बिना पते की चिट्ठी-भाग चौदह Letter without address - Part Fourteen चार दिन बीत चुके थे। पिता और पुत्र के बीच एक भी बात नहीं हुई थी। घर में जैसे मौन की चादर बिछी हुई थी—वह मौन, जो शब्दों से कहीं अधिक भारी होता है। दोनों आमने-सामने आ तो जाते, पर निगाहें हमेशा कहीं और टिक जातीं। रिश्ते की वह गर्माहट किसी अनजाने कारण से मानो ठंडी पड़ गई थी।
Letter without address - Part Fourteen
पिता बेटे के इरादों और ज़िद को अच्छी तरह जानता था। उसके तर्क अपने-आप को सही साबित करते थे, जबकि पिता समन्वय में विश्वास रखता था। भावनाओं और तार्किक विचारों के सामंजस्य के साथ जीवन जीना उसे उचित लगता था। लेकिन बेटे के सामने वह क्या करे—यही समझ नहीं पा रहा था।
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शालिनी उस दिन अपने कमरे में थी। रवि उसके दरवाज़े के पास तक आया, फिर लौट गया। दो-तीन बार वही किया — आया, ठहरा, पर भीतर न गया। शालिनी ने यह सब महसूस किया। उसका मन बेचैन हो उठा — “भाई ऐसा क्यों कर रहा है? क्या बात है जो वह कह नहीं पा रहा? क्या कोई बात उसे भीतर से तोड़ रही है?”
उसके मन में अनगिनत प्रश्न उठते और फिर उतर जाते, पर किसी का उत्तर नहीं मिलता। उसे लगता जैसे घर की दीवारें भी कुछ कहना चाहती हैं, पर उनके पास भी शब्द नहीं हैं। यही अनकही बेचैनी शालिनी के हृदय में गूंजती रही — एक ऐसी दुविधा, जो धीरे-धीरे उसकी आत्मा तक उतर आई थीं ।
असहज भावों में डूबी शालिनी जवाबों की तलाश कर रही थी। तभी सहसा उसे याद आया कि मां के पास इसका उत्तर हो सकता है। हाँ, मां ही बता सकती हैं।
वह अपनी मां को ढूँढने लगी। मां घर के एक कोने में तुलसी की पूजा कर रही थीं। शालिनी ठहर गई और देखने लगी कि मां तुलसी को जल चढ़ाकर घर की सुख-शांति के लिए प्रार्थना कर रही हैं। उस प्रार्थना में शालिनी के लिए भी जगह थी, क्योंकि वह घर की सभी समस्याओं में सबसे प्रमुख बन गई थी। मां का चेहरा साफ बता रहा था कि वह उसकी चिंता में डूबी हुई हैं ।
जब पूजा करके मां अपने कमरे में गईं, तो शालिनी भी धीरे-धीरे उनके पीछे-पीछे वहाँ चली आई। वह कमरे में रखी कुर्सी पर आकर चुपचाप बैठ गई। मां ने उसकी ओर देखा तक नहीं। वे अपनी आदत के अनुसार कमरे में बिखरे कपड़ों को समेटने लगीं, मानो जानबूझकर उससे बात न करना चाहती हों। यह देखकर शालिनी को और भी असहजता होने लगी।
कुछ देर बाद वह खुद को रोक न सकी और बोली,
“क्या मां, मैं कब से यहाँ बैठी हूं और आप मुझे अनदेखा कर रही हैं?”
मां ने बिना रुके कपड़े तह करते हुए कहा,
“किस बात के लिए अनदेखा करूंगी? जैसे तुम कमरे में आती हो, वैसी ही तो बैठी हो।”
मां की इस बात पर शालिनी कुछ क्षण चुप रही। माहौल में एक गहरी खामोशी फैल गई। उसी खामोशी को तोड़ते हुए शालिनी ने हिचकिचाते हुए कहा,
“मां… ये भइया मेरे कमरे की ओर किस लिए जा रहे थे? फिर अचानक वापस लौट आए। ऐसा उन्होंने दो–तीन बार किया।”
मां ने हाथ की हरकत थोड़ी धीमी कर दी, फिर शांत स्वर में बोलीं,
“उस बारे में तो मुझे कुछ पता नहीं। लेकिन तुम मेरे पास किस सोच के साथ आई हो… यह मैं अच्छी तरह जानती हूं।”
शालिनी का चेहरा फक पड़ गया। उसने बहुत धीमी आवाज़ में पूछा,
“हां मां… कहीं आपने भइया को सब कुछ तो नहीं बता दिया?”
मां ने उसकी ओर सीधे देखा—उनकी आँखों में चिंता भी थी और दृढ़ता भी। उन्होंने कहा,
“शालिनी, मैं बिना वजह किसी से कुछ नहीं कहती। लेकिन कुछ बातें छुपाने से हालात और बिगड़ते हैं। तुम जो सोच रही हो, वह सही भी हो सकता है और गलत भी… पर सच का सामना करने से अच्छा है...भागने से कोई फायदा नहीं।”
शालिनी एकदम सन्न रह गई। उसकी उंगलियाँ कसकर कुर्सी के हत्थे को पकड़ गईं। कमरे के भीतर एक भारी तनाव तैर गया—मां अपनी जगह स्थिर खड़ी थीं और शालिनी के भीतर अनकहे सवालों का तूफ़ान उमड़ने लगा था।
"तुम क्या समझती हो, शालिनी । जिंदगी भर ऐसे ही चोरी-छिपे तुम्हारा चलता रहेगा ... हम सब आगे-पीछे कदम उठाते ही हैं । तभी सफर तय होते हैं । "
"वो सब ठीक है मां लेकिन आपसे बात करने के बाद मैंने कभी उससे मिलने की कोशिश नहीं की है । फिर भी घर वालों को बता दिए । "
"मेरे सोचने से फैसले नहीं होते । सोचा जिसके क्रिया से कार्य का संपादन होगा । उसे तो बताना ही पड़ेगा । "
मां के कठोर रूख से शालिनी का मन टूट गया । वह कुछ न बोली लेकिन मन मैं जरूर एक चिंता की रेखा उभर आई । कहीं जोहन को कुछ हुआ तो नहीं है ।
"बेटा… अब यह सब जानकर तुम कोई ऐसा कदम मत उठा लेना, जिससे बाद में तुम्हें दर्द ही दर्द मिले। घर वाले जो भी करेंगे, बड़ी समझदारी से… और सिर्फ तुम्हारी भलाई के लिए ही करेंगे,"
मां की आवाज़ काँप रही थी, जैसे हर शब्द में छुपी चिंता बाहर आ रही हो।
शालिनी बिल्कुल स्थिर बैठी रही। कमरे की ख़ामोशी में नंदा देवी का चेहरा जैसे चिंता से ढल गया था। सन्नाटा इतना भारी था कि हर सांस बोझ लग रही थी।
मां धीरे-धीरे उसके पास आईं, उसके बालों को सहलाया और बहुत दबी, टूटती हुई आवाज़ में बोलीं,
"बेटी, भागकर शादी करने में वह सहारा नहीं मिलता, जो एक लड़की को जीवन भर चाहिए होता है। वहाँ सिर्फ दो दिलों की सहमति होती है… पर गवाह कोई नहीं। जब खुशियाँ आती हैं तो सब अच्छे लगते हैं, पर दुख के समय… वहाँ कोई नहीं होता जो तुम्हारे आँसू पोंछ सके।
इसके उलट, मां-बाप की पसंद में पूरा परिवार साथ खड़ा रहता है—हर मुश्किल में, हर तूफ़ान में। वही साथ असली होता है, वही सबसे बड़ा सहारा।"
मां की आँखें भर आईं।
"इसलिए, पगली, कोई भी ऐसा विचार मत करना जो तुम्हें हमसे दूर कर दे या तुम्हारे भविष्य को अंधेरे में धकेल दे। हम जो कह रहे हैं… वही तुम्हारे लिए सही है, यही हमारे हृदय की सच्ची प्रार्थना है।"
मां की बातों ने जैसे शालिनी के मन में दबे हुए सारे भावों का बाँध तोड़ दिया। उसकी आँखें भर आईं और वह मां के आँचल में सिर छुपाकर फफक पड़ी।
कंपकंपाती आवाज़ में वह बोली—
"मां… मैं लाख कोशिश करूं, पर उन्हें भूल नहीं पाती। आपकी हर बात मेरे मन में उतर जाती है, सब समझती हूँ… फिर भी न जाने क्यों, वही राह मुझे सबसे उचित प्रतीत होती है।"
क्रमशः -
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-राजकपूर राजपूत"राज"

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