My First Earning - Prem Kahani वह घर से भाग गया था। भागा क्यों? क्योंकि घरवाले उसे हमेशा निकम्मा कहा करते थे। एक दिन गाँव के कुछ लोग प्रयागराज कमाने-खाने के लिए जा रहे थे, तो वह भी उनके साथ जाने को तैयार हो गया। घरवाले उसे मना कर रहे थे—"तू क्या कमाएगा? जो घर में एक लोटा पानी निकालकर नहीं पी सकता, वह कमाकर लाएगा?"
घर में बाबूजी और बड़े भाई का ही शासन था। जो वे कह देते, वही सबको मानना पड़ता था। बस निकेश ही था जो अपने तथाकथित निकम्मेपन के कारण उनकी बातें नहीं मानता था। घरवालों ने उससे उम्मीदें छोड़ दी थीं—क्या यह कभी कुछ कमाकर घर लाएगा? शायद नहीं।
My First Earning - Prem Kahani
माँ ही थी जो उसे समझती थी। उसने कभी नहीं कहा कि उसका बेटा निकम्मा है। जब भी निकेश को पैसों की ज़रूरत पड़ती, माँ चुपचाप उसे पैसे दे देती थी। मां थी, ममता की मुर्ति थी ।
प्रयागराज में काम कुछ ऐसा था, मानो जीवन की सारी सहजता छिन गई हो। ठेकेदार दिन भर आँखों के आगे मँडराता रहता — जैसे साँस लेने तक की मोहलत न हो। पीठ सीधी करने की भी फुर्सत नहीं मिलती थी। लगता था, जैसे काम के बोझ तले ही प्राण निकल जाएँगे।
उन्हें क्या फ़िक्र! जितना अधिक काम, उतनी ही मोटी कमाई। लेकिन एक मजदूर? उसका क्या — वह चाहे जीए या तिल-तिल मरता रहे, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।
निकेश जब बाकी मजदूरों की ओर देखता, तो अचरज में पड़ जाता। वे सब सहज दिखते, जैसे इस पीड़ा के अभ्यस्त हो चले हों। कोई आह नहीं, कोई शिकायत नहीं — मानो कठिनाई ही उनका स्वभाव बन गई हो ।
उसे इस कठिनाई से बचने का बस एक ही उपाय सूझता था — छुट्टी ले लूँ। पर छुट्टी का मतलब? रोटी से समझौता। और रोटी...?
फिर भी ठान लिया — चाहे जो हो जाए, इस बार छुट्टी ज़रूर लूंगा। बस, हफ़्ते के अंत का इंतज़ार है... क्योंकि हफ़्ते में ही तो मेहनत की कीमत मिलती है। यही सोचकर दिन काटने लगा — एक-एक दिन, जैसे बरसों की पीड़ा ओढ़े आता था।
इंतज़ार भी कितना कड़वा होता है — चाहे वह चाहत का हो या मजदूरी का।
आख़िरकार, जब चुकारा मिला — पहली कमाई — तो आँखों से अपने आप आँसू बह निकले। कैसी मिठास थी उस पहले पसीने की कमाई में! जैसे वर्षों से जमे हुए फोड़े एक पल में भर आए हों। थकावट, पीड़ा, घाव — सब जैसे उसी एक दिन में धुल गए।
उस पैसे को वह बार-बार छू रहा था, मानो कोई सपना हो जिसे वह अपनी मुट्ठी में क़ैद करना चाहता हो। दिल के भीतर एक अजीब-सी तसल्ली उतर आई थी — कितना सुकून...! मन में ठान लिया — ये पैसे मां के हाथों में ही रखूंगा। भाईयों को नहीं... बिल्कुल नहीं। उसने धीरे से पैसे एक कोने में छिपा दिए, जैसे कोई अनमोल धरोहर हो, और संतोष भरे मन से सो गया।
लेकिन सुबह जब हुई और वह खाना खाकर उठा, तो जैसे कोई अजीब-सी उनींदी परछाईं उसे घेरने लगी। मन अनमना हो गया। दिल बार-बार गांव की ओर खिंचने लगा। सोचने लगा — कितना अच्छा होता अगर मैं गांव में रहकर कुछ काम कर लेता, कुछ कमा लेता... मां के पास होता। क्या अब घर लौट चलूं?
लेकिन तभी एक और सोच मन में दस्तक देती है — "नहीं... अगर अभी लौट गया तो सब मुझे फिर से निकम्मा कहेंगे।" मन भले ही टूट रहा हो, मगर उसने ठान लिया — "अब चाहे जो हो जाए, मैं काम पर नहीं जाऊंगा।"
उस दिन निकेश ने बच्चों जैसी हठधर्मी दिखाई और कोई कार्य नहीं किया। साथी उसे समझाते रहे — 'काम कर लो, शहर में एक दिन का अकाम भी बड़ा घाटे का सौदा होता है।' किंतु वह टस से मस न हुआ।
अंततः उसके एक साथी, (भुपेंद्र) जो स्वयं भी काम-धाम से कतराता था और प्रायः फिल्म देखने जाया करता था, उसे साथ ले गया। उसके पिता सब कुछ जानते हुए भी मौन रहते हैं, मानो उन्होंने उसके व्यवहार को मौन स्वीकृति दे रखी हो।
दिन भर निकेश उसके साथ घूमता रहता — कभी गंगा घाट की ठंडी सीढ़ियाँ नापते, तो कभी किसी पुराने सिनेमाघर में कोई फ़िल्म देख आते। वक्त जैसे पंख लगाकर उड़ता जा रहा था। पर धीरे-धीरे जेब ढीली होने लगी, और पैसों की अहमियत समझ में आने लगी।
"यार भूपेंद्र," निकेश ने हल्की मुस्कान के साथ पूछा,
"तुम तो कोई काम-धंधा नहीं करते, फिर भी हमेशा तुम्हारी जेब भरी रहती है। क्या तुम्हारे पिताजी पैसे देते हैं?"
भूपेंद्र ने सीना तानकर, बिना किसी झिझक के जवाब दिया, "मैंने आज तक घर से एक पैसा नहीं मांगा। जो खर्च होता है, खुद कमाता हूं और खुद चलाता हूं।"
निकेश के पास कहने को कुछ नहीं बचा। शायद उसके पिता ही पैसे देते होंगे, बस यह बताता नहीं... या शायद वाकई खुद पर निर्भर है — पता नहीं।
छुट्टी के बस चार दिन ही तो थे, पर अब हर दिन जैसे आईना दिखाने लगा था। समझ आने लगा कि बैठे-बैठे खाने से न तो कुएं का पानी बचता है, न ही जेब के पैसे। ये तो चना मुरमुरे की तरह हैं — पल में खत्म हो जाते हैं।
अब हर कोई कहने लगा — "काम पर लग जाओ, परदेश में न कोई अपना होता है, न ही कोई पूछने वाला।"
और सच कहें तो यह बात अब उसे भी सच लगने लगी थी। खाली बैठकर बहुत कुछ देख लिया था — वक़्त भी, हालात भी, और अपनी ही बेबसी को भी।
जब वह काम पर लगा, तो पहले-पहल हाथ-पैर ज़रूर थकते थे, पर अब... अब वही काम बोझ नहीं लगता था।
शायद शरीर ही नहीं, मन भी धीरे-धीरे उस रफ़्तार का अभ्यस्त हो चला था। जैसे जीवन ने उसे सिखा दिया हो —
चलते रहो, तो रास्ता भी साथ चलने लगता है।
निकेश मन की उलझनों में ऐसा उलझा था कि उसने कभी इधर ध्यान ही नहीं दिया। भूपेंद्र काम तो कम करता था, मगर ठेकेदार की जी-हुज़ूरी में लगा रहता। शायद वही वजह थी कि ठेकेदार उसे पसंद करता था।
जो बिल्डिंग बन रही थी वहां पर एक लड़की भी काम करती थी — बेहद गरीब, लेकिन उतनी ही सुंदर और मासूम। इस चकाचौंध भरे शहर में पैसा तो बहुत है, लेकिन ग़रीबी की पीड़ा उससे कहीं ज़्यादा गहरी है।
यहाँ ज़िंदगी इतनी बेरहम है कि अगर एक दिन भी काम छूट जाए, तो चूल्हा ठंडा पड़ जाता है।
वह लड़की इसी शहर की थी। उसके मां-बाप दोनों लकवाग्रस्त थे — लाचार, बेबस। घर की ज़िम्मेदारियों ने उसकी उम्र से पहले ही बचपन छीन लिया था। मजबूरी ने उसे उस कठोर मजदूरी की दुनिया में धकेल दिया, जहाँ न सपने टिकते हैं, न आंसू दिखते हैं।
उस लड़की का नाम संगीता था । उसका दर्द कुछ और ही था... और मेरा, बिल्कुल अलग। वह ग़रीब थी, तंगी में जीती थी—पर मैं ऐसा नहीं था। हमारे गाँव में हमारा परिवार सम्पन्न माना जाता है। फिर भी, मैं कुछ और सोचकर घर से निकला था—कुछ कर दिखाने की लगन लेकर, बस यही इरादा था कि मेहनत से अपनी एक अलग पहचान बनाऊँगा। मैं निठल्ला नहीं हूँ, कभी था भी नहीं।
निकेश जब उस लड़की को देखता, तो जाने-अनजाने अपनी ही भावनाओं से उसका मिलान करने लगता।
शायद यही स्वाभाविक है—जो दिल से किसी के दुःख को समझना चाहता है, उसकी ओर खिंच जाना भी तो एक तरह की आत्मीयता ही होती है।
कब काम करते-करते हँसी-मज़ाक की मिठास उनके बीच घुल गई, उन्हें खुद भी पता नहीं चला।
संगीता अब लंच की छुट्टी में सीधे निलेश के पास आ जाती, साथ बैठकर सादे से टिफिन में भी सुकून ढूँढ लिया करती। दोनों को एक-दूसरे की बातें अच्छी लगने लगी थीं—कभी छोटी-छोटी बातें, तो कभी खामोशियाँ भी बहुत कुछ कह जाती थीं।
लेकिन ये बदलता हुआ समीकरण भूपेंद्र को खटकने लगा। जो कभी हर जगह साथ जाता था, अब दूरी बनाने लगा।
निकेश ने उसे लेकर कोई शिकवा नहीं किया—सोचा, "हर किसी की अपनी सोच होती है, शायद उसे कुछ और लगता हो।"
फिर एक दिन अचानक ठेकेदार ने निकेश को किसी और जगह भेज दिया। कहा कि वहाँ काम ज्यादा है, ज़रूरत है।
पर हैरानी की बात यह थी कि बाकी मज़दूर वहीं पहले की जगह पर बने रहे।
निकेश कुछ नहीं बोला, बस चुपचाप वहाँ चला गया—कभी-कभी मन में उठते सवालों को भी चुप रहकर सह लेना ही सबसे आसान होता है।
इधर निकेश का मन किसी काम में नहीं लग रहा था। सब कुछ होते हुए भी जैसे कुछ नहीं था। भीतर एक अजीब-सी खालीपन पसरी थी, जो उसे धीरे-धीरे भीतर ही भीतर थका रही थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि ये बेचैनी किस बात की है।
दोपहर के खाने के वक़्त, जब वह अकेले बैठा था, तब जैसे मन की गिरह खुली—उदासी की यह चुपचाप दस्तक संगीता की अनुपस्थिति थी। उसका पास होना जैसे निकेश की दुनिया को रंगों से भर देता था। उसके साथ न रहने के बाद, सब कुछ फीका लगने लगा था।
दिन भर संगीता की यादें मन के आँगन में घूमती रहीं—उसकी बातें, उसकी मुस्कान, उसका यूँ ही बात-बात पर खिलखिलाना... और सबसे ज़्यादा, उसका चुपचाप साथ निभाना। आज वही सब कुछ बहुत दूर लग रहा था, जैसे कोई मीठा सपना नींद से जागते ही हाथ से फिसल गया हो।
हफ़्ते भर से उस ओर काम किया । जब निकेश वापस अपनी पुरानी जगह लौटे, तो मन में संगीता से एक अजीब-सी दूरी का अहसास हो रहा था।
मन की गांठें अब तक पूरी तरह से नहीं खुली थीं। वे एक-दूसरे के प्यार को पूरी तरह महसूस नहीं कर पाए थे। बस एक विश्वास था — यह कि निकेश संगीता से प्रेम करता है। लेकिन संगीता...? उस पर विश्वास नहीं था।
बहुत दिनों बाद आकर पहले जैसे कैसे बात कर सकता हूं । कहीं बुरा न मान जाएं ।
काम का क्षेत्र लम्बा चौड़ा में फैला था। संगीता कुछ दूरी पर एक और राजमिस्त्री के साथ काम में व्यस्त थी, और निकेश भी किसी और के साथ जुटा हुआ था। लेकिन जब भी उनकी निगाहें पल भर को टकरातीं, तो जैसे थकान की परतें उतरने लगतीं। उस एक नज़र में राहत थी, एक सूकून था — और दोनों के चेहरों पर अनकही मुस्कान खिल उठती थी।
लंच का समय हुआ तो संगीता उसके पास आ गई।
"तुम दूसरे साइड पर काम करने चले गए थे... वहां अच्छा लग रहा था?" उसकी आवाज़ में हल्की सी शिकायत और गहरी सी चिंता थी।
निकेश को ये शब्द किसी अपने की तरह लगे — जैसे किसी ने उसकी अनकही बातें सुन ली हों।
"अच्छा कैसे लगता? यहां तुम हो... और मैं वहां बिल्कुल अकेला था," उसने धीरे से कहा।
संगीता कुछ नहीं बोली। बस नज़रें झुका लीं। हल्की-सी मुस्कान उसके होंठों पर थी, जो धीरे-धीरे शरमाहट में ढल गई।
कुछ पलों की चुप्पी के बाद वह बोली,
"तुम्हारे जाने के बाद भूपेंद्र आया था... कह रहा था कि ठेकेदार तुम्हें घुमाने ले जाना चाहता है।"
"कहां?"
"शहर... किसी होटल, सिनेमा हॉल जैसी जगहों पर।"
निकेश थोड़ा झेंप गया, मुस्कुराया और बोला,
"फिर तुमने क्या कहा?"
उसकी आंखों में एक शरारती चमक थी, पर दिल में सिर्फ ये जानने की बेचैनी थी — क्या उसे मेरी कमी महसूस हुई थी?
"मुझे क्या मिलेगी !"
"लेकिन भूपेंद्र को क्या मिलता है, ऐसा करने से?" निकेश ने हैरानी से पूछा।
संगीता हल्की मुस्कान के साथ बोली, "तुम पहली बार शहर आए हो ना... इसलिए अभी इन सब बातों को समझ नहीं पाए।
ये सब मालिक को खुश करने के तरीके हैं। यहां काम से ज़्यादा चतुराई चलती है।
तुमने गौर नहीं किया होगा — भूपेंद्र काम तो आधा करता है, लेकिन फिर भी उसके पैसे पूरे मिलते हैं। छुट्टी पर भी उसका पैसा नहीं कटता। रोज़ की मजदूरी भी बराबर मिलती है।"
निकेश ने धीरे से सिर हिलाया, जैसे कोई पुरानी उलझन अब सुलझ रही हो।
"हां... तभी तो मैं सोचूं, आए दिन छुट्टी मारता है फिर भी उसके पास पैसे खत्म नहीं होते।"
संगीता ने उसकी तरफ देखा और हल्के स्वर में कहा,
"इस बात को उसके बाप भी जानते हैं... बस, सब चुप हैं। अब तुम समझे — असल बात क्या है।"
"हां, लेकिन इसे समझदारी और अच्छी आदत नहीं कहीं जा सकती है । "
"इसकी परवाह अब कौन करता है? भगवान, ईमान, सच—सब कुछ तो स्वार्थ के तराजू पर तोला जाता है।"
उनकी बातचीत में एक थकान घुली हुई थी — जैसे दोनों ही भीतर से कुछ टूटे हुए हों।
निकेश ने उसकी आँखों में देखा और मन ही मन सोचा — "कितनी गहरी समझ है इसे… जीवन की, लोगों की, और उस कठोर सच्चाई की जिसे ज़्यादातर लोग नज़रअंदाज़ कर देते हैं।"
"तुम्हें बुरा नहीं लगता?" निकेश ने पूछा,
"जब कोई तुम्हारी अस्मिता और आत्मसम्मान को चोट पहुँचाने की नीयत रखता है या वैसा सोचता है?"
संगीता मुस्कराई, मगर उस मुस्कान में वर्षों की पीड़ा थी।
"शुरुआत में लगता था… बहुत बुरा लगता था। पर वक्त के साथ आदत हो जाती है। कितना सोचेंगे? जब हर नज़र में एक सवाल हो, हर दिल में एक संदेह — तो आत्मसम्मान का बोझ भी थकाने लगता है। अगर हर बात को सोचते रहेंगे… तो जीना मुश्किल हो जाएगा।"
कुछ देर की बातचीत के बाद दोनों फिर अपने-अपने काम में लग गए, लेकिन निकेश का मन बेचैन था। ठेकेदार की उम्र कोई पचास के करीब रही होगी, पर अब भी उसकी अय्याश प्रवृत्ति कम नहीं हुई थी। और उससे भी अधिक खटकने वाला था भूपेंद्र — चालाक, मतलबपरस्त और आत्ममुग्ध। वह जिस काम को चालाकी समझता था, असल में वह धूर्तता थी, जिसमें ना कोई ईमानदारी थी, ना ही आत्मसम्मान। लेकिन उसी पर वह गर्व करता फिरता था। मुझे दूसरे साइट भेज दिया । संगीता से मेरा मेल-मिलाप उन लोगों को पसंद नहीं है । कितनी राजनीति करते हुए जीते हैं ।
काम पर आए अभी महीना भर बीता था कि एक दिन अचानक निकेश ने संगीता से धीमे स्वर में कहा —
"मैं गाँव लौट रहा हूँ…" उसकी आवाज़ में एक गहरी उदासी थी।
"क्यों?" संगीता चौंकी, उसकी आँखों में आश्चर्य था।
"मेरा हिसाब हो गया है। अब मेरे लिए यहाँ कुछ नहीं बचा।"
"लेकिन क्यों? बाकी सब तो काम कर रहे हैं…"
"भूपेंद्र से बहस हो गई थी मेरी।"
"किस बात पर?"
"उसका व्यवहार… मुझे सहन नहीं हुआ। और मैं चुप रह नहीं पाया। जो गलत लगा, वही कह दिया… उसके मुँह पर। ऐसे लोग दूर रहे तो ठीक है । बनावटीपन मुझे नहीं भाता है । "
संगीता कुछ पल चुप रही। उसके पास कहने को शब्द नहीं थे।
"तुम नहीं जाओगी मेरे साथ । तुम्हारे लिए ही मैं आया था । "
निकेश के अचानक ऐसे कह उठने पर वह क्षण भर को संकोच में पड़ गई।
मन में उठते भावों का ज्वार भीतर ही भीतर उसे डगमगाने लगा, पर चेहरे पर संयम की परछाईं अब भी थी।
"नहीं निकेश," उसने धीरे से कहा, "जैसा तुम सोचते हो, वैसा कुछ नहीं। मेरी सोच... कुछ और ही है। यह निर्णय आसान नहीं है।
"मैं जानता हूं, तुम अपने घर की ज़िम्मेदारियों में उलझे हुए हो — भाई-बहनों की पढ़ाई, परिवार की आशाएँ। ऐसे में शायद विवाह का विचार भी मन में न आ सके।
फिर भी, तुम्हारा साथ... जैसे किसी अंधेरे में दीपक की लौ हो। तुमसे जुड़कर जीने की एक नयी आशा मिलती है।
मैं वचन तो बहुत नहीं दे सकता, लेकिन एक बात निश्चित है — तुम्हारा सम्मान, मेरे अपने स्वाभिमान से पहले होगा।" निकेश ने कहा ।
वह मुस्कराई, पर आंखों में हल्की नमी थी।
"मैं समझती हूं, तुम अपने शब्दों के धनी हो। लेकिन तुमसे मिलने से पहले ही मैंने अपने अंतर्मन में एक संकल्प ले लिया था। अपने मां-बाप के लिए । वचन से मैं भी बंधी हूं ।
तुम्हारे प्रेम ने मुझे भावनाओं का संबल दिया — यही मेरे लिए बहुत है।
अगर तुम समझ सको, तो यही मेरा प्रेम है — निःशब्द, निस्वार्थ।
मेरी भावनाएं सदा तुम्हारी रहेंगी… लेकिन जीवन-पथ पर तुम्हारा साथ नहीं बन पाऊंगी।"
निकेश चुप हो गया। एक अजीब-सी नीरवता ने वातावरण को घेर लिया। शब्द रुक गए, पर अर्थ थमने को तैयार न थे।
उस क्षण की खामोशी में भी एक गूंज थी — अनकहे भावों की, अधूरे स्वप्नों की।
दोनों के बीच अब कोई स्पष्ट संवाद नहीं था, फिर भी बातें हो रही थीं — भीतर, बहुत भीतर।
खामोशियाँ अपने ही ढंग से कह रही थीं वह सब, जो शब्दों में कभी कहा नहीं जा सकता।
मन के कोनों में दबी अनुभूतियाँ जैसे एक-एक कर मुखर हो उठीं — मौन के माध्यम से।
निकेश के मन में उठते सवाल अब तर्क से नहीं, भावना से संचालित हो रहे थे। वह जानता था कि संगीता का निर्णय उसकी मजबूरी नहीं, बल्कि उसका संकल्प था — और यही बात उसे और अधिक उदास कर रही थी।
वह चाहता तो था कि संगीता उसके साथ चले, सब कुछ पीछे छोड़कर। पर वह जानता था, यह चाह अपने आप में स्वार्थ है।
संगीता ने जो चुना था, वह प्रेम से पलायन नहीं था, बल्कि प्रेम का वह स्वरूप था जो त्याग में अपने को पूर्ण मानता है।
संगीता के लिए, माँ-बाप की सेवा कोई बोझ नहीं थी — वह उसका प्रेम था, उसका धर्म, उसकी पहचान।
और निकेश के लिए, संगीता का यह रूप — और भी अधिक आदरणीय हो उठा था।
कुछ रिश्ते साथ नहीं चलते,
फिर भी जीवन की सबसे स्थायी स्मृति बन जाते हैं।
अपने प्रेम से विदा लेना कितना कठिन होता है — यह कहना, "मैं जा रहा हूँ", शायद शब्दों में सबसे भारी होता है।
फिर भी, कहना पड़ा... निकेश को।
संगीता ने कुछ नहीं कहा। वह बस चुपचाप बैठी रही — जैसे समय को वहीं रोक देना चाहती हो।
निकेश बहुत कुछ कहना चाहता था — दिल में अनगिनत शब्द उमड़ रहे थे, लेकिन गला भर आया।
शब्द कंठ में अटक गए, और आँखें नमी से भीग उठीं।
उस पल, मौन ही सबसे प्रबल संवाद था।
जब निकेश गाँव पहुँचा, तो अपने भीतर एक अजीब-सा उखड़ापन महसूस कर रहा था। हृदय का भारीपन वह प्रयागराज से साथ लाया था, और यहाँ आकर वह बोझ और भी गहरा हो गया था — जैसे कोई अधूरा वचन, कोई अधूरा क्षण उसे भीतर ही भीतर कुरेद रहा हो।
उसे ऐसा लग रहा था मानो अपनी पहली कमाई माँ को देते समय कुछ छूट गया हो...
हाँ, संगीता की अनुपस्थिति उस क्षण को भी अधूरा बना गई थी।
वह सोच रहा था — काश! संगीता साथ होती...
तो उसकी यह पहली कमाई लाखों में एक होती — यादगार, पूर्ण, अनमोल।
माँ, हालांकि, बहुत प्रसन्न थीं। बेटे की उपलब्धि ने उनके चेहरे पर गर्व की रेखाएँ खींच दी थीं।
अब कोई भी उनके बेटे को "निकम्मा" नहीं कह सकता था।
और वहीं से, निकेश के जीवन में एक परिवर्तन आया।
उसका दृष्टिकोण, उसकी सोच — सब कुछ बदलने लगा। अब वह हर कार्य पूरी लगन और तत्परता से करता।
काम में मन लगने लगा, और मन लगने से परिणाम भी श्रेष्ठ आने लगे।
यहाँ तक कि उसके बड़े भाई, जो पहले कभी उसे गंभीरता से नहीं लेते थे — अब उससे सलाह लेने लगे।
- राजकपूर राजपूत
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