मकान बनाते हुए मजदूर - कविता

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 मकान बनाते हुए

मजदूर

ईंट  को ईंट से नहीं जोड़ते हैं

गारा को मथते नहीं

वो तो जोड़ते हैं

अपनी हाजरी

अपनी रोजी

अपने अधूरे अरमान को

सजाने के लिए

सपने

जो छोड़ आए हैं

गांव में

घर में

एक अधूरे अरमान को

जिसे पूरा करने के लिए

दूसरों का मकान बनाना पड़ता है

इसी उत्साह से कि

इन्हीं बड़े मकानों से

उसके छोटे अरमान पूरा होगा !!!!

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धूप की तपन 

ठंठ की कपकपी 

सबकुछ जायज है 

मजदुर के ख़्वाब 

पुरे करने के लिए !!!


किराए का मकान लेते हैं मजदूर

गांव से दूर

शहर में

वो अपना मकान नहीं बनाने जाते हैं !!!

तेरे शहर आए गए

तो ये मत समझना

बोरी भर पैसे ले जाएंगे

हम तो बोरी समेटेंगे और

जेब में चंद पैसे ले जाएंगे !!!!

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