सुखमय जीवन कहानी -Happy Life Story

 Happy Life Story हेम सिंह जब भी ऋतुराज से बात करता, एक अजीब सा पछतावा दिल में उठता था। ऐसा लगता जैसे कुछ खो गया हो, कुछ ऐसा जो कभी उसका था, लेकिन अब उसकी पहुँच से बाहर हो गया हो। बातचीत करते समय उसकी मानसिक स्थिति असहज हो जाती, मानो कुछ ग़लत हुआ हो। ऋतुराज, उसका सहपाठी, जो कभी एक ही कमरे में किताबों में सिर घुसाए बैठा करता था, अब उसी कंपनी में साथ काम करने आ गया था। दोनों की पगार दस हजार रुपये थी, लेकिन कुछ समय बाद ऋतुराज ने अपनी अलग राह पकड़ ली। उसने अपनी मेहनत से कुछ साइड काम शुरू किए, और अचानक ही वो दौलत और सफलता की ऊंचाइयों तक पहुँच गया।

Happy Life Story

हेम सिंह को बुरा नहीं लगा, बल्कि उसने दिल से सोचा, "वो मेहनत कर रहा था, तो उसका फल मिलना ही था।" शायद यही बात थी जो उसे शांत करती थी, कि उसने अपने जीवन को अपनी सीमाओं में संतुष्ट होकर जीने की आदत बना लिया था। घर में भी शांति थी, परिवार में भी कोई शिकायत नहीं थी। वो जो था, उसी में खुश था। पर जब भी ऋतुराज का फोन आता, तो वह अपनी सफलता की झलकियाँ, अपनी नई खुशियाँ, अपनी संपत्ति और घर-परिवार के बारे में बात करता। और हेम सिंह, जिसे हमेशा से सादा जीवन जीने की आदत थी, चुपचाप उसे सुनता रहता। ऋतुराज का हाल सुनते हुए उसके मन में एक खामोशी होती, जो उसे सोचने पर मजबूर कर देती थी कि क्या वह भी कुछ अलग कर सकता था, क्या वह भी कुछ हासिल कर सकता था? ऐसे विचार आते ही वह अपनी वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट हो जाता था। उसे खुद में कई कमियाँ दिखाई देती थीं। वह पछताता, यही कि वह असफल है। यह भारी असंतोष और थकावट भर देता था।


दो तरह के विचार उसके मन में उभरने लगते थे। एक यह कि, "नहीं, मैं अपने परिवार के साथ सुखमय जीवन जी रहा हूँ, यही बहुत है। मेरे परिवार ने कभी शिकायत नहीं की। मुझे और क्या चाहिए?" लेकिन असंतोष कहीं न कहीं भीतर रह जाता था, जिससे उत्साह का संचार नहीं हो पाता था।


उस दिन भी ऋतुराज का फोन आया। स्क्रीन पर उसका नाम देखा और मन की कुछ बेचैनी से उसे रख दिया। उसकी बातों की यादें एक बार फिर उसके मन में घूमने लगीं। अब वह क्या बातें करेगा?


यह सब उनकी पत्नी (सुनंदा)ने देखा और बड़ी जिज्ञासा से पूछा,


"क्या हुआ, फोन क्यों नहीं उठा रहे हो?"


"कुछ नहीं, बस ऐसे ही... बाद में बात कर लूंगा।"


लेकिन इस त्वरित उत्तर के बावजूद, चेहरे पर एक गहरी उदासी का साया था।


"मेरे दोस्त का फोन है।"


"कौन?"


"ऋतुराज।"


"अच्छा, फिर क्यों नहीं बात कर लेते?"


"नहीं! अब वह सफलता के बाद बदल चुका है।"


"कैसे?"


"वह अब केवल उन लोगों को महत्व देता है जिनके पास पैसा है। बाकी चीज़ों में वह अब खुश नहीं रह पाता। अब उसके पास गाड़ी है, बड़ा सा घर है, और संपत्ति भी है। उसका यह मानना हो गया है कि जिस व्यक्ति के पास पैसा नहीं है, वह कभी वास्तविक सुख नहीं पा सकता। ऐसा लगता है कि मुझे सुना रहा है । "


"तो उसकी बातें तुम्हें थका रही हैं?"


हेम सिंह चुप हो गए। उनकी आँखों में कुछ था, जो शब्दों से व्यक्त नहीं हो सका।


"ऐसे लोगों को देखकर असंतुष्ट होने की आवश्यकता नहीं है। माना कि पैसों का बहुत महत्व है, लेकिन खुशी केवल पैसों से नहीं मिलती। उसने पैसा कमाया है, अपने शौक पूरे किए हैं, इसलिए वह ऐसा मानता है। लेकिन हमें तो परिवार चाहिए। वे लोग परिवार में खुशियाँ नहीं देख पाते, इसलिए उनकी सोच वैसी हो गई है। रात-दिन पैसा ।"

सुनंदा चिढ़ती हुई कही , "और अब तुम्हें भी लग रहा है!"


"

हमें जो कुछ भी मिल रहा है, वह बहुत है। हम किसी मुसीबत में फँसे नहीं हैं। अब तो तुम्हारा वेतन भी बढ़ गया है।"


"यह सब ठीक है, लेकिन मुझे लगता है कि मुझे और उन्नति करनी चाहिए थी, ताकि अपने दोस्तों के बराबर आ पाता।"


"अगर तुम दुनिया की परिभाषा में उलझोगे, तो अपनी असली परिभाषा भूल जाओगे। अगर कोई विकल्प है, तो उसे आज़मा कर देख लो। लेकिन याद रखना, दौड़ किसी से आगे निकलने की नहीं, बल्कि खुद को समझने की है।अपनी खुशियों को पहचानने की है । पहले ही सोच लेते तो अच्छा था । "


इतना कहकर सुनंदा अपनी बेटी को पढ़ाने लगी। शब्दों की मिठास में कभी-कभी डांट की तीखी गूंज भी घुल जाती, फिर वह उसी स्नेहिल स्वर में अपनी बेटी के साथ पाठ दोहराने लगती। यह दृश्य देखते ही हेम सिंह के अंतर्मन की उद्विग्नता जैसे क्षणभर को शांत हो गई। एक अबूझ सी अनुभूति भीतर उतर आई—शायद अब समझ पा रहा था कि जीवन वहीं है, जहाँ संतोष है; जहाँ अपनापन की ऊष्मा है; जहाँ परिवार की छाँव है। यदि इन सबसे परे जाकर केवल व्यस्तताओं में ही उलझे रहें, तो फिर ऐसी दौड़ का क्या मोल! यही सोचकर उसने एक गहरी साँस ली, मुस्कराया, और फिर अपनी बेटी के पाठ को अपनी पत्नी संग दोहराने लगा।

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