बिना पते की चिट्ठी-भाग पन्द्रह Letter Without Address - Part Fifteen नंदा देवी उसकी चाहत देख कर कुछ नहीं बोली। वह उसके बालों पर हाथ फेरने लगी और सोचने लगी कि शायद वह उसकी चाहत को कम नहीं कर पाएगी। उसने अपनी तरफ से कोशिश की, मगर सफल न हो सकी।
वह जोहन से इतना प्यार करती है, तो क्या जोहन भी उससे उतना ही प्यार करता है? कहीं मेरी फूल-सी बच्ची को बहला-फुसलाकर तो नहीं रखा है? वह इन्हीं विचारों में डूबी थी कि अचानक उसे याद आया—उस दिन अपने पति धनुष से बातें हुई थीं। कहीं उसने रवि को तो सब कुछ नहीं बता दिया?
रवि की आदत को कौन नहीं जानता! सहसा शालिनी को समझाते हुए वह बोली—
“चिंता मत करो बेटी, कोई न कोई रास्ता जरूर निकलेगा।”
Letter Without Address - Part Fifteen
इतना कहकर नंदा देवी अपने कमरे की ओर चली गई। जहां उसके पति किताबें पढ़ रहा था । जिसे देखकर नंदा देवी को बहुत गुस्सा आ रहा था । घर में समस्या है और ये किताबों में उलझे हुए हैं ।
“किताबों में तो बहुत कुछ लिखा होता है—यह भी कि घर की समस्याएँ कैसे हल की जाएँ,” नंदा देवी ने व्यंग्य से कहा।
धनुष ने झुँझलाकर पूछा, “अब तुम्हें क्या हो गया है, जो इस तरह ताने दे रही हो?”
नंदा देवी ने तीखे स्वर में कहा, “क्या हुआ! जैसे तुम्हें कुछ पता ही नहीं।”
धनुष ने गहरी साँस लेते हुए कहा, “सब जानता हूँ। लड़की अब बड़ी हो गई है; अपने फैसले खुद ले सकती है। हर बात में हमारा दखल देना ठीक नहीं।”
“तो इसका मतलब हम अपने दायित्वों से उदासीन हो जाएँ?” नंदा देवी उत्तेजित हो उठीं। “बस उम्र हो गई, बस इतना ही अनुभव पाया कि जब बच्चे बिगड़ने लगें तो उन्हें पूरी तरह स्वतंत्र छोड़ दिया जाए?”
“तुम जो कह रही हो, मैं समझ रहा हूँ,” धनुष ने शांत स्वर में कहा, “लेकिन आजकल के पढ़े-लिखे बच्चों को समझाना आसान नहीं है। उनका माइंडसेट अलग है—उन्हें वही सही लगता है जो उनकी सोच को सूट करे।”
नंदा देवी ने व्यथित होकर कहा, “और तुम्हारा माइंडसेट है विवशता का—जो हो रहा है बस उसे होने दो। क्या यही जीवनभर के अनुभवों का सार है? माता–पिता का कर्तव्य सिर्फ देखना नहीं, दिशा देना भी होता है।”
धनुष कुछ क्षण चुप रहा। फिर बोला, “दिशा देने और ज़बरदस्ती करने में फर्क होता है। मैं डरता हूँ कि कहीं हमारा हस्तक्षेप उसे हमसे और दूर न कर दे।”
नंदा देवी की आँखें भर आईं। “और मुझे डर है कि दूर जाते–जाते वह खुद से भी दूर न हो जाए। कभी–कभी बच्चों को रोकना भी उन्हें बचाना होता है।”
कमरे में कुछ क्षणों के लिए सन्नाटा छा गया। दोनों अपनी–अपनी चिंताओं में डूबे थे—एक माँ, जो भय में थी; एक पिता, जो असमंजस में था। घर की दीवारें उस तनाव को मानो अपने भीतर समेटे खड़ी थीं।
“रवि उस दिन कह रहा था कि मैं दो-चार दिनों में इन लोगों के प्यार का भूत उतार दूँगा। उसकी बातों में एक तरह की झुँझलाहट भी थी और ठान लेने वाला अंदाज़ भी। लेकिन मैंने उसे समझाते हुए कहा— "ऐसा मत करना, कहीं बात और बिगड़ न जाए। रिश्तों में सख़्ती से ज़्यादा समझदारी की ज़रूरत होती है।”
“एक उम्र के बाद हर व्यक्ति अपने-अपने तरीके अपनाने लगता है। अब रवि भी अपनी मर्जी चलाएँगे; शायद उन्हें लगता है कि यही सही रास्ता है। पर उनके तरीके तो और भी ख़तरनाक हैं—कभी-कभी वे बात को सँवारने की बजाय उलझा देते हैं।” दोनों थके मन से एक-दूसरे को समझाते और हालात को हल्का करने की कोशिश करते हुए कह रहे थे। लेकिन कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था ।
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इधर शालिनी के मन में बहुत बैचैनी थी। घर के लोगों के व्यवहार से स्पष्ट हो रहा था कि सभी लोग उससे खुश नहीं हैं। भाई कुछ कह नहीं पा रहा था और पिता ने भी चुप्पी साध ली थी। केवल माँ ही थी जो उसकी चिंता कर रही थी। वह जोहन के बारे में सोच–सोचकर परेशान हो रही थी—कहीं भाई के दबाव में वह टूट न जाए। वह उससे मिलने की कोशिश में बेचैन हो उठी, लेकिन माँ की बातें याद आतीं तो वह असमंजस में पड़ जाती।
बचपन से पाली-पोसी यह सीख उसके भीतर गहराई तक बैठी थी कि किसी भी बड़े निर्णय से पहले माँ-पिता की राय ज़रूर लेनी चाहिए। यही संस्कार अब उसे बार-बार रोक लेते थे। वह जोहन से बात करना चाहती थी, अपने मन की उलझनें उसके सामने खोल देना चाहती थी, पर घर का माहौल उसे कदम बढ़ाने ही नहीं दे रहा था। उसे महसूस हो रहा था कि हालात जितने बाहर उलझे हुए थे, उससे कहीं ज़्यादा उसके भीतर संघर्ष चल रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने दिल की सुने या घरवालों की उम्मीदों पर खरी उतरने की कोशिश करे।
रात होते-होते शालिनी का मन और भारी हो गया। कमरे की खिड़की से आती हल्की हवा भी उसे सुकून नहीं दे पा रही थी। वह बिस्तर पर लेटी रही, पर बेचैनी उसे बार-बार उठाकर खिड़की तक ले आती। बाहर सड़क पर हल्की रौशनी थी और दूर किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आ रही थी। शालिनी ने सोचा—क्या जोहन भी इसी तरह उसके बारे में सोच रहा होगा? क्या वह भी इस खिंचाव और दूरी को महसूस कर रहा होगा?
उसे याद आया कि जोहन हमेशा कहता था, “जो भी हो, बात करने से चीज़ें आसान हो जाती हैं।” पर आज वही बात शालिनी के लिए सबसे कठिन लग रही थी। फ़ोन उठाने की हिम्मत वह जुटा नहीं पा रही थी। डर था कि कहीं उसकी कोई बात घरवालों की नाराज़गी न बढ़ा दे, और दूसरी तरफ यह भी डर कि चुप्पी कहीं जोहन को ग़लतफ़हमी में न डाल दे।
इस दोराहे पर खड़ी शालिनी को महसूस हो रहा था कि अब कोई न कोई फ़ैसला करना ही होगा।
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क्रमशः
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