गरीब की दुनिया- कहानी Poor Man's World - Story वह मेला जाना नहीं चाहता था, पर करता भी क्या? बेटे की ज़िद उसे खींच रही थी। पंचराम अच्छी तरह जानता था कि वह गरीब आदमी है; घर का ख़र्च किसी तरह चल पाता है। उधर पत्नी कह रही थी कि उसकी चप्पल टूट गई है, “एक नई चप्पल ले आना,” जिस पर पंचराम केवल सिर ही हिला पाया था। उसका लड़का गोलू यह सब खड़े-खड़े देख रहा था। जिसकी उम्र महज दस की होगी । फिर भी वह मेला जाने की ज़िद करने लगा—“सभी साथी जा रहे हैं, मैं भी जाऊँगा।”
“मुझे तो कोई शौक नहीं है इस मेला-वेला का। तुम ही क्यों इतना उतावले हो?” पंचराम ने अपने लड़के से कहा।
Poor Man's World - Story
“सबकी उम्र अलग होती है। जिस चीज़ को देखकर तुम्हारा मन भर गया है, उसमें रुचि कैसी? बच्चा है, तो हर नई चीज़ की तरफ उत्सुकता तो होगी ही।” पत्नी की बातें सुनकर पंचराम चुप हो गया। मन नहीं था, फिर भी अपने बेटे से कहा, “चलो, ठीक है।” मगर साथ में समझाया भी—“ज्यादा कुछ लेने-देने की बातें मत करना।”
गोलू खुशी से उछल गया—“हाँ, हाँ!”
मेले की राह पकड़ते ही गोलू का मन रास्ते के हर रंग में घुलने लगा। कोई पेड़ दिखता तो उसकी गिनती शुरू, कहीं बंदरों का झुंड उछलता तो वह उत्साह से भर जाता था । कभी पिता को पुकार उठता— “देखो न, कितनी गाड़ियाँ जा रही हैं!”
पिता मुस्कराए, “हाँ बेटा, समय बदल रहा है। पहले लोग साइकिल और पैदल जाते थे । अब ये सब कम हो गया है । ”
गोलू ने मासूम जिज्ञासा से पूछा, “तो हमारा समय क्यों नहीं बदलता? हम तो आज भी साइकिल से आते–जाते हैं।”
पिता ने ठहरकर कहा, “बदलेगा… समय हमेशा अच्छे दिनों के बाद ही बदलता है। "
"अभी उन दिनों के आने में देर है।”गोलू ने कहा ।
यह सुनकर पंचराम चुप हो गया। उसकी बालसुलभ चेष्टाएँ जैसे हवा में थम-सी गईं। पिता सोच में पड़ गए— उस नन्ही जिज्ञासा का उत्तर किस भाषा में दें?
जब साइकिल रोका गया तो गोलू के कदम मेले की ओर मचल रहा था । "जल्दी-जल्दी चलों ना पापा ।"
"हां "
मेले के भीतर प्रवेश करते ही गोलू चहक उठा। वह हर चीज़ को उत्सुकता से देखता और पूछता था, जिस पर उसके पिता उसे संतुष्ट करते हुए उत्तर देते थे। कुछ चीज़ों पर गोलू का मन ठिठक जाता था। वे बहुत सुंदर लगती थीं, और उसके चेहरे के भाव बताते थे कि वह उन्हें खरीदना चाहता है। तब पिता कहते, “चलो! उस गली में मिठाई और खिलौनों की दुकानें सजी हुई हैं।”
गली में कदम रखते ही गोलू अनजाने ही थोड़ा आगे निकल गया। जब वह मुड़कर पीछे देखता है, तो पिता कहीं दिखाई नहीं दिया । उसके नन्हे-से मन में भय उमड़ पड़ा—कहीं वह उनसे बिछड़ न जाए। यही सोचकर उसका हृदय सहम गया और वह घबराकर चारों ओर नज़र दौड़ाई । भीड़ में एक छोटे-से बच्चे की नज़र कितनी दूर तक पहुँचे! अंत में उसे यही उचित लगा कि वह वापस लौट चले। कुछ ही कदम चलने पर उसे पिता दिखाई दे जाते हैं।
पिता उसके लिए एक खिलौने का मोल-भाव कर रहे थे—इस बात से अनजान होकर कि उनका बेटा अभी-अभी उनसे छूटकर अलग हो गया था। दाम न पटने पर उनके चेहरे पर हल्की मायूसी उतर आई थी, फिर भी वे उस खिलौने को उसी तन्मयता से निहारते खड़े थे। यह सब गोलू चुपचाप देख रहा था।
"ये खिलौने मुझे नहीं भा रहे, पापा," उसने धीमे स्वर में कहा, "चलो, दूसरी गली में चलते हैं।"
पिता ने समझाने का प्रयास किया, "यह बड़ा मज़बूत है बेटा, बहुत दिनों तक तुम्हारे काम आएगा।"
गोलू ने आग्रह किया, "दूसरी गली में और अच्छे मिल जाएंगे... चलो न।"
बेटे की हठ पर पिता ने मुस्कुराते हुए उसकी इच्छा मान ली। वे आगे बढ़े ही थे कि सामने चमकीले झूले नज़र आने लगे—हवाई झूले, ड्रैगन झूले और न जाने कितने रंग-बिरंगे खेल।
पंचराम ने उत्साह से कहा, "गोलू, तुम भी झूले झूल लो। बड़ा मज़ा आता है। देखो, गाँव के तुम्हारे साथी भी झूल रहे हैं।"
पर गोलू शांत रहा; उसके उत्तर की जगह केवल उसकी चुप्पी थी, जैसे किसी अनकही भावना ने उसे घेर लिया हो।
कुछ देर बाद वे दोनों दूसरी गली में आ गए । गोलू वहीं ठिठक गया । रूककर उसने एक चप्पल देखने लगा ।
"तुम क्या करोगे, चप्पल ख़रीद कर तुम्हारे पास तो है ना । "
"मेरे लिए नहीं, मां के लिए पापा। "
गोलू ने आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया ।
"तुम्हें क्यों इतनी चिंता है, मैं खरीद लूंगा । मेला घूमने आए हो । अपने लिए खरीदों । "
गोलू ने बात नहीं मानी और चप्पल पसंद कर लिया ।
"पिताजी ये ठीक है, मोल-भाव कर दो । "
"अरे, मेरे पास पैसे नहीं बचेंगे । तुम्हारा मेला क्या होगा ?"
गोलू चुप रहा लेकिन संतुष्ट । उसके पिता अंततः हार गए । कुछ मोल-भाव करने के बाद उसे खरीद ही लिए । मोल-भाव करके कुछ पैसे बचा लिए ।
मेला घूमते-घूमते दोनों के पैर मानो थकान की धूल से ढक गए थे।
“चलो, गोलू… अब घर लौट चलें,” पंचराम ने धीमे स्वर में कहा, “काफी देर हो गई है। कुछ नाश्ता-वास्ता कर लेना चाहिए।”
गोलू मुस्कुराया, “मन नहीं है, पिताजी। जरा-सी जलेबी ले लीजिए, घर पहुँचकर खाएँगे।”
पंचराम हँस पड़े, “मैंने मना किया, इसलिए खर्च नहीं करवाना चाहते हो?”
उनकी बात पर गोलू खिलखिला उठा, “मेला देख लिया बस, पापा… मज़ा तो खूब आया।”
वापसी में पंचराम ने उसके लिए एक रंग-बिरंगा गुब्बारा ले लिया। साइकिल पर बैठा गोलू हवा के थपेड़ों के संग उस गुब्बारे को झुलाते हुए जैसे घर नहीं, किसी सपने की ओर जा रहा था।
घर पहुँचते ही वह माँ के आँचल से लिपट गया और बोला—
“देखो माँ, ये चप्पल! कितनी अच्छी है न? तुम्हारे पैरों में बिल्कुल आएगी।”
माँ ने उसे हल्की-सी डाँटते हुए कहा, “अपने लिए कुछ भी नहीं लिया तुमने…”
गोलू तुरंत बोला, “जलेबी लाए हैं, तुम भी खाओ न,” और अपनी छोटी-सी हथेलियों से जलेबियाँ निकालकर माँ की गोद में बैठ गया।
यह दृश्य देखकर पंचराम की आँखें अनायास ही भर आईं। वे सोचने लगे—गरीबी की दुनिया कितनी सरल होती है, जहाँ सुख-संपत्ति नहीं, पर एक-दूसरे का स्नेह ही सबसे बड़ा धन बनकर चमकता रहता है।
वे भी गोबर से लीपी मिट्टी की उस ठंडी ज़मीन पर बैठ गए और अपने परिवार संग जलेबियों का मीठा स्वाद ही नहीं, अपनेपन की गर्माहट भी चखने लगे।
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