बिना पते की चिट्ठी-भाग चार Letter Without Address - Part Four

बिना पते की चिट्ठी- भाग चार  Letter Without Address - Part Four

 "वाह-वाह! तुम तो दार्शनिक बन गए हो। प्रेम की परिभाषा सच में सच्ची और प्रभावशाली लग रही है — बहुत ही बढ़िया! लेकिन कहते हैं, 'नया मुल्ला प्याज़ ज़्यादा खाता है।'"कमल ने व्यंग्य से कहा ।


जोहन की आँखों में क्षोभ की एक झलक उभरी। उसने कमल की ओर गंभीर दृष्टि से देखा और धीरे से, किंतु दृढ़ स्वर में कहा —

 Letter Without Address - Part Four

"तुम लोग स्त्री-पुरुष की मित्रता को भी केवल देहगत आकर्षण तक सीमित कर देते हो। क्या आत्मा का कोई स्पर्श, कोई गहराई, तुम लोगों की अनुभूतियों तक पहुँच ही नहीं पाती?"


वातावरण में कुछ पल के लिए मौन छा गया — जैसे शब्दों की मार किसी अदृश्य दीवार से टकरा कर लौट आई हो।


कुछ क्षणों बाद धीमे स्वर में कमल का उत्तर आया —

"हाँ, हम सब समझते हैं। परंतु आत्मिक स्पर्श... वह सहजता, वह अंतरंग संवाद... वह शायद केवल एक स्त्री के साथ ही संभव हो पाता है। किसी पुरुष से वैसी अनुभूति होना कठिन प्रतीत होता है। क्यों? क्या यह हमारे भीतर जड़ जमा चुकी किसी सामाजिक संरचना का परिणाम है? या फिर यह स्त्री की सहज करुणा, उसकी कोमलता और भावप्रवणता का प्रभाव है, जो हमें आत्मा तक पहुँचने की राह दिखाती है?"


जोहन चुप रहा। उसकी आँखों में विचारों की हलचल साफ झलक रही थी। प्रश्न अब केवल किसी एक व्यक्ति का नहीं था — यह मनुष्य की भावनात्मक संरचना का दार्शनिक द्वार खटखटा रहा था।

चर्चा अब तर्क या सिद्धांत भर नहीं रह गई थी। जैसे-जैसे शब्द निकलते गए, उनके भीतर छिपे भाव और विश्वास भी बाहर आते चले गए। विचारों का यह प्रवाह अब केवल मतभेद नहीं, बल्कि दो दिशाओं में बहती सोच की नदी बन चुका था।


जो बातें कुछ देर पहले तक हँसी-मज़ाक में कही जा रही थीं, वे अब किसी दार्शनिक उपस्थिति की तरह दोनों के बीच गूँजने लगीं। वातावरण में एक अनकहा मौन था — शांत, भारी और विचारों से भरा हुआ।


कमल कुछ दूर टहलते हुए परन्तु थोड़ा झुकते हुए, हल्की मुस्कान के साथ कहा —

"तुम कुछ भी कहो, जोहन... लेकिन तुम प्रेम के वश में हो। और इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। हर इंसान उसी दिशा में बढ़ता है, जहाँ उसका मन बसता है... जहाँ उसका ख्याल, उसकी संवेदना, उसका लगाव होता है। प्रेम हमें खींचता नहीं — वह भीतर से हमें पुकारता है।"


जोहन ने सिर झुकाकर मुस्कराने की कोशिश की, पर उसकी आँखों में भावों का एक गहरा सागर उमड़ आया था। उसने कुछ नहीं कहा — क्योंकि अब शब्दों से अधिक मौन बोल रहा था। उसकी भावनाएँ, जो अब तक प्रेम के एक अडिग और ज़िद्दी स्वरूप में जमी हुई थीं, धीरे-धीरे पिघलने लगी थीं। जैसे किसी गहन ज्वर में तपता हुआ मन, अब ठंडी हवा के पहले झोंके को महसूस कर रहा हो। कमल की बातों ने उसकी सोच में एक नया द्वार खोल दिया था — कोई शब्द नहीं, कोई तर्क नहीं, बस एक मौन संवाद।


जोहन कुछ नहीं बोला। पर उसकी आँखों में जो परिवर्तन था, वह किसी स्वीकृति से कम नहीं था। सिर हल्का-सा झुका, होंठों पर एक अनकही थरथराहट, और साँसों की गति में आई शांति... सबने मिलकर यह कह दिया कि कमल की बात अब केवल सुनी नहीं जा रही थी, बल्कि स्वीकार की जा चुकी थी।


मौन कभी-कभी सबसे मुखर उत्तर होता है।

"बुरा लग रहा है, शायद जोहन, लेकिन यह सच स्वीकार करना ही पड़ेगा कि तुम सचमुच प्रेम में हो। प्रेम ऐसा ही होता है — वह नज़र झुकाकर भी सब कुछ कह देता है और फिर भी कुछ नहीं कहता। जब कोई प्रेम में पड़ता है, तो उसके भीतर एक नया संसार जन्म लेता है — एक ऐसा संसार, जिसे वह बाहरी दुनिया से छिपाकर रखना चाहता है।


प्रेम को दूसरों से छिपाना भी प्रेम के प्रति वफ़ादारी का एक रूप है। यह वही खामोश निष्ठा है, जो शब्दों से नहीं, व्यवहार से झलकती है। शायद इसी निष्ठा को निभाने की कोशिश में तुम अपने दोस्तों से थोड़ा दूर हो गए हो। यह दूरी किसी नाराज़गी की नहीं, बल्कि उस प्रेम की है जो तुम्हें भीतर से बदल रहा है — तुम्हारी प्राथमिकताएँ, तुम्हारा मौन, सब कुछ अब उसी एक भावना के इर्द-गिर्द घूमने लगा है।


जोहन, प्रेम तुम्हें अलग कर रहा है, पर शायद इसी अलगाव में तुम खुद को गहराई से पहचान पाओगे।"


मैदान पर धूप फैली थी। पेड़ों की पत्तियाँ हवा से सरसरातीं, मानो कुछ कह रही हों। जोहन पेड़ से टिककर खड़ा था, आँखें दूर कहीं क्षितिज पर टिकी थीं, जैसे वहाँ कोई उत्तर छिपा हो।


कमल धीमी आवाज़ में बोला,

"जोहन, मैंने जो कहा... वो बस एक दोस्त होने के नाते कहा था। शालिनी के साथ जो कुछ भी है, क्या वो सब सही है? तुम्हें लगता है तुम खुद को उससे खो नहीं रहे?"


जोहन ने बिना उसकी ओर देखे बस सिर झुकाकर सुना। कमल की बातों में तर्क था, चिंता भी। लेकिन वह उन्हें अपने ऊपर थोपना नहीं चाहता था। कुछ पल की खामोशी के बाद, जोहन ने गहरी साँस ली, अपनी जेब में हाथ डाला और मुड़ा।


"शायद तुम ठीक कह रहे हो, कमल," उसने संयमित स्वर में कहा, "लेकिन हर सही बात ज़रूरी नहीं कि हर किसी के लिए सही हो।"


इतना कहकर वह जाने लगा।


कमल पीछे से कुछ कहना चाहता था, पर रुक गया। वह जानता था — जोहन अब कुछ नहीं सुनेगा।


जोहन धीमे-धीमे चल रहा था। उसका चेहरा शांत था, पर आँखों में एक गहराई थी — जैसे कोई बड़ा निर्णय ले लिया हो।


वह जानता था कि दोस्तों की राय, समाज की सोच, सबका अपना स्थान होता है। पर प्रेम... प्रेम उसके लिए कोई सामाजिक समझौता नहीं था। वह शालिनी के साथ बिताए हर पल को जी रहा था — भले ही वो ख्यालों में हो, कल्पनाओं में हो, लेकिन वह सच्चा था।


उसके ख्यालों की वह दुनिया, जहाँ शालिनी मुस्कराती थी, उसके साथ चाय पीती थी, या यूँ ही खामोश बैठती थी — उसे तोड़ना, उसे त्यागना, उसके लिए खुद से दूर हो जाना होता।


और वह खुद को खोना नहीं चाहता था।


इसलिए जोहन ने कमल की बातों को सुना ज़रूर, पर स्वीकार नहीं किया।


वह अपने प्रेम की उस ख़ामोश लेकिन सजीव दुनिया में लौट रहा था — जहाँ तर्क नहीं, बस एहसास थे।


"जाओ, लेकिन याद रखना — एक दिन मैं तुम्हारे काम ज़रूर आऊँगा," कमल ने ऊँची आवाज़ में कहा। उसकी आँखों में एक दृढ़ विश्वास झलक रहा था, जैसे वह अपने शब्दों की सच्चाई को पूरी तरह जानता हो।


लेकिन जोहन नहीं रुका। वह तो जैसे कुछ सुन ही नहीं रहा था। उसकी आँखें किसी और को खोज रही थीं। उसका मन किसी और पुकार की ओर खिंचा चला जा रहा था। वह धीमी लेकिन भावुक आवाज़ में बार-बार बस एक ही नाम दोहरा रहा था — "शालिनी... शालिनी..."


क्रमशः -

राजकपूर राजपूत "राज "


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                 बिना पते की चिट्ठी -भाग दो 

               बिना पते की चिट्ठी -भाग तीन 

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