You are the Complete Story of Incomplete Things मुकेश का फ़ोन बजते ही हरीश का हाथ एक पल को ठिठक गया। जाने क्यों, उससे हर बार बात करने के बाद मन में कोई अनकहा बोझ उतर आता है — कोई ऐसी टीस, जो शब्दों में नहीं ढलती।
मुकेश, जो अब सफलता की ऊँचाइयों को छू चुका है, हर महीने-दो महीने में एक बार पुरानी यादों की डोर थामे हरीश को फ़ोन करता है। जब भी वक़्त मिलता है, वो उन गलियों में लौट आता है जहाँ दोनों ने अपना बचपन साथ जिया था।
हरीश की पत्नी, साक्षी, मुस्कुराते हुए कहती, “तुम्हारा दोस्त वाकई में अच्छा इंसान है। बड़ा आदमी बन गया है, मगर पुराने रिश्तों को नहीं भूला।”
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हरीश बस हल्की-सी मुस्कान से जवाब देता, पर भीतर कुछ चुपचाप दरकता रहता। मुकेश से बात के बाद अक्सर वह घंटों तक ख़ामोश बैठा रहता — उसकी चुप्पी जैसे कमरे की हवा में घुल जाती।
साक्षी धीरे से पूछती,
“क्या बात है? दोस्त का फ़ोन आया और तुम फिर से वैसे ही गुमसुम हो गए... जैसे कोई पुराना ज़ख्म फिर से हरा हो गया हो।”
हरीश धीमे स्वर में कहता,
“कुछ ख़ास नहीं... बस मुकेश की बातें याद आ रही थीं। सोचता हूं, वो कितनी दूर निकल गया है, और मैं आज भी वहीं का वहीं ठहरा हूं। वो अब एक बड़ी कंपनी में ऊँचे ओहदे पर है, तनख्वाह भी ज़ाहिर है, बहुत ज़्यादा है... और मैं... बस एक ऑटो चलाने वाला।”
साक्षी ने सांत्वना भरे स्वर में कहा,
“तो क्या हुआ? हर किसी की किस्मत अलग होती है। किसी को जल्दी मंज़िल मिलती है, किसी को देर से। लेकिन इस तरह खुद को कम मत समझो।”
हरीश कुछ पल चुप रहा, फिर बोला,
“जब हम पुरानी बातें करते हैं, तो लगता है जैसे कुछ भी नहीं बदला — वही बचपन, वही दोस्ती, वही सपने। तब मुकेश की कामयाबी भी मेरी लगती है। ऐसा महसूस होता है जैसे वो मुझसे अलग नहीं।"
साक्षी ने सहजता से कहा,
“तो इसमें बुरा क्या है? यही तो रिश्ते की खूबसूरती है।”
हरीश ने एक गहरी सांस ली,
“पर जब वो मेरा वेतन पूछता है, तब एक दीवार-सी खड़ी हो जाती है। मैं क्या बताऊं? मेरी आमदनी सीमित है — दिहाड़ी के हिसाब से जो मिलता है, उसी में गुज़ारा करता हूं। तब लगता है, हम अब वैसे नहीं रहे जैसे पहले थे। वो जब अपने महंगे सामान और सुविधाओं की बातें करता है, तो उसकी हंसी जैसे मेरे हालात की अनदेखी कर जाती है। उसकी सहानुभूति कभी-कभी दया जैसी महसूस होती है — मानो वो मुझ पर तरस खा रहा हो…”हरीश ने कहा ।
"एक समय ऐसा आता है, जब सारे रिश्ते धीरे-धीरे अपने आप तक सिमटने लगते हैं। अब दूसरों की नहीं, बस अपने और अपने परिवार की भलाई की चिंता रह जाती है। परिवार और खुद की सुविधा का ध्यान, उसी का ज्ञान , यही सोच अनजाने में बाकी रिश्तों से एक दूरी बना देती है—एक दीवार, जो न दिखती है, न महसूस होती है, लेकिन होती जरूर है।
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तुम प्रतिस्पर्धा मत बनो, क्योंकि हर इंसान अपनी ज़िंदगी को अपनी समझ से जी रहा है। किसी के पास अगर मुस्कान है, तो उसका मतलब यह नहीं कि वह दुख से अछूता है। लोग अक्सर अपनी खुशी को सच बना कर जीने की कोशिश करते हैं, जबकि भीतर कहीं वे भी उसी अकेलेपन से जूझ रहे होते हैं, जिससे तुम गुजर रहे हो।
कभी-कभी समझने के लिए बोलना नहीं, बस महसूस करना काफी होता है।"
पत्नी की बातें हरीश के भीतर कहीं गहराई तक उतर गईं। हर शब्द जैसे उसे सोचने पर मजबूर कर रहा था। वह कितनी सादगी से, बिना किसी आरोप के, जीवन के सत्य कह जाती है। हरीश उसे एकटक देखता रह गया — जैसे पहली बार उसे वास्तव में देख रहा हो। उस क्षण उसे यह महसूस हुआ कि पत्नी सिर्फ जीवन की साथी नहीं होती, वह वह रिश्ता है, जिसमें बाकी सारे रिश्तों की खाली जगह भर सकती है। एक ऐसा साया, जो थामे रखता है, जब बाकी सब छूट जाते हैं।
-राजकपूर राजपूत "राज "
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