह, और बाप होने का दर्द भी वही जानता था। जिस बच्ची को गोद में खिलाया, अपनी उँगली पकड़कर चलना सिखाया, आज वही उसके सम्मान की नींव हिला रही थी। पछतावा था, और साथ ही एक गहरी विवशता भी।


कुछ देर बाद रवि घर आया। रवि अंदर आया। उसके चेहरे पर थकान की जगह झुंझलाहट और आँखों में रोष था।

“कहा था न, पिताजी,” वह तीखे स्वर में बोला, “बहुत ज़रूरी काम में था। फिर भी बुला लिया आपने! बताइए, आख़िर ऐसी क्या बात हो गई?”


धनुष कुर्सी पर बैठे-बैठे कुछ पल चुप रहा। उसने एक लंबी साँस ली, जैसे शब्दों का बोझ हल्का करने की कोशिश कर रहा हो। उसकी आँखों में थकान नहीं, बल्कि किसी गहरे दर्द की झलक थी।

“क्या बताऊँ, बेटा...” उसने धीमी आवाज़ में कहा, “अब तो घर की बातें भी पड़ोसी पहले जान लेते हैं... और ख़ासकर गलत बातें तो सबसे जल्दी उड़ती हैं। हम बस अपने कामों में उलझे रह जाते हैं, और पीछे सब कुछ बिखर जाता है।”


रवि झल्लाकर बोला —

“पहेलियाँ मत बुझाइए, पिताजी! साफ़-साफ़ बताइए क्या बात है। सच में, मेरा बहुत ज़रूरी काम था। लेकिन आपकी चिन्तित आवाज़ सुनकर सब छोड़कर आ गया हूँ।”


धनुष ने उसकी ओर देखा — वह न पिता था, न कोई कठोर बुज़ुर्ग, बस एक चिंतित मनुष्य, जो किसी गहरी उलझन में था।

“उस चिट्ठी के बारे में कुछ याद है, रवि?”


रवि ने भौंहें सिकोड़ लीं।

“हाँ... लेकिन अब उससे कोई मतलब नहीं है।”


धनुष का स्वर भर्रा गया —

“यही तो गलती हुई है हमसे, बेटा। वही बिना पते की चिट्ठी अब हमारे लिए समस्या बन गई है। शालिनी... उसी लड़के से प्यार करती है... जो ये चिट्ठियाँ लिखा करता था।”


रवि की आँखों में गुस्सा उबल पड़ा। वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।

“कौन है वो?” उसने लगभग चिल्लाकर कहा।


धनुष कुछ पल मौन रहा। उसकी दृष्टि फर्श पर टिक गई, जैसे शब्द ज़ुबान पर आने से पहले ही भारी हो गए हों।

“कौन है... अब क्या कहूँ,” उसने धीमे स्वर में कहा, “उसका सहपाठी है। यहीं, इसी शहर में नौकरी करता है। अक्सर शालिनी से मिलता-जुलता भी है।”


कमरे में अचानक सन्नाटा छा गया।

आँखों के सामने सब कुछ सामान्य दिख रहा था, पर भीतर का संसार उलट-पुलट हो चुका था। रवि के पिता की आँखों में एक थकी हुई विवशता थी, जो न जाने कब से जमा दर्द की परतों में बदल गई थी।


बाहर शाम उतर रही थी — धीमे-धीमे, जैसे किसी थके मन की साँसें।

घर की दीवारों पर छाई धुंध भीतर के रिश्तों पर भी उतर आई थी।


“यूँ छिप-छिपकर मिलना बताता है कि प्रेम सच्चा है,” पिता ने कहा। स्वर में न क्रोध था, न आदेश — बस एक थकान थी, जो अनुभवों से जन्मी थी।

“ऐसे प्रेम को छोड़ देना आसान नहीं होता, बेटा।”


रवि के होंठ काँपे, पर आवाज़ गरज में बदल गई —

“प्रेम गहरा हो या बहरा — दो-चार चपाटें पड़ेंगी, तो सब कुछ भूल जाएगा!”

शब्दों में आवेश था, पर भीतर कहीं दर्द का कोई अनकहा कोना भी था, जो शायद खुद रवि को भी सुनाई नहीं दे रहा था।

वह समझ नहीं पा रहा था — इतनी बड़ी बात, और उसे भनक तक नहीं लगी! जैसे उसकी समझ को कोई चुनौती दे रहा हो। वह इससे निपट सकता है, कोई भी हो। वह यह बात मन-ही-मन दोहरा रहा था।


पिता ने उसकी ओर देखा — जैसे वर्षों पुरानी समझ से कोई बात कहनी हो।

“ऐसा करोगे तो और मुसीबत होगी, रवि। लोग तमाशा देखेंगे। बातों को आग बनते देर नहीं लगती। थोड़ा धैर्य रखो… शांति से काम लो।”


रवि की आँखों में अब रोष की लपटें स्पष्ट झिलमिला उठीं।

वह बोला —

“शांति? कैसे रहूँ शांति से, पिता जी? उन्होंने किसी के घर के आत्मसम्मान से खेलने का साहस किया है।

जो प्रेम कहलाता है, यदि वह किसी का अपमान बन जाए, तो वह प्रेम नहीं, अपराध है।

और हर अपराध को अपनी कीमत चुकानी ही पड़ती है।”


पिता ने संयम से कहा —

“बेटा, केवल दूसरों की भूल देखना न्याय नहीं। अपनी भी गलती पर दृष्टि डालनी होगी। गलती अकेले उस लड़के की नहीं है।”


रवि के स्वर में आक्रोश और गहराई उतर आई —

“क्या देखना, पिता जी? शालिनी अभी नादान है, भोली है। किसी के बहकावे में आ गई होगी। आजकल का यह तथाकथित ‘प्यार’ कोई सच्चा भाव नहीं, बस एक क्षणिक मोह है। आपने महसूस नहीं किया है । आजकल कैसे फंसाते हैं, लड़कियों को । ”


पिता ने गहरी साँस ली —

“ठीक है बेटा, जो होना था, वह हो गया। अब शांति रखो।”


रवि का चेहरा कसक से तमतमा उठा —

“छी! जिन्हें बरसों पाल-पोसकर बड़ा किया, वही आज गैर बन गए! यही है पालन का प्रतिफल?”


पिता ने धीमे स्वर में समझाया —

“बेटा, जब पक्षियों के पंख उग आते हैं, तो उनके माँ-बाप उन्हें उड़ जाने देते हैं। यह प्रकृति का नियम है।”


रवि ने कठोर दृष्टि से कहा —

“हाँ पिता, मनुष्य भी उसी प्रकृति का अंग है। सभी जीवों का व्यवहार उसमें झलकता है — किसी में अधिक, किसी में कम। पर ऐसे तर्क देकर स्वयं को संतुष्टि मत दो। यह सच्चाई से मुँह मोड़ना है। इंसानियत का जन्म तर्क से नहीं, भावनाओं से होता है।” ”


इस सवाल का जवाब धनुष के पास नहीं था । उसने सिर झुका लिया।

बाहर अँधेरा घिर आया था — और उस अँधेरे में, पिता-पुत्र दोनों अपने-अपने निर्णयों के बोझ तले चुप थे।

घर में सन्नाटा था, पर उस सन्नाटे में भावनाओं की आवाज़ें गूँज रही थीं —

टूटी हुई, पर सजीव…

Letter without Address - Part Thirteen


क्रमशः 

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