आमंत्रण और निमंत्रण - रिश्तों का Invitation and Invitation - of Relationships नीलेश के जीवन में दो ही घनिष्ठ मित्र थे — मयंक और देवेश। तीनों की मित्रता कॉलेज के दिनों की अमूल्य देन थी। जब नीलेश का विवाह संपन्न हुआ, तो दोनों मित्र हर्षोल्लास के साथ उपस्थित हुए। जो भी संभव था, उन्होंने पूरे मनोयोग से स्वागत-सत्कार किया। हास्य-व्यंग्य, ठिठोली और मधुर स्मृतियों की फुहारों से वह अवसर सजीव हो उठा। नीलेश ने उन्हें सच्चे अर्थों में अपने समकक्ष माना, कोई भेदभाव न रहा। उसके माता-पिता ने भी उन दोनों को पुत्रवत स्नेह और सम्मान प्रदान किया। आत्मीयता की उस बेला में परायापन कहीं दूर छूट गया।
Invitation and Invitation - of Relationships
देवेश के विवाह का निमंत्रण-पत्र जब नीलेश के हाथों में पहुँचा, तो उसके हृदय में सहर्ष एक मधुर तरंग सी उठी। उसने तुरंत मयंक को फ़ोन लगाया। मयंक ने भी बताया कि उसके यहाँ भी पत्र पहुँच चुका है।
नीलेश ने उल्लासपूर्वक कहा, "चलो, इस शुभ अवसर पर हम साथ चलेंगे।"
परंतु मयंक ने संयत स्वर में उत्तर दिया, "मुझे एक दिन पूर्व ही जाना होगा।"
नीलेश ने कुछ विस्मय और कुछ संकोच के साथ कहा, "एक दिन पहले जाकर क्या करोगे? तुम भी रुक जाओ, साथ चलना अच्छा लगेगा।"
मयंक ने शांत भाव से उत्तर दिया, "देवेश ने मुझे विशेष रूप से एक दिन पहले आने को कहा है, अतः जाना तो पड़ेगा ही।"
नीलेश थोड़ी देर चुप रहा, फिर धीमे स्वर में बोला, "मुझे तो ऐसा कुछ नहीं कहा गया... फिर भी, यदि तुम जा रहे हो, तो मैं भी एक दिन पहले ही पहुँच जाऊँगा।"
मयंक ने इस पर कुछ नहीं कहा। उसकी चुप्पी में मानो कई अनकहे भाव अटके रह गए थे — न स्पष्टीकरण, न विरोध — बस एक गहरा मौन।
जब नीलेश मयंक के घर पहुँचा और देवेश की शादी का निमंत्रण-पत्र देखा, तो उसके मन में एक हल्का-सा खटक उठा। कार्ड की बनावट, काग़ज़, छपाई — सब कुछ अलग था। उसके पास जो कार्ड आया था, वह साधारण था, जैसे औपचारिकता निभाने के लिए भेजा गया हो।
नीलेश ने कुछ नहीं कहा, बस मन ही मन सोचा — शायद कार्ड कम पड़ गए होंगे... या फिर जल्दबाज़ी में गलती हो गई होगी। कोई बात नहीं... दोस्ती में क्या तौल-मोल?
शादी के दिन जब वह मयंक के साथ देवेश के घर पहुँचा, तो सामने से देवेश दौड़ता हुआ आया। उसके चेहरे पर चमक थी, आँखों में उत्साह।
वह सीधा मयंक की ओर बढ़ा और गले से लिपट गया, मानो बरसों बाद कोई अपना मिल गया हो।
नीलेश कुछ कदम पीछे ही खड़ा रह गया — मुस्कराता हुआ, पर भीतर कुछ चुपचाप पिघलता हुआ।
थोड़ी देर बाद, उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा,
“हमें भी पहचान लिया करो यार...”
देवेश जैसे किसी भाव में से चौंककर बाहर आया। उसने नीलेश की ओर देखा, और वह आगे बढ़ा, नीलेश को गले लगाया —
“अरे! नीलेश... कैसे भूल सकता हूँ तुझे?”
पूरी शादी के शोर-शराबे और रौनक के बीच नीलेश खुद को कहीं एक कोने में अकेला और उपेक्षित महसूस कर रहा था। देवेश कभी-कभार पास आकर बैठ तो जाता, लेकिन उसके व्यवहार में वह आत्मीयता नहीं थी, जो कभी उनकी दोस्ती की पहचान हुआ करती थी। कुछ पल रुकता, फिर जैसे किसी अदृश्य खिंचाव से अचानक उठकर चला जाता।
देवेश के चारों ओर उसके कई दोस्त मंडराते रहते — कोई राजनीति की दुनिया में सक्रिय था, कोई सरकारी नौकरी में, तो कोई किसी प्रतिष्ठित निजी कंपनी में कार्यरत। उन्हीं के बीच वह पूरी तरह रमा रहता, जैसे नीलेश की उपस्थिति उसके लिए कोई विशेष अर्थ नहीं रखती।
नीलेश के भीतर कहीं गहरे यह भावना घर कर गई थी कि वह अब उस दोस्ती में प्राथमिकता की सीढ़ी पर सबसे नीचे खड़ा है। उसे अब यह साफ़ समझ आने लगा था कि उसे शादी में बुलाया तो गया है, पर बुलाया गया है ‘आमंत्रण’ देकर — वह अपनापन और सच्चा निमंत्रण किसी और के हिस्से आया है।
वह भीतर-ही-भीतर यह सोचकर पछता रहा था कि काश वह भी देवेश के दूर के रिश्तेदारों की तरह सिर्फ औपचारिकता निभाने आता — कुछ क्षण रुकता, एक मुस्कान बाँटता और लौट जाता — न कि एक दिन पहले, मन में पुराने दिनों की उम्मीद लिए।
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- राजकपूर राजपूत
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