बिना पते की चिट्ठी-भाग बारह Letter without Address - Part Twelve
माँ की बातों ने शालिनी के मन में एक नया विश्वास जगा दिया — अब उसे लगने लगा कि माँ सचमुच उसके मन को समझ सकती हैं। वह चाहती थी कि माँ का स्नेह सदा उस पर बना रहे, परंतु वह जोहन को भी छोड़ना नहीं चाहती थी।
घर के उस शांत कमरे में नंदा देवी और शालिनी कुछ देर तक मौन बैठी रहीं। शालिनी ने अपनी माँ से वे सब बातें कह दीं, जो उनके मन में जानने की इच्छा थी।
“बस माँ, मेरी उससे शादी करवा दो। मैं तुमसे और कुछ नहीं माँगूंगी। मैं उसके बिना नहीं रह सकती,” — शालिनी ने विवश होकर कहा।
माँ का हृदय बेटी के समर्पण से द्रवित हो उठा। वे उसकी भावनाओं की तीव्रता को समझ गईं। कुछ कहे बिना उन्होंने अपनी बेटी के बालों में उँगलियाँ फिराईं और उसे वैसे ही सहलाने लगीं, जैसे बचपन में करती थीं।
Letter without Address - Part Twelve
माँ का वात्सल्य भरा हृदय उसे कुछ करने के लिए प्रेरित कर रहा था। वह गहरी सोच में डूब गईं। अपनी बेटी की व्याकुलता देखकर उन्होंने उसे स्नेह से आश्वस्त किया और मधुर स्वर में बोलीं —
“ठीक है, बेटी, पर तुम्हें भी हमारी कुछ बातें माननी होंगी। ताकि मैं घर के सब लोगों को शांति से समझा सकूँ। मुझे तुम्हारे सहयोग की अपेक्षा है, बेटी।”
माँ के करुण और विनयपूर्ण शब्द सुनते ही शालिनी की आँखों से आँसू बह निकले।
“हाँ माँ, मैं आपकी हर बात मानूँगी। बस, मेरी उससे शादी करवा दो,” — उसने रुँधे स्वर में कहा।
“अभी उस लड़के से मिलना-जुलना बंद कर दो, ताकि घर में शांति बनी रहे। कहीं तुम्हारा भाई रवि देख लेगा तो मुश्किल हो जाएगी। आखिर यह शहर बड़ा भी तो नहीं है — कभी न कभी नज़र आ ही जाओगी,”
नंदा देवी ने चेतावनी भरे स्वर में कहा।
शालिनी कुछ नहीं बोली, बस चुपचाप बैठी रही।
“तुम्हारी चुप्पी ही तुम्हारे इरादों को बता रही है,” नंदा देवी ने गंभीर स्वर में कहा।
“नहीं माँ, मैं आपकी बात मानूँगी,” — शालिनी ने शांत किन्तु दृढ़ स्वर में उत्तर दिया।
नंदा देवी कुछ देर तक उसके पास बैठीं रहीं, फिर धीरे-धीरे उठकर अपने कमरे की ओर चली गईं।
------------------
"लड़की अब शादी के योग्य हो गई है, और तुम हो कि उस पर ध्यान ही नहीं देते!"
नंदा देवी की आवाज़ में हल्की नाराज़गी थी।
"ध्यान दूँ? आजकल के बच्चे तो अपना भविष्य संवारने में ही इतने व्यस्त रहते हैं। उनका हर काम समझदारी भरा लगता है। उनकी पढ़ाई हमें कभी-कभी अलग-थलग सा महसूस कराती है। आखिर हम क्या कहें , जिससे हमारी अवज्ञा न हो । कोई और टतरीके नज़र नहीं आते हैं। "
शालिनी के पिता थके हुए स्वर में बोले।
"बच्चे जो कुछ भी करें, उनकी राह पर नजर रखना हमारी जिम्मेदारी है। उनकी खुशी और भविष्य, दोनों का ध्यान रखना हमारा फर्ज है।"
नंदा देवी ने गंभीर और चिंतित नजरों से धनुष की ओर देखा।
"आज तुम्हें अचानक क्या हो गया है, जो ऐसे बातें कर रही हो?" धनुष ने हैरानी भरे स्वर में पूछा।
"घर में बिना पते की चिट्ठी मिली थी, और तुम लोग इसे इतनी जल्दी भूल गए?" नंदा देवी की आवाज में चिंता और कठोरता दोनों झलक रही थी।
"इससे क्या मतलब है? हमने तो पूरा छानबीन किया। रवि ने मोहल्ले के हर लड़के की लिखावट से मिलान किया, लेकिन कुछ भी हाथ नहीं आया। ये तो कोई बाहरी होगा, जो रवि का दुश्मन है, जिसने सिर्फ मजाक किया और अब सब कुछ थम गया है।"
"यही तो दिक्कत है। बाहर ढूंढना आसान है, लेकिन घर पर ध्यान क्यों नहीं ढूंढा ?"
पत्नी की बातों ने धनुष को चुप करा दिया। वह सोच में डूब गया, उसके मन में अनजाने डर और चिंता ने जगह बना ली।
"हमारे घर की लड़कियां.. क्या ये सही रास्ते पर है । "
धनुष अपनी पत्नी की बातों को चुपचाप सुनने लगा । उसे भी लगने लगा कि उसकी बातों में सच्चाई है । उसने कहा -
"ठीक है, लेकिन ये चिट्ठियाँ अचानक क्यों बंद हो गईं?"
"उसी समय इसका जवाब ढूंढते तो शायद कुछ पता चल जाता। अब तो कितने दिन हो गए हैं। घर की लड़की ही उस लड़के को मना कर चुकी है। ये सब मत करो। हमारी लड़की ने शायद मजाक में दिल्लगी की होगी और उस लड़के ने उस पर दबाव डालने के लिए ये कदम उठाया होगा। जो मिलने पर मान गया है । इसलिए चिट्ठी मिलना बंद हो गई । "
"बात तो सही है," धनुष ने धीरे से कहा।
"लेकिन हमारी लड़की गलत रास्ते पर जा रही है। बड़ी को देखकर छोटी भी उसी राह पर चल सकती है।"
धनुष कुछ क्षण तक निःशब्द बैठा रहा। उसकी आँखों में चिंता और असमंजस दोनों झलक रहे थे। फिर उसने गहरी साँस ली और बोला,
"अगर ऐसा है, तो मैं जाकर शालिनी से बात करता हूँ… उसे समझाता हूँ।"
"ऐसा मत करो, धनुष,"
नंदा देवी ने शांत लेकिन दृढ़ आवाज़ में कहा।
"क्योंकि शालिनी अब किसी से प्यार करने लगी है। अगर तुमने उसे रोका, तो वह शायद कोई गलत कदम उठा बैठेगी।"
धनुष ने अविश्वास से पत्नी की ओर देखा।
"क्या कह रही हो तुम? और तुम इस बात को कब से जानती हो?"
नंदा देवी ने धीरे से नजरें झुका लीं।
"मुझे तब ही शक हो गया था, जब बार-बार वो बिना पते की चिट्ठियाँ आने लगीं। फिर जब अचानक सब बंद हो गया और शालिनी के चेहरे पर एक अलग सी चमक दिखने लगी… तब समझ गई कि कुछ तो बदल गया है। मैंने उससे बात की, लेकिन वह हर बार कोई न कोई बहाना बना देती थी। उसके शब्द नहीं, उसकी आँखें सब कुछ कह रही थीं।"
धनुष चुपचाप सुनता रहा। कमरे में भारी सन्नाटा छा गया था।
उसका ग़ुस्सा उसकी आँखों में उतर आया था। वह सबसे ज़्यादा अपनी बेटी से नाराज़ था, क्योंकि जिसे इतने बरसों तक पाला-पोसा, वही अगर न समझे तो फिर किस काम का?
“बिना कुछ कहे, लड़की के अनुसार ही काम किया जाए। यदि ऐसा नहीं करेंगे, तो लड़की हाथ से निकल जाएगी,” नंदा देवी ने कमरे का सन्नाटा तोड़ते हुए कहा।
“तुम्हारा मतलब है, शादी कर दी जाए?” धनुष ने पूछा।
“इसके सिवा कोई रास्ता ही नहीं बचा है।”
“न लड़के का पता, न खानदान का! ऐसे कैसे कर दें शादी? मज़ाक समझ रखा है क्या? जैसे तुम भी इसमें शामिल हो!” धनुष ने झल्लाते हुए कहा।
“लड़की का इरादा और लगाव मैं समझ गई हूँ,” नंदा देवी बोलीं, “इसलिए कह रही हूँ। और आप लोग पता नहीं लगाएंगे तो कौन लगाएगा? ऐसे बैठे-बैठे सोचते रहोगे तो कुछ न कुछ बदनामी ज़रूर हो जाएगी।”
"ठीक है, इसके लिए रवि से बात करनी पड़ेगी। देखना होगा, इस समस्या का हल कैसे निकाला जाए,” धनुष ने कहा
वह रवि को फ़ोन लगा और ....
क्रमशः
इन्हें भी पढ़ें बिना पते की चिट्ठी-भाग ग्यारह
राजकपूर राजपूत "राज "

0 टिप्पणियाँ