Clever People Story गांव से जब बस में बैठा, तो वह खाली थी । एक्का दुक्का लोग बैठे थे । सीटें खाली थी । जैसे ही कुछ दूर गया तो भीड़ बढ़ती गई ।
कन्डेक्टर सवारियों को ठूंसे जा रहा था । बैठने की जगह तो छोड़ो खड़ा होने के लिए नहीं थी । फिर भी वह रास्ते पर बेग धरे लोगों से पुछता था ।
Clever People Story
"कहां जाना है । "
नहीं, कहकर इंकार करने के बाद ही बस को आगे बढ़ाते थे । उसे सवारी ज्यादा चाहिए ।
भगवान जाने टिकट कैसे काटेंगे । बस के अंदर इधर-उधर देखने में तो दिक्कत हो रही है और ये...बालाराम , अपनी बेटी के साथ सीट पर आराम से बैठे-बैठे सोच रहा था ।
बस के भीतर लोग पिचके हुए खड़े थे । जैसे ही बस उछलती, लोग उछल जाते थे । ब्रेक लगाने पर तो सीट की ओर आकर गिर जाते थे । ये सिलसिला बीच-बीच में चलता रहता था ।
तभी कहीं से सबको पार करती हुई एक महिला आई, जिसकी उम्र छब्बीस की रही होगी। उसके बाल छोटे-छोटे थे और वह सलवार सूट में थी। देखने से वह बहुत पढ़ी-लिखी जान पड़ती थी। शायद वह रायपुर शहर की होगी, उसके पहनावे और आत्मविश्वास से यह अनुमान लगाया जा सकता था।
बालाराम के पास आकर कहने लगी -
"बाबू जी सीट मिल जाएगी क्या ? मैं चार महीने पेट से हूं । "
सीट छोड़ने की इच्छा नहीं थी, लेकिन महिला काफी परेशान दिख रही थी। बस हिचकोले खा रही थी और आगे लंबा सफर था। उसे गरियाबंद जाना था, जो दो सौ किलोमीटर दूर है। अभी तो बस छूटी हुई थी। बालाराम अखंड देहाती था, उसके पहनावे से पता चलता था। गले में गमछा और चेहरा थोड़ा पिचका हुआ, उम्र पचास साल हो गई थी। उसकी देहाती सादगी और अनुभवपूर्ण चेहरा उसके अनुभव और जीवन की कहानियों को बयां कर रहा था।
उसने उस महिला की बातों पर ध्यान नहीं दिया । वो फिर से बोली - "मुझे रायपुर जाना है । "
उसकी आंखों में विवशता साफ दिखाई दे रही थी । दयनीय भाव के साथ फिर बोली
"
प्लीज़, बाबू जी । "
अंततः बालाराम का हृदय पिघल गया । जबकि वह "प्लीज़ " जैसे शब्दों को जानता भी नहीं था । अपनी सीट उस महिला को दे दिया और खुद खड़े हो गए ।
महिला ने सीट को अच्छी तरह से टटोला और साफ किया । उसने पर्स से फोन निकाला और किसी को कहा
"
आ जाओ ! सीट मिल गई है । तुम्हारे लिए भी एक सीट खाली करवा दूंगी । "
उसके पति थे या प्रेमिका, कह नहीं सकता लेकिन वे दोनों एक-दूसरे को देखकर काफी खुश ज़रूर थे ।
"
मैंने पहले भी कहा था । सीट मिल जाएगी । कुछ उपाय कर लूंगी और देखो । "
उनके इस तरह से हंसने और खुशी मनाते देख, बालाराम से देखा नहीं गया ।
उसने कहा -
"
अभी उठो ! मेरी सीट पर से । ये जगह मेरी है । "
"
काहे की सीट । जो बैठ गया है , ये उसी की है । समझें । "
इस तरह के जवाब से वह आश्चर्यचकित हो गया । लोग कितने चालाक हो गए हैं । इनके मुंह लगना ही बेकार है । उसने अपनी समझदारी दिखाई , लेकिन कुछ दूर जाने पर उसकी बेटी भी खड़ी मिली । अपनी पुरानी सीट पर ध्यान दिया तो वह महिला अपने साथी के साथ सीट पर बैठी थी । उसकी लड़की उस भीड़ में उसे ढूंढते हुए आ गई ।
"
पापा, मेडम ने मुझे भेज दिया । तुम्हारे पापा वहां खड़े हैं । जाना चाहोगी तो जाओ । मुझे अच्छी नहीं लगी,, वो मेडम जी ।"
बालाराम को पक्का लगने लगा कि यह महिला बददिमागी है। वह महिला की बातों और व्यवहार से परेशान हो गया था और उसे लगता था कि वह महिला सही नहीं है। बालाराम की धारणा महिला के बारे में और भी नकारात्मक हो गई ।
वह अपनी बच्ची को गले लगाकर सफर करने लगा। उसकी बच्ची के चेहरे पर मुस्कराहट थी, और वह अपने पिता के साथ सुरक्षित महसूस कर रही थी। जिसे उस महिला से कोई मतलब नहीं है न ही बस की सीट से ।
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