ख़ामोशी -एक दर्द कहानी Silence - a Sad Story

 Silence - a Sad Story वह न गूंगी थी, न बहरी। वह सुनती थी — हर शब्द, हर ताना, हर उम्मीद, हर उपेक्षा। उसकी आँखें पूछती थीं, पर उसकी ज़ुबान खामोश थी। वह कहना चाहती थी, बहुत कुछ — अपने मन का, अपने सपनों का, अपने दुःखों का… पर हर बार शब्द जैसे होंठों तक आते-आते कहीं गुम हो जाते थे।

कुछ रिश्तेदार और पड़ोसी बार-बार समझाते, जैसे उपदेश दे रहे हों —
"बोला कर, लड़की… आजकल बिना बोले कोई किसी को समझता नहीं!"
उन्हें क्या पता, वह कहना चाहती थी, पर कह नहीं पाती थी। उसकी चुप्पी कोई रोग नहीं थी, वह तो एक गहराई थी — अनुभवों से उपजी, भय से पगी, और अस्वीकार की आदत से बनी।

Silence - a Sad Story

उसकी खामोशी में भी एक भाषा थी, पर वह भाषा सुनने वाले कानों को चाहिए थी — जो किसी के भीतर की चीख़ को बिना शब्दों के भी समझ सकें। पर इस तेज़ रफ्तार दुनिया में, जहाँ हर भावना भी ज़ोर से कहनी पड़ती है, वहाँ उसकी ख़ामोशी एक बोझ बन गई थी।

दीपिका जीना चाहती थी, लेकिन उसे समझने वाला कोई नहीं था। वह दूसरों की इच्छाओं और अपेक्षाओं में कहीं भी फिट नहीं बैठ पाई। लोग कुछ कहने से पहले ही अपनी इच्छाएँ थोप देते थे। आजकल सब बोलने वाले हो गए हैं । मगर सुनने वाला कोई नहीं ।सबके पास तर्क है लेकिन फर्क यही है कि सिर्फ वही सही है । बाकी कमजोर । शादी की पहली ही रात मुकेश ने यह कहकर उससे बात नहीं की कि उसके माता-पिता ने उसे दहेज में गाड़ी नहीं दी।
मुकेश की बातों से दीपिका समझ गई थी कि वह इस बात को जीवन भर दोहराता रहेगा। उसे अपनाने में संकोच होगा। प्रेम प्राप्त नहीं होगा, बल्कि घृणा और नफ़रत ही मिलती रहेगी।
जब भी वह कुछ कहने की कोशिश करती या मुस्कुराना चाहती, तब पति का चेहरा और दहेज की बातें उसे चुप करा देतीं। मुकेश ऐसा चेहरा बनाता था, मानों कह रहा हो ,जैसे इस घर में उसके लिए हँसना मना है। उसकी बातों को हू-ब-हू घर के लोग कहते थे - सास ननद, जेठानी भी । उसका मुस्कुराता चेहरा धीरे-धीरे मुरझा गया।
उसने यह बात अपने मायके में कई बार बताने की कोशिश की, पर भइया-भाभी अपने छोटे से सुखी संसार में इतने व्यस्त थे कि उसकी आवाज़ कभी उनके दिल तक पहुँची ही नहीं। हर बार बस इतना कहकर टाल देते — "सब ठीक हो जाएगा, वक्त के साथ सब संभल जाएगा।" लेकिन वह वक्त कभी आया ही नहीं।

मां अब इस दुनिया में नहीं रहीं। पिताजी जैसे मौन हो गए थे — ना कुछ पूछते, ना कुछ कहते। शायद बेटे की खुशी, उसके साथ रहने की चाह, या बस मजबूरी ने उनकी ज़ुबान छीन ली थी। अब घर में सब कुछ भइया-भाभी का ही था — उनका बोलबाला, उनका निर्णय, और उनकी ही दुनिया।

उसके लिए मायका अब बस एक नाम था — एक बीता हुआ सपना, जिसमें अब उसके लिए कोई जगह नहीं बची थी। उपेक्षा की उस चुप्पी ने साफ़ कह दिया था कि अब वह इस घर की नहीं रही।

अब उसके लिए सिर्फ़ एक ही ठिकाना था — उसका ससुराल। वही घर, जहाँ हर दिन खुद को समेटना पड़ता था, जहाँ प्यार की जगह चुप्पी और सम्मान की जगह सहनशीलता ने ले ली थी। फिर भी वही उसका संसार था। वही उसका "घर" था — भले ही उस घर में जीना हर दिन मरने जैसा क्यों न हो।
कुछ सहेलियाँ तंज कसते हुए कहती थीं —
"तू कायरता का चोला ओढ़े जी रही है, या शायद उसी को जीवन मान बैठी है। इसलिए न कोई राह दिखाई देती है, न कोई दिशा। न तू प्रतिकार कर सकती है, न अपनी बात कहने का साहस जुटा पाती है। तेरे भीतर न कोई नयी भावना उमगती है, न कोई आशा ही जन्म लेती है। तू तो जैसे जीवन का स्वाद ही खो बैठी है — एक रसहीन, निर्वीर्य अस्तित्व।"

वे और भी कटाक्ष करतीं —
"तुम जैसे लोगों को समझाना व्यर्थ है। न अपना ठिकाना बना सकी, न अपनी राह पहचान सकी, और अब इतनी जल्दी माँ भी बन गई — क्या अब एक और जीवन को भी उसी अंधेरे में ले जाओगी?"
दूसरी कहती है — 'प्रायः मुझे यह अनुभूति होती है कि यह इनका अहं का विस्तार मात्र है। जो एक बार स्वीकार लिया, वही अंतिम सत्य बन गया है इनके लिए। परिवर्तन की संभावना को उन्होंने जैसे ठुकरा ही दिया हो। संभवतः इसी कारण हमारे शब्द उनके अंतर्मन तक पहुँच ही नहीं पाते। जिसके कारण प्रतिक्रिया नहीं देती है । ऐसे विषय और लोगों पर समय खर्च करना व्यर्थ प्रतीत होता है।'"

दीपिका बस निःशब्द उन्हें देखती रह जाती। जैसे उसकी आँखों में प्रश्न थे, पर होठों पर कोई उत्तर नहीं। वह न बोल पाती, न रो पाती — जैसे भीतर ही भीतर मर चुकी हो। एक जीवित देह, किंतु चेतनाहीन — मृतप्राय।
धीरे-धीरे उसकी खामोशी को सभी मुर्खतापूर्ण जीवन मानने लगे थे । लेकिन दीपिका तो जानती थी ।
उसके शरीर में प्राण बचे हैं, तो केवल उसकी एक साल की बेटी की वजह से। वही बेटी, जिसके साथ वह खेलती, हँसती और बातें करती थी। केवल वही थी, जिसने कभी उसके जीवन को कोई उलाहना नहीं दिया। बाकी सब… इतना सोचते ही वह अपनी बच्ची को गले से लगा लेती, आँखें भर आतीं। शायद इस गहरी आत्मीयता के पीछे उसकी बच्ची का निशब्द स्वभाव था।
पर भगवान भी उसकी बच्ची का प्रेम देख नहीं पाए। एक साल की मासूम बच्ची की क्या गलती थी, जो उसके दिल में छेद करके भेजा है?
एक दिन उसकी नन्ही बच्ची बेसुध रोए जा रही थी। न जाने उसे क्या तकलीफ़ थी — लाख समझाने-बुझाने, दुलारने की कोशिशें की गईं, मगर वह किसी भी तरह शांत नहीं हो रही थी। घर में बेचैनी फैल गई। आखिर सबने फैसला किया कि बच्ची को तुरंत अस्पताल ले जाया जाए।

दीपिका का दिल कांप रहा था। उसकी आंखों से आंसू थम ही नहीं रहे थे। वह फूट-फूटकर रोए जा रही थी। तभी मुकेश ने उसे तीखी नजरों से देखा, मानो कह रहा हो — 'अब बस करो!' और वह जैसे सहम सी गई। चुपचाप अपनी बेटी को गोद में उठाया और गाड़ी में बैठ गई।

गाड़ी कुछ ही दूर पहुंची थी कि अचानक दीपिका की चीख गूंज उठी — 'मुन्नी!' और वह एकदम से गाड़ी के अंदर मुंह के बल गिर पड़ी। सब कुछ थम सा गया। गाड़ी रुकवाई गई। मुकेश और साथ जा रहे लोग घबरा गए। किसी ने दीपिका को संभाला, किसी ने बच्ची को छुआ... बच्ची का शरीर बर्फ-सा ठंडा हो चुका था। समय जैसे ठहर गया था।

वहीं दीपिका का मुख दांतों से भींचा हुआ था। उसे खोलने का भरसक प्रयास किया गया, परंतु वह ज्यों का त्यों जकड़ा रहा। साथ चल रहे एक व्यक्ति ने धीमे स्वर में कहा —
“इसकी नाड़ी अब नहीं चल रही है... अब इसका मुख नहीं खोला जा सकता।”

रात्रि के सन्नाटे में एक अजीब-सी नीरवता उतर आई थी। मानो समय भी थम गया हो। चारों ओर बस झींगुरों की क्षीण सी आवाज़ें रह-रह कर उस चुप्पी को चीर रही थीं।

-राजकपूर राजपूत

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