Broken Man Story दीनदयाल का भी एक सपना था—एक छोटा-सा, पक्का घर हो, जिसमें वह अपने परिवार संग सुकून की साँस ले सके। पर उसकी झोपड़ी में जैसे हर कोना तंगहाली की कहानी कहता था, वैसे ही उसकी आँखों में पलता यह सपना भी गरीबी की आग में धीरे-धीरे झुलसता रहा।
जब प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत उसके खाते में कुछ धनराशि आई, तो उम्मीद की कोपलें फिर से फूट पड़ीं। पर वह जानता था—केवल शासन की सहायता से मकान खड़ा नहीं होता, नींव तो अपने साहस और संघर्ष से ही पड़ती है। वह रातों को करवटें बदलता रहा—सोचता रहा—"इतने पैसों से क्या होगा? कहाँ से लाऊँ बाकी खर्च? सरकार तो हाथ थाम सकती है, पर चलना तो खुद ही पड़ेगा…"
Broken Man Story
अंततः मन की बात उसने अपनी पत्नी निधि से साझा की। निधि ने उसकी बात ध्यान से सुनी, फिर बोली, "घर बनाना है तो कुछ कर्ज तो लेना ही पड़ेगा। गरीब की ज़िंदगी में उधार लेना भी एक साधन होता है। शुरुआत करो, आगे राह निकल आएगी।"
निधि के शब्दों ने जैसे उसे नया साहस दे दिया। उसने कुछ कर्ज लिया, और एक-एक कर ज़रूरी सामान जुटाने लगा। नींव की खुदाई की तैयारी हो चुकी थी। वह मन ही मन प्रसन्न था—"अब मेरा भी घर होगा… मेरा अपना।"
तभी पड़ोसी आ धमका—चेहरे पर शिकन, स्वर में ऐंठन—
"देख दीनदयाल, मकान बनाना है तो अपनी ज़मीन पर ही बनाना, मेरे मकान से एक फीट भी आगे नहीं।"
दीनदयाल ने शांत पर सधी हुई आवाज़ में उत्तर दिया, "भाई, मैं अपनी ही ज़मीन पर मकान बना रहा हूँ। किसी के हिस्से में जाकर मुझे क्या पाना है? यह ज़मीन न तेरी है, न मेरी—सब यहीं छोड़ कर एक दिन खाली हाथ चले जाएँगे। मेहमान है भाई, फिर मेरे कच्चे मकान का नींव धसी हुई है । "
उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि उसका सगा भाई भी आ पहुँचा, और वही राग अलापने लगा—
"मेरे हिस्से पर मत आ जाना।"
अब क्या कहता दीनदयाल? दोनों के स्वर स्वार्थ और संकीर्णता से भरे हुए थे। उसकी आँखें उस नींव की ओर टिकी थीं—जहाँ अब सिर्फ़ मिट्टी नहीं, बल्कि उसका टूटा हुआ सपना भी दबता जा रहा था।
दीनदयाल इसलिए नहीं उदास था कि लोग उससे झगड़ा कर रहे थे, बल्कि इसलिए कि उसका मकान बन रहा था। हां, तंगी में बन रहा था, मुश्किलों के बीच, लेकिन आखिरकार उसका सपना आकार ले रहा था। यही बात कुछ लोगों को चुभ रही थी। वर्षों से जो झोपड़ी उसकी पहचान बनी हुई थी, वही अब उनके सम्मान का साधन बन गई थी।
जब भी कोई राहगीर इन दोनों से पता पूछता, तो वे बड़े गर्व से कहते — “वहीं, जहां दीनदयाल की कच्ची झोपड़ी है।” लेकिन अब जब दीनदयाल भी पक्की नींव रखने चला, तो उनकी आत्मा हिल गई। उसे आगे बढ़ता देख वे बेचैन हो उठे।
कुछ लोग होते हैं — जो जीवन भर नैतिकता, भलमनसाहत और बराबरी की बातें करते हैं। लेकिन जब कोई सच में उनके बराबर खड़ा होने लगता है, तब उनकी आंखों में एक अदृश्य जलन उतर आती है। वे भूल जाते हैं अपनी ही कही बातें, और उनके व्यवहार में कटुता आ जाती है। ऐसे ही उसके पड़ोसी निकले ।
उस दिन तो हद ही हो गई। दीनदयाल ने जब अपने हिस्से की ज़मीन पर मकान की नींव रखी, तो वे चार लोगों को बस्ती से बुला लाए और कहने लगे — "ये ज़मीन मेरी है, इसने मेरी जगह पर निर्माण शुरू कर दिया है!" गांव के लोग सब जानते थे — दीनदयाल ने कोई गलती नहीं की थी। लेकिन फिर भी, वे उसी को समझाने लगे।
क्यों? क्योंकि दीनदयाल सहनशील था। शांत स्वभाव का था। लोग जानते हैं, जो चुप रहता है, उसी को समझाया जा सकता है।
जिसके हाथ में लाठी हो, उससे तो लोग दूर-दूर रहते हैं।
गांव का मुखिया भी कन्नी काट लेता है।
उसे न्याय से ज़्यादा अपनी 'सुरक्षा' प्यारी होती है।उसे किसी से बैर नहीं लेना। फिर चाहे किसी के साथ कितना भी अन्याय क्यों न हो रहा हो। बचकर निकल जाना उसकी राजनीति है ।
सरल स्वभाव के लोगों को तर्क और विवेक के माध्यम से समझाया जा सकता है, परंतु हठधर्मी तथा संकुचित सोच रखने वाले व्यक्तियों को समझाना अत्यंत कठिन होता है। यही स्थिति यहाँ उत्पन्न हुई। अधिकांश लोगों ने नींव को पीछे हटाने की सलाह दी।
दीनदयाल ने इस विषय पर मौन साधे रखा। उनकी पत्नी ने तीव्र स्वर में कहा — 'क्या यही वे लोग हैं जो निर्णय लेने आए हैं, जो सत्य को सत्य कहने का साहस नहीं रखते? न्याय का आधार किसी का निजी दृष्टिकोण नहीं, बल्कि निष्पक्ष विचार होना चाहिए। यदि सुनवाई खुली न हो, तो न्यायाधीश की आवश्यकता ही क्या है?'
"हमने न केवल सुना है, अपितु देखा भी है — जब समक्ष उपस्थित व्यक्ति सत्य स्वीकार करने को ही तैयार न हो, तो हमारी भूमिका सीमित रह जाती है। जो स्वयं समझ रखते हैं, उन्हें ही समझाने का प्रयास किया जाता है," मुखिया ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा।
"इसका मतलब यह है कि न्याय नहीं होगा? जिसके पास लाठी है, उसे कुछ कहा नहीं जा सकता? और जो समझदार है, वह लाचार बना रहेगा?" निधि ने कहा।
"मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ," मुखिया ने उत्तर दिया।
"तो फिर कहना क्या चाहते हो?"
"अपनी पत्नी को समझाओ, दीनदयाल। अपने घर की महिला को आगे मत करो, यह शोभा नहीं देता," एक व्यक्ति ने टोकते हुए कहा।
"तो क्या शोभा देता है? जो सामने है, उसे तो इंगित करके कुछ कह नहीं सकते... और मेरी बातें अनुचित हैं?"
निधि बड़बड़ाती हुई वहां से चली गई।
दीनदयाल ओखड़ा था, शांत, गम्भीर और थका हुआ। उसकी आँखें कह रही थीं कि वह बहुत कुछ कहना चाहता है, लेकिन समय ने उसके शब्दों को पहले ही निगल लिया है।
“आप लोग जाइए,” उसने करबद्ध होकर कहा, “आपकी कही गई बात मैं पूरा करूंगा।”
उसके इस आश्वासन पर भीड़ धीरे-धीरे छँटने लगी। लोग संतुष्ट थे, या शायद चुप्पी को ही संतोष समझ बैठे थे।
घर लौटा तो निधि बरामदे में बैठी थी — चेहरे पर वही पुराना व्यंग्य, जो वर्षों से दीनदयाल की आदर्शवादिता के सामने हारता भी नहीं था, झुकता भी नहीं।
“सब कुछ दान कर दो,” वह बड़बड़ाई, “हमारे लिए कुछ भी मत रखना। बच्चों के लिए ना छत हो, न भविष्य… सब समाज को दे दो, उसी समाज को, जो कभी पलटकर धन्यवाद तक नहीं कहता।”
दीनदयाल कुछ देर चुप रहा, फिर जैसे भीतर कोई ज्वालामुखी फूट पड़ा हो — “तो क्या करता, निधि? क्या मुँह मोड़ लेता उन लोगों से? जो लोग आए थे, वे कोई आसमान से नहीं उतरे थे — वे हमारे ही गाँव के थे। "
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निधि कुछ कहने को हुई, लेकिन दीनदयाल बोलता गया —
“मैं जानता हूँ, मेरे पक्ष में कोई बिना स्वार्थ के नहीं बोलेगा। आज न्याय, ईमान और नैतिकता सब बाज़ार में हैं — और मेरे पास बेचने और खरीदने के लिए कुछ भी नहीं। मैं तो अपने घर के लिए ज़मीन तक नहीं जोड़ पाया…”
थोड़ा ठहरकर उसने गहरी साँस ली —
“व्यक्तिवाद अब विचारधारा नहीं रहा, वह एक ‘व्यवसाय’ बन चुका है। लोग अब नैतिकता पर नहीं, लाभ पर गठबंधन करते हैं। जब बहुत-से स्वार्थ एक दिशा में बहने लगते हैं, तो वह समूह बन जाता है — एक झूठा समूह, जो दिखता तो है 'जनता' की तरह, पर भीतर से केवल कुछ स्वार्थियों का गिरोह होता है।”
निधि की आँखों में चुपचाप आँसू उतर आए। उसने कुछ नहीं कहा। वह जानती थी, दीनदयाल हार नहीं मान रहा था — वह बस टूट रहा था।
-राजकपूर राजपूत
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