एक कॉल की ख़ामोशी The Silence of a Call- Story

एक कॉल की ख़ामोशी The Silence of a Call- Story मोबाइल उठाया ही था कि उँगलियाँ अचानक ठिठक गईं। स्क्रीन पर टिमटिमाता वह नाम किसी पुराने, बंद दरवाज़े की तरह लगा, जिसे खोलने की हिम्मत मैं कई सालों से नहीं जुटा पाया था। मन के भीतर एक हलचल उठी—कॉल करूँ या न करूँ? क्या पता, उधर से कैसी आवाज़ लौटेगी? कहीं वह फिर वही पुरानी शिकायत तो नहीं दोहरा देगा—“बहुत दिनों बाद याद आए हो।”

शिकायत में भी उसकी जीत होती और मैं फिर गलत ठहराया जाऊंगा , जबकि उसने भी तो कभी मुझे फ़ोन नहीं किया था।

The Silence of a Call- Story 

समय की यही विडंबना है—लोग अब शब्दों से ज़्यादा दूरी का हिसाब रखते हैं। ज़रा-सी खामोशी, ज़रा-सा साथ न दे पाना… और वे उपेक्षा समझ बैठते हैं। फिर इतना बुरा मान जाते हैं जैसे रिश्तों की सारी नमी एक ही पल में सूख गई हो।

कारण भी कोई बड़ा नहीं होता—बस यह जताना कि यदि तुम हमें नहीं समझते, तो हम भी तुम्हारी दुनिया को समझने की ज़रूरत नहीं रखते।


मैंने मोबाइल फिर देखा। लगा जैसे वह पूछ रहा हो—इस बार साहस किसका जीतेगा? मौन का, या उस संबंध की हल्की-सी धड़कन का, जो अब भी कहीं भीतर बची हुई थी, शायद केवल औपचारिकताओं भर की सही।


जय और मैं बारहवीं तक साथ पढ़े थे। लगुटिया यार। जहाँ जाते, एक साथ जाते। लेकिन उम्र ठहरती कहाँ है। ज़िंदगी की तलाश में हम दोनों शहर पहुँचे। फर्क बस इतना था कि मुझे शहर में अशांति मिली, और उसे अवसर।

कुछ साल बाद मैं गाँव लौट आया—खेती-बाड़ी में मुझे वह सुकून मिला जो शहर ने नहीं दिया। शहर की भागदौड़ मुझे हमेशा अधूरा छोड़ देती—दिन-रात पैसों का हड़बड़ाया हुआ ख्याल और असंतोष का धुआँ। मुझे अच्छा नहीं लगता था । 

वह शहर में रम गया, और मुझे गाँव की सादगी भा गई।


आज भी वही स्थिति है—मैं घर में हूँ, वह शहर में। उसे छुट्टी नहीं मिलती; एक दिन रुक जाना भी उसके लिए नुकसानदेह है। मेरे लिए काम मनमर्जी जैसा है—खेतों में पत्नी के साथ काम करते हुए लगता है जैसे पूरी दुनिया साथ-साथ चलती है। इसलिए मुझे हमेशा शांति मिली है।

मेरी बचत की आदत और गाँव के सीमित खर्च देखकर जय अक्सर कहता, “यार, तुम ठीक हो। कितनी शांत ज़िंदगी है तुम्हारी। हम तो कितना भी कमाएँ, पैसा इकट्ठा ही नहीं होता।”

और मैं कहता—“शहर में सुविधा है, हलचल है। गाँव में तो ठहराव है।”


दूरी के बावजूद हमारा अपनापन बना रहा। वह आए दिन बात करता, और मुझे भी उससे बात करना अच्छा लगता—दो अलग दुनिया होते हुए भी एक रिश्ता चुपचाप साथ चलता रहा।


लेकिन इस बार बहुत दिनों से उसकी कोई ख़बर नहीं थी। घर में भांजी की शादी की तैयारियाँ थीं, और कुछ दायित्वों के चलते मुझे उसे सूचना देना जरूरी लगा।

पता था—अब वह अपने नए सहारे में संतुष्ट है। मैंने मदद न दी, तो उसने दूसरे दरवाज़े पर दस्तक दे दी। शायद उसी दिन से हमारे रिश्ते की गर्मी थोड़ी कम हो गई। अब बातचीत केवल औपचारिकताओं तक सिमटने लगी थी।


आख़िरकार, चुप्पी तोड़ने के लिए मैंने ही फ़ोन किया।

उधर से एक सपाट-सी “हैलो” सुनाई दी।

मैंने नमस्कार कहकर अपना परिचय भी दे दिया—मन में डर था कि शायद वह मेरा नंबर भी भूल गया होगा।

कुछ साधारण बातें हुईं। निमंत्रण स्वीकारते ही बातचीत खत्म-सी हो गई।

फ़ोन कान पर टिका ही रहा—आगे कहने को कोई शब्द नहीं था। कुछ पलों बाद मैंने ही कहा, “ठीक है, फ़ोन रखता हूँ… मुझे और भी लोगों से बात करनी है।”

“ठीक है,” बस इतना ही जय ने कहा।


फ़ोन कटते ही थोड़ी राहत भी मिली। असमंजस की स्थिति की असहजता भारी पड़ती है।

मैंने किसी और को फ़ोन नहीं किया था; बस यूँ ही जय से कह दिया था। फिर देर तक सोचता रहा—आख़िर मेरी ग़लती क्या थी? उस समय मैं मदद करने की स्थिति में ही नहीं था। अपने साले के लिए ही तो पैसे माँगे थे—किसी और से ले लिए तो क्या बिगड़ गया?

पर शायद यह बात जय समझ नहीं पाया।

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तब पहली बार लगा—हमारे रिश्ते शायद कभी किसी कसौटी पर परखे ही नहीं गए थे। सुविधा के दिनों में सब सहज था, पर जैसे ही मतलब टकराया, रिश्ते की परतें उखड़ने लगीं।

और तभी समझ आया—ज़िंदगी में कई रिश्ते ऐसे होते हैं, जो ज़रूरत पूरी न होने पर केवल औपचारिकताओं की डोर पर टिके रह जाते हैं।


कहानी यहीं खत्म नहीं होती—पर मैं यहीं रुक गया।

क्योंकि कभी-कभी रुक जाना ही सबसे सही जवाब होता है।

-राजकपूर राजपूत "राज "

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