मेरे शब्द जो निकल नहीं पाएं कभी हृदय से

मेरे शब्द 

poem of love

 मेरे शब्द

जो निकल नहीं पाएं

कभी हृदय से

कभी-कभी कचोटता है

भीतर ही भीतर

किसी नासूर की तरह

रिसता है मेरा दर्द

तेरे सामने

पसीज कर

लेकिन तुम

समझ नहीं पाएं कभी

मेरे भीतर के शब्दों को

फिर भी मैं

टटोलता हूॅं

तेरे भीतर

मेरे अनकहे

शब्दों के अर्थ को

कभी स्पर्श कर पाओगे

तुम !!!!!

poem of love

मेरे शब्द

तुम्हारे प्रति

अनकहे

जिसे कहने के लिए कोशिश की

जो मौन होकर

तुम्हें देखने लगता है

तुम समझोगे

मेरे अनकहे शब्द

इसी अपनापन के अहसास में

इंतजार में है

मेरा मौन !!!


मैं जब भी मौन हुआ

ऐसा लगा

जैसे तुम समझ जाओगे

मेरे मौन को

सहला दोगे

अपने मौन सहमति से

इसी उम्मीद में

तेरे पीछे हूं

उचित न्याय होगा

तुम्हें भी अहसास होगा

मेरे भीतर के अनकहे

शब्दों को

समझकर

स्वीकारोगे

मेरे मन के भाव को !!!!

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-राजकपूर राजपूत 


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