खुशियां

जग्गू के पास जमीन- जायदाद बहुत था। फिर भी वह बहुत ही कंजूस आदमी था। उसकी ये सारी दौलत पैतृक सम्पत्ति थी।जिसे वह अच्छी तरह से सम्भाले थे।अति आवश्यक जरूरतों को भी फिजूलखर्ची कहते थे।उसका मानना था कि धन-दौलत कमाने से ज्यादा सम्भालने में इकट्ठा होती है।वह जुता केवल ऊबड़-खाबड़ में ही पहनते थे।बराबर जमीन पर उसे हाथों में रख लेते थे सब्जी कम ही पकवाते। अक्सर वो टमाटर -मिर्च पीस कर ही खा जाते थे।कई और ऐसी आदतें थी जिस पर उसकी पत्नी अक्सर लड़ती।वह कहती कि समय बदल गया है और तुम नहीं बदले। गांव के पड़ोसी भी उसे कई बार चिढ़ाते थे। लेकिन करती भी क्या..?पति के सामने उसकी एक ना चलती थी।जब उसके पिता जी (ससुर) जीवित थे। उस समय सुरेखा कुछ नहीं बोलती थी। लेकिन आज चार साल हो गए हैं। पिता जी को गुजरे। सुरेखा कई बार समझाती कि त्यौहारों में कम से कम नए कपड़े-लत्ते खरीद लेते।चार पांच सालों से एक -दो कपड़े ही पहनते हो। मेरे पास भी ढंग की साड़ी नहीं है।छोटू भी अब बड़ा हो रहा है।वो भी उस दिन जिद कर रहे थे। उसके सभी दोस्तों के पिता जी ने नए-नए कपड़े-लत्ते खरीदें है।जिसे देखकर वे बुरा महसूस करते हैं।
इन बातों का जग्गू पर कुछ भी असर नहीं होता था।उसको अपनी आदतों से खुशी मिलती थी। मेहनत कम भले कर लो लेकिन पैसा बचा लो।
दीपावली का पर्व आने वाला था। सभी बच्चों के चेहरे पर खुशियां थी। सभी अपने-अपने पिता जी से कई तरह के पटाखे फुलझडियां और नये कपड़े मंगवा लिए थे।जब सभी बच्चे एक जगह इकट्ठा होते तो अपने-अपने पटाखों और फुलझडियों के बारे में ही बात करते थे। बात करते समय सबके चेहरे पर चमक बिखर जाती थी। दीपावली के समय आने वाले मज़ा को सोच-सोच बहुत प्रफुल्लित हो जाते ‌‌‌थे। लेकिन वही खड़े छोटू के चेहरे में कोई खुशी नहीं थी।वह उदास था। क्योंकि वह जानता था कि उसके पिता जी कुछ भी नहीं देंगे।छोटू के एक-दो दोस्त अपने साथ खेला लेते थे। लेकिन उसे इस पर खुशी नहीं होती थी।हर साल दूसरों की खुशी में खुशी मनाना।
घर आते ही छोटू अपनी मां से कहा-"इस बार मेरे लिए भी पटाखे- फुलझडियां खरीद कर लाने के लिए कहना मां।सबके पिता जी कितने महंगे पटाखे -फुलझडियां खरीदे हैं।"
"ठीक है,बोल दूंगी"मां ने कहा। और सोचने लगी। शायद जग्गू इस बात को समझ पाऐ कि दूसरो को देखकर सबकी इच्छा जाग जाती है।
बात ही कर रहे थे कि जग्गू घर पर आ गए।आते ही पूछा-"क्या हुआ..! मां-बेटे में कौन सी बात चल रही है।"
बस पटाखे और फूलझडियों की मांग है।छोटू जिद कर रहा है।"सुरेखा ने कहा।
यह सब सुन कर जग्गू अपने बेटे के पास गया और समझाने लगा।
"देख बेटा तुझे मजा ही लेना है ना"
"हां"
"वो तो तुम ऐसे ही ले सकते हो।जब कोई पटाखा फोड़ेंगे तो तुम भी उसके साथ बैठ जाना।जब वो भागेंगे तो तुम भी भाग जाना। तुम समझना कि फटाखा मैंने फोड़ा है..!खुशी,सोच ही तो है।जिसे तुम मान के भी ले सकते हो। इससे हमारे पैसा भी बच जाएंगे और मजा भी आ जाएगा। परसों धनतेरस है। ऐसे ही तुम करना।"
ये सब सुनकर छोटू उदास हो गया।वो कुछ नहीं कह सका। चुपचाप वहां से चले गए।
सुरेखा ये सब देख रही थी।उसे जग्गू के इस व्यवहार से आश्चर्य नहीं लगा।वह सोचने लगी कि इसे कैसे समझाऊं।छोटू बहुत कुछ समझ रहे थे।अब उसके अंदर भावनाओं की शुरुआत हो चुकी है।कही हम लोगों को बुरा ना मान ले।उसकी खुशी का ध्यान हमें ही तो रखना है लेकिन ये है कि कुछ समझते ही नहीं।
इसी की चिंता करने लगी। कुछ देर सोचते रहे और कुछ सोचने के बाद मुस्कुराई और सोच पक्की की।
दीपावली के समय में ही कुछ धान के फसलों को काटने का काम शुरू हो जाता है। इसलिए सुरेखा भिनसार ही उठ गई। जल्दी जल्दी खाना पकाई। जल्दी से नहा धो कर आ गई।जग्गू और अपने बेटे को खाना खाने के लिए बोली।जग्गू और छोटू चटाई पर बैठ गए।छोटू के थाली में चांवल-सब्जी और जग्गू के थाली खाली थी।ये सब देख के जग्गू को आश्चर्य हुआ।
"ये सब क्या है..?मेरी थाली खाली क्यों है.?
बचत,इससे हमारी बहुत बचत हो जाएगी।आज से हम दोनों छोटू को ही खाते देखेंगे।हमारी भी भूख मिट जाएंगी।"
"कैसे मिटेगी"थोड़ा गुस्सा करते हुए कहा
भूख भी तो सोच है। दुसरो को देखने से हमारी भी कम हो जाएंगी।देखो ना,आज कितना चांवल बच गया है।आज इतना बचा है।दो-चार दिनों में कितना बच जाएगा।..!कभी इस पर भी सोचे हो।"
"मैं कुछ नहीं जानता। दुबारा ऐसा काम मत करना।दो-चार दिन में हम लोग मर जाएंगे।"
अपनी खिन्नता दिखाते हुए जग्गू खेत चले गए।कम से कम पेट तो भरना ही चाहिए।चाहे चटनी के साथ चांवल खाओ या सब्जी के साथ।जग्गू सोच रहा था। दोनों खेत में चुपचाप धान काटने लगे।जग्गू को बहुत भूख लग रही थी। जिसके कारण वह काम पर मन नहीं लगा पा रहे थे। सुरेखा के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी।कई बार उसे अपनी हंसी रोक देनी पड़ती थी। कहीं जग्गू नाराज़ ना हो जाए।
इधर जग्गू सोचते कि मैंने कौन सा गलत काम किया है। आखिर बचत तो सभी के लिए है।क्या मेरे अकेले का है, ये धन दौलत। सुरेखा की मुस्कान समझ रहा था।
"क्यों मैं गलत हूं"बड़े मासुमियत भरे सवाल सुरेखा से पूछा। उसके इस तरह के सवाल से सुरेखा का हृदय में दया आ गई।
"नहीं,मैं मानती हूं कि यदि केवल कमा- कमा के धन -दौलत इकट्ठा करेंगे और उसका सही उपयोग नहीं कर पाए तो फिर क्या फायदा? आखिर कमा रहे हैं किसलिए..?सभी जगह गलत नहीं हो..! इन्हीं धन दौलत से खुशियां खरीदते हैं।"
"तो क्या तुम लोग मुझसे परेशान हो..!
"कौन कह दिया कि परेशान है..! आप बुरे भी नहीं। बुरी संगति भी नहीं और आदत भी बुरे नहीं।बस थोड़ी सी...!"
"बस, बहुत हो गया"
जग्गू बुरा मान रहा था। हंसिया खेत में ही फेंक दिया और पेड़ के नीचे रखें पानी के पास आ गया और सोचने लगा कि मैं सचमुच बुरा हूं। मेरे सोच गलत है और पास रखें पानी को पीने लगा। तभी सुरेखा ने आवाज दी
"एक पन्नी में गुड़ और रोटी है।खा लो।'"
जग्गू जब झोला खोला तो उसे एक पन्नी में गुड़ और रोटी मिल गया। लेकिन खाया नहीं। चुपचाप वही रख दिया और सोचने लगा कि सचमुच मैं बुरा हूं। किसी के खुशी के बारे में सोच नहीं पाता हूं। अपने ही सोच को सभी पर थोप देता हूं। सुरेखा मेरे बारे में कितनी सोचती है। और मैं...!
कुछ देर बैठे रहे। फिर घर चला आया।इधर सुरेखा का भी मन नहीं रहा वो भी आ गई।
घर आ के देखती है कि जग्गू नहीं है। कहां गए...? अनजान भय से हृदय डरने लगा। मुझे ऐसे नहीं कहने चाहिए थे। कहीं बुरा मान के चले गए..! आसपास पड़ोसियों के यहां पता लगाया लेकिन किसी को कोई खबर नहीं । और छोटू भी नहीं है..! आखिर ये दोनों गए तो गए कहां..?बस अब सुरेखा गली को ताकने लगी।भय और चिंता के कारण खाना भी नहीं बना पाई। कुछ देर बाद छोटू अपने पिता के साथ आते दिखे। सुरेखा के चेहरे खिल गई। पास आते ही छोटू को गले से लगा लिया।
सुरेखा को पूछने की जरूरत नहीं थी।जग्गू ने छोटू को एक फूलझडी दिया और उसे जलाने के लिए कहा।जिसे जलाकर छोटू बहुत खुश हुआ।उसकी खुशी देखकर सुरेखा भी बहुत खुश थी। और उन दोनों को देखकर जग्गू।आज अपनी खुशी को छोड़कर दुसरो की खुशी में आंनद लेना सीख गए थे।उस दिन से जग्गू अपने आप को बदल दिया।जिसे देखकर सुरेखा और छोटू बहुत खुश थे।
____राजकपूर राजपूत "राज"
          बेमेतरा, छत्तीसगढ़
खुशियां


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