खुशियों की तलाश The Search for Happiness Story

 खुशियों की तलाश The Search for Happiness Story जब मेरा स्वास्थ्य खराब हुआ, तो सारे रिश्तेदार कहने लगे — "यह भविष्य में कुछ भी काम नहीं कर पाएगा। इतनी कम उम्र में इतनी गंभीर बीमारी हो गई है, तो आगे कैसे संभलेगा? इसकी सेवा-जतन तो माँ-बाप को ही करनी पड़ेगी।"


सभी ऐसा सोचने लगे, और धीरे-धीरे मुझे भी लगने लगा कि अब मैं कोई काम नहीं कर पाऊँगा।

The Search for Happiness Story 

मुझे दमा हो गया था। डॉक्टर साहब ने कहा — "इसे धूल, धुएँ, बारिश और धूप से बचाकर रखना होगा। इन सभी चीजों से इसे एलर्जी है।"

डॉक्टर की बात सुनकर मुझे लगा कि आखिर मेरे लिए बचा ही क्या है ? जहां खुलकर जीऊं । सब चीजों से मुझे बचना है । 


बारहवीं कक्षा पास करते ही मुझे ऐसी बीमारी हो गई, जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। हमारे रिश्तेदारों में किसी को यह बीमारी नहीं थी — फिर मुझे कैसे हो गई? घरवाले भी सोच में पड़ गए, मैं भी । 


मैं स्वयं भी चिंतित था — यह सब मेरे साथ ही क्यों हुआ? जब दुनिया की ओर देखता, तो लगता — सब कितने खुश हैं। फिर यह बीमारी मुझे ही क्यों?


मन में बार-बार प्रश्न उठता — "भगवान! मुझे ही ऐसा क्यों कर दिया?" यह सोचकर दिल बैठ जाता।


जब पहली बार दमे का गंभीर दौरा पड़ा, तो पूरे घर में कोहराम मच गया। माँ-बाप, भैया-भाभी और मेरी बहन — सभी रोने लगे।

मुझे होश नहीं था। मेरी साँसें अनियमित थीं — कभी रुक जातीं, तो कभी उन्हें ज़ोर लगाकर लेना पड़ता। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी भी क्षण साँसें पूरी तरह बंद हो सकती हैं।


उस दिन पहली बार मृत्यु आसान लगने लगी थी।


सब लोग मेरे आसपास रो रहे थे, लेकिन मुझे उस समय उस रोने का पूरा एहसास नहीं हो रहा था। मेरी इन्द्रियाँ लगभग शून्य पड़ चुकी थीं। शरीर के अंगों तक ऑक्सीजन नहीं पहुँच पा रही थी, जिससे वे प्रतिक्रिया देना बंद कर चुके थे।


उस समय किसी के भी शब्द मेरे भीतर कोई हलचल नहीं जगा पा रहे थे। स्मृतियाँ जब कभी क्षीण रूप में लौटतीं, तो मन में एक असहनीय वेदना का ज्वार उठता। कान मानो संवेदना शून्य हो गए थे—सुनने की शक्ति जाती रही थी। यदि कुछ सुन पाता, तो शायद शरीर के अन्य अंग भी मस्तिष्क की आज्ञा मानते। परंतु जैसे चेतना का हर कोना सुन्न पड़ा था, वैसे ही तन के बाकी हिस्से भी निष्क्रिय और शिथिल हो चले थे।


शायद… मैं अब नहीं बच पाऊँगा — ऐसा सोचने लगा था।


दूर के रिश्तेदार तो मुझे जीते जी मृत मान चुके थे। कहते — "अब इसका जीवन भी एक बोझ बन जाएगा। यह कोई जीना है, जो हर बार ऐसे दौरों से गुज़रना पड़े?"


कभी-कभी तो मन करता कि भगवान ही मुझे अपने पास बुला लें।


लोग न जाने क्या-क्या कहकर मेरे हाथ-पैर दबा रहे थे। जब तक होश में था, मैं भी रो रहा था।

वे लोग मेरे अब तक के अच्छे व्यवहार और स्वभाव की बातें कर रहे थे — "कितना सीधा-सादा है। पढ़ाई-लिखाई के साथ घर के काम भी कर लेता था। कभी किसी काम से मुँह नहीं मोड़ा। हर बात में 'हाँ' कहकर मदद करता था।"


ऐसा लग रहा था जैसे कुछ लोग मेरी अंतिम विदाई की तैयारी कर रहे हों — जैसे किसी मृत व्यक्ति के लिए की जाती है।


माँ सरसों के तेल से मेरा शरीर गर्म कर रही थीं। उनका अडिग विश्वास था — "मेरे बेटे को कुछ नहीं होगा।"


माँ को देखकर मेरा मन करुणा से भर गया। मेरा हृदय भीतर-ही-भीतर चीख रहा था — "माँ!"

परंतु उस क्षण मेरी आवाज़ बाहर नहीं निकल सकी।


मैं मरना नहीं चाहता था। मेरे लिए तो माँ ही भगवान हैं — जो मेरी हर गलती को माफ कर देती हैं।


जब मैं बेहोश हो गया, तो माँ-बाप मुझे एक बड़े अस्पताल ले गए। जब होश आया, तो मैं घर पर था। डॉक्टरों ने मुझे नींद की गोलियाँ दी थीं और कुछ दवाइयाँ व परहेज बताकर घर भेज दिया।


अब मुझे दवाइयों के सहारे ही जीवन जीना है — यह बात मेरे लिए बहुत असहनीय थी। मैं भी सबकी तरह एक सामान्य जीवन जीने की उम्मीद करता था, जो अब शायद मुश्किल लग रहा था।


दिन बीतने लगे, लेकिन मेरे भीतर अवसाद गहराने लगा। ऐसा महसूस होता था कि मैं कभी भी कोई काम नहीं कर पाऊँगा।

जब माँ-बाप को देखता, तो मन में विचार आता — कब इनके लिए कुछ कर पाऊँगा? वे दिन-रात मेहनत करते हैं, और मैं...?

क्या मैं पूरी ज़िंदगी यूँ ही बोझ बनकर जीता रहूँगा?


नहीं... नहीं!

मैं गहरी सोच में डूब जाता था। धीरे-धीरे मैंने लोगों से मिलना-जुलना भी बंद कर दिया।


आख़िर एक दिन मेरा एक सहपाठी मुझसे मिलने आया। उसने कहा —


"मैंने भी बारहवीं के बाद पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी है। चलो, शहर चलते हैं। शहरों में काम की कोई कमी नहीं है। अभी से निकलेंगे तो ज़िंदगी थोड़ी सँवर जाएगी।"


मैं बोला — "हां, मैं भी सोच रहा हूँ। दवाइयाँ साथ रख लूंगा। जब कोई तकलीफ़ होगी तो खा लूंगा, लेकिन मेरे घरवाले तो जाने नहीं देंगे।"


वह बोला — "तो फिर पूछकर क्यों जाएंगे? चुपचाप निकल चलते हैं। शहर पहुँचकर फ़ोन कर देंगे — 'हमें मत ढूँढना, हम काम कर रहे हैं। जल्द ही कुछ कमाकर पैसे भी भेजेंगे।'"


मैंने उत्सुकता से पूछा — "ठीक है, तो कब चलना है?"


उसने जवाब दिया — "मैं बताऊँगा। शहर में कदम रखने के लिए किसी गांव वाले का सहारा ज़रूरी है। मैं पता कर रहा हूँ कि वहाँ हमें कुछ दिन कौन शरण दे सकता है।"


सब कुछ शेखर की योजना के अनुरूप ही हुआ। हम शहर आ तो गए, पर जो सपने आँखों में सँजो रखे थे, वे आते ही चटकने लगे। पहली ही साँस में महसूस हुआ — यह शहर हमारा नहीं है। जिस चीज़ से डॉक्टरों ने दूर रहने को कहा था, वही तो यहाँ की हवा में घुली हुई थी। धूल और धुआँ जैसे हर कोने से लिपटकर उसका स्वागत कर रहे थे। वातावरण में ऐसी अजीब-सी गंध थी, जो सीधे नथुनों में चुभ रही थी, और मन कहने लगा — क्या वाकई यही वह जगह है, जहाँ हमें नया जीवन शुरू करना था?


शाम होते-होते, शेखर उस आदमी का पता पूछते हुए वहाँ पहुँच गया, जिसके पास हमें जाना था। वही जगह थी जहाँ फैक्ट्री बनने वाली थी। उस इलाके का चौकीदार बाहर नशे में चूर, बेहोशी की हालत में पड़ा था।


मैंने शेखर से कहा, "क्या हमें ऐसे लोगों के साथ रहना होगा?"


उसने शांत स्वर में जवाब दिया, "जब तक किराए का मकान नहीं मिल जाता, तब तक यही ठीक है। इस पराए शहर में, जहाँ हमारी कोई पहचान नहीं है, हमें मकान किराए पर कौन देगा?"


उसकी बातें सुनकर मैं चुप हो गया। वह सच ही तो कह रहा था।


शेखर ने उसे जगाया। वह उसे देखते ही खुश हो गया। अपनी झुग्गी में ले गया। बोला, "मेरे गाँव का आदमी है। बहुत दिन हो गए हैं किसी को देखे हुए। बताओ, गाँव में सब ठीक है?"


"हाँ चाचा जी, हमारे लिए भी कुछ काम मिल जाएगा?" शेखर ने कहा।


"क्यों नहीं! अच्छे काम मिलने तक यहीं काम कर लेना। मुझे तो शराब पीने की आदत है, तुम लोग अच्छे से काम करना, तो फैक्ट्री का मालिक अच्छे काम में जरूर रख लेगा।"


हम दोनों ने हामी भर दी । 


मुश्किल से हफ्ता भर ही हुआ था कि शेखर कहने लगा —

"मुझे घर की याद आ रही है। मैं यहाँ नहीं रह सकता।"


"क्यों? घर से तो सपने सजाकर निकले थे। अब क्यों ऐसा कह रहे हो?"

"पता नहीं, दिल बैठा जा रहा है। गाँव और घर की बहुत याद आ रही है।"


मैं चुप हो गया। मेरा भी यही हाल था।

"लेकिन मैं नहीं जाऊँगा।"

वह चुप रहा।


मुश्किल से दो दिन ही हुए थे। काम का पैसा मिल चुका था।

सुबह-सुबह शेखर झुग्गी में अपने बैग में कपड़े जमा कर रहा था।

"कैसे ! बताया भी नहीं... सीधे घर जाने की तैयारी कर ली। अभी दो दिन का पैसा बाकी है। उसका क्या?

"दाबी है, हमेशा रुक ही जाएगा।"


लेकिन मुझे अच्छा नहीं लग रहा है... तुम्हारे जाने से।

"मैं भी तो कह रहा हूँ, तुम भी साथ चलो। यहाँ हमारा कोई नहीं है। गाँव के कुत्ते-बिल्ली भी अच्छे लगते हैं।"


भावुकता से भरे शेखर की आँखों में नमी साफ़ दिखाई दे रही थी।

"ठीक है, चलो, बस स्टेशन तक छोड़ आता हूँ।"

"नहीं, तुम काम पर जाओ। आखिर तुम्हें तो रुकना है। यहाँ पैसा कौन देगा?"

झुग्गी से निकलकर शेखर गली के मोड़ पर ओझल हो गया, लेकिन उसके जाने से मेरा मन बोझिल हो गया। काम में मन नहीं लगता था, फिर भी मैंने निरंतर काम किया, जिससे मेरे पास इतने पैसे इकट्ठा हो गए कि मैं किराए का मकान ले सकूं। 

गांव का वह आदमी, जिसके पास मैं ठहरा था, बहुत शराब पीता था, जिससे उसके परिवार में आए दिन झगड़े होते रहते थे। इसलिए मैंने किराए का मकान ढूंढना शुरू किया।

किराए के मकान में रहने के बाद मेरा अकेलापन और बढ़ गया। अब तो केवल किराया देने और घर का खर्च निकालने जितना ही कमाने लगा।

खाना खाने के बाद एक अजीब सी उनींदी मुझे घेर लेती — जैसे नींद और जागृति के बीच कोई मधुर खामोशी हो। कुछ भी करने का मन नहीं करता था। दरअसल, उनींदी भी एक तरह का सुख है — आलस्य का सुख। जिसे इसकी आदत लग जाए, वह मानो ब्रह्मानंद का अनुभव करता है।

पर जब पेट हल्का होता और उनींदी छंटने लगती, तब पछतावा होता — कि एक और दिन यूं ही बर्बाद हो गया।

दिन जैसे-तैसे कट रहे थे। कभी इस फैक्ट्री, तो कभी उस फैक्ट्री में काम करता रहा, लेकिन कोई काम दिल को नहीं भाया। फैक्ट्री एरिया भी ऐसा ही है — जहां बिना तन पर धूल, मन पर थकान और आँखों में धुआँ भरे कोई काम संभव नहीं। धूल और धुएं की तो अपनी ही दुनिया है — हर साँस में एक बोझ, हर दिन में एक थकान।


दिन कब बीत गया, पता ही नहीं चला। और अब होली भी नज़दीक आ गई — यह तो फैक्ट्री में लोगों की बातों से मालूम हुआ। कोई कह रहा था, "बच्चों के लिए नए कपड़े लेने हैं", तो कोई बोला, "दो-चार पैसे तो ले जाने ही पड़ेंगे, गांव में महीना भर आराम से रहूंगा।"

उनकी बातों में उमंग थी, एक अपनापन था... और तभी एक टीस-सी उठी दिल में — मुझे भी तो गांव जाना है, पर... जेब खाली है। क्या लेकर जाऊंगा वहां? क्या मुंह दिखाऊंगा अपनों को? खाली हाथ जाऊं, तो कैसी होगी उनकी निगाहें?


नहीं, ऐसे नहीं चलेगा। मुझे और मेहनत करनी होगी, मन लगाकर काम करना होगा। ताकि जब घर जाऊं, तो आंखों में शर्म नहीं, गर्व हो। जो अपनापन मुझे फोन पर मिलते कुछ शब्दों में महसूस होता है — वो यूं ही नहीं है, वो मेरे परिश्रम की पहचान है। मैं उनके भरोसे पर खरा उतरना चाहता हूं।

होली नज़दीक आ रही थी, और मन में एक अनजाना डर समाया हुआ था — त्योहार पर खाली हाथ घर जाना कैसे मंज़ूर होता! मैंने तय कर लिया कि अब ओवरटाइम करूंगा, चाहे जितनी थकान हो। डबल हाजिरी मिलेगी, और शायद महीने भर में पाँच-छह हज़ार रुपये जुटा पाऊँगा। उतना काफी होगा घर लौटने और फिर से शहर आने का किराया बचाने के लिए।घर वालों के लिए भी तो कुछ देना होगा । 


बारह घंटे की ड्यूटी के बाद बारह घंटे का ओवरटाइम — ये सौदा मैंने मंजूर कर लिया। थकान तो थी, पर अब उसे सोचने की फुर्सत किसे थी। जो उनींदापन पहले खाने के बाद दबे पांव आता था, वह अब काम की धुन में कहीं गुम हो गया था।


२४ घंटे बीते, फिर ४८... लेकिन नींद जैसे आँखों से रूठ गई थी। साथी मुझसे कहते रहे — “अब बस कर, थोड़ा आराम कर ले, नहीं तो लेने के देने पड़ जाएंगे।” पर मेरे कानों में जैसे कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था। मेरी ज़रूरतें, मेरा सपना — सब मेरी पलकों पर भारी थे।


७२ घंटे काम करने के बाद, जैसे ही खाने की थाली रखी और उठने को हुआ, आँखों के सामने अंधेरा छा गया। किसी तरह दरवाज़ा बंद किया और ज़मीन पर ही ढेर हो गया। बिस्तर की याद तक नहीं रही।


जब नींद टूटी तो देखा — सुबह के ग्यारह बज चुके थे। आज की ड्यूटी तो गई... लेकिन उस नींद में एक सुकून था, जो शायद कई दिनों से मुझसे बिछड़ा हुआ था।पूरे शरीर की थकावट मिटा दी । 


अब महसूस होने लगा था कि अगर यूं ही दिन-रात काम करता रहा, तो शरीर साथ छोड़ देगा। थकान हड्डियों में उतरने लगी थी। बीमारी का डर था, पर उससे बड़ा डर था सपना अधूरा रह जाने का।

इसलिए मैंने तय किया — 48 घंटे का काम ही काफी है।

जब मेहनत की कमाई हाथ में आई, तो दिल भर आया। वो नोट नहीं थे, मेरी तपस्या का फल था। ऐसा गर्व पहले कभी नहीं महसूस हुआ था। लगा जैसे मैं भी इस शहर की भीड़ में अपनी जगह बना चुका हूं।

अब घर लौटने की बारी थी। मां की ममता, पिता की परछाईं, बहन की मुस्कान — सब आंखों के सामने घूमने लगे। घरवालों के लिए कुछ चीज़ें खरीदीं, जो महंगी तो नहीं थीं, लेकिन उनमें मेरे जज़्बात छुपे थे।

बस पकड़ी — और दिल धड़कने लगा। हर मोड़ पर लग रहा था, अब बस थोड़ा और... अब बस घर आ ही गया।

मां से मिलूंगा... उनके हाथों में पैसे रखूंगा... और देखूंगा वो सुकून जो किसी मंदिर में भी नहीं मिलता।

गांव की पगडंडियां, बस्ती की गलियां, पीपल का पेड़, सब जैसे मुझे पुकार रहे थे — 'आ जा बेटा, तेरा इंतजार है।'"


जो प्यार नियमित उपस्थिति में महसूस कर नहीं पाते हैं, वो दूरी पर अहसास होता है । वहीं बस्ती, तालाब, लोग, सब मुझे देख रहे थे । 


कभी-कभी जो प्यार पास होकर भी समझ नहीं आता, वही दूर जाने पर रूह तक को छू जाता है। वो बस्ती... जहाँ हर मोड़ पर कुछ छूटा था, वो तालाब... जिसकी लहरों में बचपन की हँसी थी, और वो लोग... जिनकी नजरें जैसे मुझसे कुछ कह रही थीं—"तू लौट आया?"


घर की देहरी पर कदम रखते ही माँ दौड़ी आई। उसके हाथों में थाली थी, पर आँखों में आँसू। काँपते हाथों से आरती उतारी, और जैसे उसकी सांसें लौट आई हों। उसका बेटा अब ठीक है। अब वो कमजोर नहीं रहा।

उसने मुझे वैसे ही खाना खिलाया जैसे बचपन में—हर कौर में दुआ, हर निगाह में ममता।


पिताजी कुछ नहीं बोले। बस मुझे देर तक देखा। उनकी खामोशी कह गई—"अब तू जी सकता है, बेटा। अपने दम पर। न किसी सहारे की जरूरत, न किसी बोझ की छाया।"


वो घर, वो आँखें, वो स्पर्श… सब कुछ जैसे कह रहे थे—अब तू पूरा है।

जिसे पाने की चाह में अब तक भटकता रहा, वो सुकून आखिर मिल ही गया। माँ की ममता भरी गोद और पिता की चुप आशीर्वाद भरी निगाहें… यही तो वो खुशियाँ थीं, जिन्हें मैं जीवन भर ढूँ

ढ़ता रहा। अब हर साँस में एक नयी ताक़त है, हर कदम में एक नई दिशा—क्योंकि अब मैं अकेला नहीं हूँ, उनके विश्वास के सहारे हूँ।


-राजकपूर राजपूत 



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