बिना पते की चिट्ठी उपन्यास भाग तीन Letter Without Address Novel Part Three

Letter Without Address Novel Part - Three 

"क्यों? अभी तो हम मिले ही हैं... और तुम इतनी जल्दी जाने की बात कर रही हो?" — जोहन की आवाज़ में एक हलकी सी कसक थी।

शालिनी बस उसे निहारती रही — उसकी आँखों में एक गहराई थी, जैसे बिना कहे ही सब कुछ कह रही हो: "यही तो प्यार है... चुपचाप समझ लेना।"

जोहन की बातों ने उसे थोड़ा और रुकने को मजबूर कर दिया। वो कुछ पल और वहीं ठहर गई।
फिर धीमे स्वर में मुस्कराकर बोली,
"आख़िर में... कॉलेज तो फिर आऊंगी न।"

Letter Without Address Novel Part Three 

जोहन ने उसकी बात सुनकर हल्की सी साँस ली, और सिर हिला कर मान गया।
शायद कुछ रिश्ते कहे बिना भी बहुत कुछ कह जाते हैं...

बरगद के नीचे उस सुबह का मिलना जोहन के लिए किसी स्वप्न जैसा था।
उस दिन के बाद कॉलेज का वही मैदान अब उसे अलग लगने लगा — वही बेंच, वही घास, वही हवा... मगर हर चीज़ में अब शालिनी की मौजूदगी महसूस होती थी।

शालिनी ने अब खुलकर कुछ नहीं कहा था।
ना “आई लव यू”, ना कोई औपचारिक इज़हार।
बस उसके हावभाव, उसकी नज़रें, उसकी मुस्कान — सब कुछ जैसे चुपचाप कह रहे थे कि “हाँ, मैं ही वो थी।”

दिन बीतते गए।
जोहन और शालिनी अब साथ ज़्यादा समय बिताने लगे।
कभी लाइब्रेरी के किसी कोने में बैठकर किताबें पढ़ते, कभी कैंटीन में कॉफ़ी के कप के साथ छोटी-छोटी बातें करते।

पर इस नज़दीकी में भी एक अनकहा डर था —
कहीं यह सब फिर से सपना न बन जाए,
कहीं एक दिन ये चिट्ठियाँ ही सब कुछ न रह जाएँ।

एक दोपहर, जब आसमान बादलों से ढका हुआ था और बारिश की पहली बूंदें ज़मीन को छू रही थीं, जोहन अकेला मैदान में खड़ा था।
हवा में मिट्टी की भीनी खुशबू थी।
वो वही जगह थी जहाँ उसने पहला पत्र पढ़ा था।

अचानक किसी ने पीछे से कहा —
“अब भी उसी जगह खड़े हो, जहाँ कहानी शुरू हुई थी?”

जोहन पलटा — शालिनी थी, हाथ में छतरी और होंठों पर वही रहस्यमयी मुस्कान।

“तुम आई...” वह मुस्कुराया।

“हाँ,” उसने धीरे से कहा, “बारिश शुरू हुई तो सोचा, शायद तुम्हें फिर से किसी पत्र की ज़रूरत हो।”

जोहन हँस पड़ा — “अब पत्र नहीं चाहिए, शालिनी। अब साथ चाहिए।”

शालिनी ने छतरी आगे बढ़ाई — दोनों उसके नीचे आ गए।
हवा में एक ठंडापन था, लेकिन उनके बीच की दूरी जैसे धीरे-धीरे मिट रही थी।

“साथ?” उसने पूछा।
“ जीवन भर का?”

जोहन ने उसकी आँखों में देखा —
“क्या वो सारे पत्र सिर्फ़ मज़ाक थे, या... सच में किसी दिल की आवाज़?”

शालिनी कुछ पल चुप रही।
फिर उसने नजरें झुका लीं, और कहा —
“शायद वो मज़ाक भी थे और सच भी... मैं चाहती थी तुम महसूस करो कि कोई तुम्हें देखता है — तुम्हारे भीतर के अकेलेपन को, तुम्हारे मुस्कुराने के पीछे के दर्द को। क्या तुम्हें अब भी विश्वास नहीं है । ”

"है , मगर यह सब कुछ मानो किसी स्वप्न की तरह है। समय कुछ यूँ भागा चला जा रहा है कि मैं चाहकर भी तुम्हारे प्रेम को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर पा रहा हूं ।," जोहन ने शांत स्वर में कहा।

वह मुस्कुराई —
“अब मैं चाहती हूँ कि तुम खुद पढ़ो पत्र को नहीं,  मेरी आंखों को... किसी और के लिए नहीं, अपने लिए।”

जोहन समझ नहीं पाया, खुद को , पर उसकी आँखों में नमी आ गई।
वो बस बोला — “अगर कहानी तुमसे शुरू हुई है, तो खत्म भी तुम्हारे साथ होनी चाहिए।”

शालिनी ने छतरी बंद कर दी।
बारिश की बूंदें अब उनके बालों, कपड़ों पर गिर रही थीं — ठंडी, पर सुकून देने वाली।

“कहानी खत्म नहीं होगी, जोहन,” उसने कहा।
“ये तो बस उस एहसास की शुरुआत है, जहाँ शब्द नहीं — सिर्फ़ दिल बोलता है।”

दोनों बरगद की ओर बढ़े —
उसी पेड़ के नीचे, जहाँ पहली चिट्ठी रखी गई थी।
और वहीं, पहली बार जोहन ने अपने दिल की खामोशी को शब्दों में बदला —
एक छोटा-सा कागज़, जिस पर बस यही लिखा था —

“तुमसे शुरू हुआ था...
और अब तुम्हारे बिना कुछ भी पूरा नहीं लगता।
— तुम्हारा, जोहन।”

शालिनी ने पत्र पढ़ा, मुस्कुराई — और कुछ नहीं कहा।
क्योंकि अब कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी।

बारिश रुक चुकी थी,
पर उस दिन दो दिलों की कहानी सच में शुरू हो गई थी।

"अरे जोहन, आजकल तो तुम्हारा कुछ अता-पता ही नहीं चलता। कहाँ खो गए हो? कभी हमें भी याद कर लिया करो!"
दूर से आती आवाज में हल्का सा व्यंग्य और एक अनकही शिकायत थी। जैसे-जैसे वह आवाज पास आती गई, कमल सामने आ खड़ा हुआ — मुस्कुराते हुए, लेकिन आँखों में पुराने दिनों की हल्की सी झलक लिए।

शालिनी वह व्यंग्य सहन नहीं कर सकी और चुपचाप वहाँ से चली गई। वह नहीं चाहती थी कि उसके अपने मित्र उसके सामने इस प्रकार तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करें। कोई प्रेम को मज़ाक और चर्चा का विषय बनाए ।

"मैंने किसी को नहीं छोड़ा है, कमल... बस तुम लोग ही मुझे समझ नहीं पाए। तुम सबने मेरे मौन को गलतफहमी का नाम दे दिया।"

कमल ने थोड़ी कटाक्ष भरी मुस्कान के साथ कहा,
"नहीं, हम सब सबकुछ ठीक-ठीक समझ रहे हैं। तुम तो इन दिनों खूब 'मज़े' में हो, नहीं?"

वह ठहर गया, उसकी आँखों में एक शांत पीड़ा उभर आई। जोहन ने धीरे से कहा —
"प्रेम कोई 'मज़ा' नहीं होता, कमल। यह कोई खेल नहीं है, जिसमें हँसी-ठिठोली के क्षण हों और फिर सब समाप्त हो जाए। प्रेम आत्मा का आत्मा से जुड़ जाना है... एक मौन संवाद, जहाँ शब्द नहीं, सिर्फ़ अनुभूति बोलती है। जब किसी की उपस्थिति मात्र से भीतर कोई शांत तरंग उठे, वही सच्चा प्रेम होता है। वहाँ आकर्षण नहीं होता,, जो शारीरिक खिंचाव से उत्पन्न हो । बस अपनापन होता है।"

वह कुछ पल के लिए रुका, फिर उसकी आवाज़ में हल्का कंपन था —
"तुम लोग जिसे 'मज़ा' समझ बैठे हो, वो तो सिर्फ़ मेरे सुकून की परछाई है। किसी को अच्छा लगना, उसकी संगत में शांति महसूस होना — यही प्रेम की शुरुआत है। इसमें कोई छल, कोई दिखावा नहीं होता... बस एक चाह होती है । "

"वाह-वाह!... कमल ने कहा ।

क्रमशः
-राजकपूर राजपूत "राज "


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