man's identity poem
वापसी मुमकिन नहीं अब
आदमी की पहचान नहीं अब
चंद पैसों के खातिर बिक रहे हैं
पहले जैसे ईमान नहीं अब
दिमाग से संवेदना खत्म हुई
किसी के दिल में धड़कन नहीं अब
मुमकिन है वो हॅंस के बातें करें
उसकी झूठी हॅंसी में जान नहीं अब
बरसों से रिश्ता था उसका मेरा
सियासत में जान-पहचान नहीं अब
रिश्ते सम्हालते टूट गए मगर सम्हला नहीं
सम्हलें रिश्ते अरमान नहीं अब
उसने समझदारी की बातें की है
मतलब बिना पहचान नहीं अब
उसकी शिकायत है हम बुरे हैं
आदमी की पहचान नहीं अब
उसे आरोप लगाने की आदत है
तारीफ़ मिले ऐरे गेरे से ऐसा अरमान नहीं अब
उसकी तीखी बहस बताती है
मुर्ख है विद्वान नहीं अब
बिक जाएंगे चंद पैसों से
किसी के दिल में ईमान नहीं अब !!
समय नहीं बदलता
दिन नहीं बदलता
रात नहीं बदलती
सूरज नहीं बदला
चांद नहीं बदला
लेकिन बदल लिए हैं
खुद को इंसान
जरूरतों को बढ़ा कर
जितने बस में थे
विचार से लेकर प्रकृति तक
उसके छेड़छाड़ करने का प्रयास
सफल हुआ है उसकी सहुलियत में !!!
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1 टिप्पणियाँ
Sundar
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