बिना पते की चिट्ठी -उपन्यास -भाग एक Letter Without Address Novel in Hindi

 Letter Without Address Novel in Hindi 

कॉलेज का वह हरा-भरा मैदान हर सुबह जीवन से भर उठता था। धूप की हल्की किरणें जब पेड़ों की पत्तियों के बीच से छनकर घास पर गिरतीं, तो लगता जैसे समय ठहर गया हो। वहीं, उसी मैदान के बीचों-बीच, कुछ मित्र हमेशा की तरह गोल घेरा बनाकर बैठे थे — हँसी, ठिठोली, बातें और थोड़ी-सी शिकायतों का सिलसिला जारी था।

कोई पढ़ाई की बातें कर रहा था, कोई बीते क्रिकेट मैच की रोमांचक झलकियाँ सुनाकर सबको हँसा रहा था। कभी कोई ठहाका गूंज उठता, तो कभी किसी की आँखों में अचानक गम्भीरता उतर आती।
सभी मित्र या तो इस अजनबी शहर में किराये के कमरों में जीवन की परतें बुन रहे थे, या फिर वहीँ के थे — उसी मिट्टी में जन्मे, उसी हवा में पले-बढ़े। पर जब भोर की हल्की उजास आसमान को छूती, तो सभी अपने-अपने कमरों से निकलकर एक जगह इकट्ठा हो जाते। वह सैर और व्यायाम का समय नहीं, मानो आत्मीयता का एक उत्सव होता — जहाँ थकी हुई रूहें कुछ पल के लिए सांस लेतीं, और दिनभर की भागदौड़ से पहले मन को कोई अदृश्य ऊर्जा मिलती।

Letter Without Address Novel in Hindi 



इसी चहल-पहल के बीच, अचानक एक तेज़ कदमों की आहट ने सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया। कमल मुस्कुराता हुआ आया और जोहन के हाथ में एक मुड़ा-तुड़ा सा कागज़ थमाते हुए बोला —
“लो, प्रेम-पत्र है... तुम्हारे नाम आया है।”

जोहन चौंक उठा।
“मेरे नाम से? मैं? अरे, मैं किसी लड़की-वड़की के चक्कर में नहीं पड़ता, समझे! ये कैसा मज़ाक है, कमल?”

कमल ने शरारती मुस्कान के साथ कहा —
“मज़ाक नहीं है ये, मेरे दोस्त... एक लड़की है — जिससे तुम सच में प्रेम करते हो। बस अब तक सब से छुपाकर रखा है।”

जोहन की भौंहें सिकुड़ गईं।
“क्या बकवास है! ऐसा कुछ नहीं है... चल, दिखा तो सही वो चिट्ठी।”

कमल ने कागज़ उसके हाथों में रख दिया। जोहन ने झिझकते हुए उसे खोला —

> “माय डियर जोहन,
आई लव यू।
मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूँ।
तुम्हारी...”

वाक्य अधूरा था। पत्र में नाम नहीं लिखा था।

जोहन ने चारों ओर देखा — सबकी नज़रें उसी पर थीं।
“ये कौन हो सकता है?” उसने बुदबुदाया।

उसी वक्त एक और मित्र भागता हुआ आया, उसके हाथ में भी एक पत्र था।
“अरे जोहन! ये देखो — तुम्हारे नाम फिर से एक चिट्ठी!”

इस बार शब्द और भी साहसी थे —

> “तुम्हें हरे रंग का कपड़ा बहुत जचता है।
इसे रोज पहनकर कॉलेज आया करो।
आई लव यू... जोहन, तुम्हारी...”

भीड़ में फिर हँसी गूंज उठी। पर जोहन अब हँस नहीं पा रहा था।

अगले कुछ दिनों तक यह सिलसिला जारी रहा। हर सुबह मैदान के किसी कोने में एक नया पत्र रखा मिलता — कभी बेंच पर, कभी बरगद के पेड़ के नीचे, तो कभी लाइब्रेरी की सीढ़ियों के पास।

हर पत्र में कुछ ऐसा था जो उसके दिल के तारों को छू जाता — कभी सच्ची चाहत की मिठास, तो कभी मज़ाकिया लहज़े में छिपी किसी गहरी भावना का इशारा।

दोस्त अब मज़े लेने लगे थे —
“अरे जोहन, आज कौन-सी मोहतरमा ने नज़्म भेजी है?”
“कहीं कोई जासूस तो नहीं फिदा हो गया तुझ पर?”

वो हँसता जरूर, मगर उसकी हँसी अब बनावटी हो चुकी थी। हर नए पत्र के साथ उसके मन की उलझनें और गहरी होती जा रही थीं। कौन है ये? क्यों भेज रही है ये सब?

एक दिन, जब वह मैदान के एक कोने में बेंच पर बैठा  पत्र पढ़ रहा था, उसके भीतर कुछ बदल गया। आँखों में दृढ़ निश्चय था।
“अब बहुत हो गया... आज इसका पता लगाकर ही रहूँगा,” उसने मन ही मन कहा।

तभी एक नाम धीरे-धीरे उसके ज़ेहन में उभरा — शालिनी।

शालिनी... उसकी पुरानी दोस्त। एक ऐसा नाम जो बीते दिनों की धूल भरी गलियों में अब भी साफ़ सुनाई देता था। वह हमेशा से अलग थी — समझदार, शांत, और भीतर से बेहद संवेदनशील। कॉलेज की इमारतों, गलियारों और उन अनकहे रहस्यों से उसका रिश्ता कुछ ऐसा था, जैसे वह इस पूरी दुनिया की अनकही भाषा समझती हो।

अगर कोई था जो इस उलझन को सुलझा सकता था, तो शायद वही — शालिनी।

जोहन उठा। कदम तेज़ थे, पर दिल में एक अनजाना डर भी था —
कहीं ये सिर्फ़ मज़ाक न निकले... या शायद कोई ऐसी अधूरी कहानी,
जो शुरू होने से पहले ही डर और प्रेम के बीच काँप रही थी।
शाम की हल्की सुनहरी धूप मैदान की घास पर बिखरी हुई थी। हवा में सीलन और सुगंध का एक अजीब-सा संगम था — जैसे दिन किसी रहस्य को छुपाए धीरे-धीरे ढल रहा हो।

जोहन कॉलेज के गलियारे से निकलता हुआ सीधे लाइब्रेरी की तरफ बढ़ा। वहीं, खिड़की के पास हमेशा की तरह शालिनी बैठी थी — उसके हाथ में मोटी-सी किताब, और बालों की एक लट बार-बार चेहरे पर गिरती हुई ।

“शालिनी...” जोहन ने धीमे से पुकारा।

वह मुस्कुराई, नज़र उठाई —
“अरे, जोहन! आज तुम भी आ गए। क्या बात है?”

जोहन कुछ पल चुप रहा। फिर उसके सामने कुर्सी खींचकर बैठ गया।
“एक बात पूछनी है — लेकिन वादा करो, मज़ाक नहीं उड़ाओगी।”

शालिनी ने किताब बंद करते हुए कहा,
“इतनी गंभीरता! बताओ, क्या हुआ?”

जोहन ने जेब से कुछ मुड़े-तुड़े कागज़ निकाले — वे वही चिट्ठियाँ थीं।
“ये... कुछ दिनों से मिल रहे हैं। हर सुबह किसी न किसी जगह पड़े रहते हैं। किसी ने लिखा है — मेरे नाम। पर नाम कभी नहीं लिखा होता।”

शालिनी की मुस्कान कुछ पल को थम गई।
“ओह... तो ये वही मशहूर प्रेम-पत्र हैं, जिनकी चर्चा पूरे कॉलेज में है?” उसने हल्के से कहा।

“हाँ,” जोहन ने सिर झुकाते हुए जवाब दिया। “सबको मज़ाक लग रहा है। लेकिन... मुझे अब ये मज़ाक नहीं लग रहा।”

शालिनी ने उसकी आँखों में झाँका — वहाँ उलझन, बेचैनी और शायद थोड़ी उम्मीद भी थी।
“तुम्हें क्या लगता है, कौन हो सकता है?” उसने पूछा।

जोहन ने गहरी साँस ली, “पता नहीं... पर जो भी है, वो मुझे बहुत अच्छी तरह जानता है — मेरे पसंदीदा रंग तक।”

कुछ पल दोनों के बीच सन्नाटा रहा। बाहर पेड़ों पर बैठी चिड़ियाँ चहक रहीं थीं, और कमरे में बस घड़ी की टिक-टिक सुनाई दे रही थी।

फिर शालिनी ने धीरे से कहा —
“कभी-कभी कुछ बातें... बिना नाम के ही ज्यादा सच होती हैं, जोहन।”

“मतलब?” जोहन ने चौंककर पूछा।

शालिनी ने मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा, पर उस मुस्कान में कुछ रहस्य था।
“मतलब ये कि— शायद नाम जानने की ज़रूरत नहीं। जो महसूस होता है, वही असली जवाब होता है।”

जोहन के मन में जैसे हलचल मच गई।
क्या वह कुछ छुपा रही है? क्या उसे पहले से सब पता है?

वह जाने ही वाला था कि शालिनी ने अचानक कहा —
“जोहन... कल सुबह मैदान के पुराने बरगद के नीचे ज़रूर जाना। वहाँ तुम्हें एक और पत्र मिलेगा... पर इस बार जवाब भी।”

जोहन ठिठक गया।
“तुम्हें कैसे पता?”

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शालिनी बस मुस्कुराई —
“कभी-कभी रहस्य खुद ही रास्ता दिखाते हैं।”

और फिर, वह किताब उठाकर चली गई — जैसे कोई कहानी अधूरी छोड़कर जानबूझकर रहस्य बढ़ा दे।

जोहन वहीं बैठा रह गया, उस मुस्कान को याद करते हुए जो जैसे उसके मन के हर सवाल का आधा जवाब थी... और आधा रहस्य।

- क्रमशः -
-राजकपूर राजपूत "राज "

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