Midnight Hour and the Last Farewell Story रात के नौ बज चुके थे। गाँव की गलियाँ साँझ के सन्नाटे में डूब चुकी थीं। चारों ओर सन्नाटा था—बस झींगुरों की कराहती सी आवाज़ें और कभी-कभी दूर से गली के कुत्तों का करुण रोदन सुनाई देता था। बूढ़ी माँ की साँसें अब धीरे-धीरे भारी होती जा रही थीं। उनका गला अजीब सी खराश के साथ काँप रहा था, मानो कोई अनकही पीड़ा भीतर ही भीतर घुल रही हो। उनके शरीर से उठती गंध अब वैसी नहीं थी, जैसी कभी पेशाब की पुरानी, पहचानी दुर्गंध होती थी—आज उसमें कोई अजीब, अनजानी और डरावनी सी गंध घुली हुई थी। समय जैसे थम गया था, और उसके बीच माँ की देह एक थके हुए वृक्ष-सी चुपचाप अपनी जड़ों से उखड़ने लगी थी।
Midnight Hour and the Last Farewell Story
"ये कुत्तों को क्या हो गया है ? जिसे आज ही रोने हैं । "
दिलीप की पत्नी सुरेखा ने कहा ।
उसे कुत्तों का रोना डरा रही थी । कहते हैं कुत्ता तब ही रोते हैं । जब गांव में किसी की मृत्यु होने वाली हो । ये अशुभ होते हैं ।
दिलीप की माँ आज मुश्किल घड़ी में हैं। रात कट जाए, यही बहुत है।
"मुझे अब अपने भाइयों को बता देना चाहिए। माँ की स्थिति अत्यंत खराब हो चुकी है," दिलीप ने कहा।
"क्या बताना! क्या उन्हें नहीं पता? जिन्हें बताना पड़े, उनके लिए बताने का क्या अर्थ! जीते जी तो माँ को देखने तक नहीं आए, और अब उनकी आरती उतारनी होगी! लानत है ऐसे बेटों पर।
मुंह पुकार कर कहीं थी सासू माँ ने — "बड़े बेटे के साथ रहूंगी।"
सर झुकाए बैठे रह गए थे। सिर तक नहीं उठा पाए। दोनों बड़े भाइयों ने ।
अब दिलीप को ही बताना पड़ेगा।
बड़े बेटे हैं" कहकर उन्हें ज़मीन भी ज़्यादा दी गई थी।
"हमें क्या मिला?" सुरेखा के तमतमाते हुए सवालों का जवाब दिए बिना ही दिलीप ने कहा —
"वो सब ठीक है। लेकिन ये लोग इतने भी बुरे हैं कि कल फिर गांव वालों से कहेंगे — 'देखो, माँ नहीं रहीं और भाई ने हमें बताया तक नहीं। क्या हमारी माँ नहीं थीं?'"
उसने उनके दोहरेपन से, अपने थके मन को समझाते हुए कहा।
भाई को खबर देते हुए दिलीप ने जब पड़ोसियों को भी सूचित किया, तो यह दुःखद समाचार धीरे-धीरे पूरे मोहल्ले में फैल गया। पड़ोसी माँ को अंतिम बार देखने चले आए, पर दोनों बड़े भाई दरवाज़े की चौखट पर ही चुपचाप बैठे रहे—जैसे संबंधों की गर्मी अब ठंडी राख में बदल चुकी हो।
कई बार आग्रह किया गया, "भीतर आ जाओ, माँ को देख लो," पर उनका उत्तर हर बार वही रहा—
"देख तो लिया... अब कर भी क्या सकते हैं। माँ तो तुम्हारे ही साथ रहीं, अब उनकी देखभाल भी तुम्हें ही करनी होगी।"
तभी एक पड़ोसी धीरे से बोले, "अब ज़मीन पर उतारना पड़ेगा।"
"क्यों?" दिलीप ने घबराए स्वर में पूछा।
"अब अंतिम क्षण है... प्राण ज़मीन पर आसानी से निकलते हैं,अब इसकी इन्द्रियां मर चुकी हैं । बस शरीर में कहीं फंसे हुए हैं । दही तुलसी खिलाओ । इससे जीव में शांति आती है ।विदा लेने में सरलता होती है । " एक बूढ़े ने धीमे से कहा, जैसे जीवन के लंबे अनुभव से निकला कोई निष्कर्ष हो।
इन शब्दों ने दिलीप का कलेजा भेद दिया। उसका हृदय भर आया और वह बिलख पड़ा। माँ का अंतिम समय आँखों के सामने था, और वह कुछ भी नहीं कर पा रहा था। यह देख सुरेखा और बच्चे भी अपने आँसू रोक न सके।
रात के ग्यारह बज चुके थे। रोने-धोने की आवाजें गली की नीरवता को चीरती हुई दूर तक फैल गईं। धीरे-धीरे और भी पड़ोसी इकट्ठा हो गए। किसी के पास कहने को कुछ नहीं था—बस मौन सहानुभूति थी, कंधों पर हाथ रखने की ढाढस थी, और आँखों में वही नम समझदारी जो केवल शोक के क्षणों में दिखाई देती है।
"माँ मेरे पास रहना नहीं चाहती थीं — शायद परिस्थितियों ने उन्हें विवश कर दिया था। मगर जितने दिन मेरे साथ रहीं, कभी कोई शिकायत मुंह पर नहीं लाई। जो कुछ भी घर में बना, चुपचाप स्वीकार कर लिया — जैसे सब कुछ उनका ही हो। कई बार तो बच्चों की तरह बस मेरा मुँह ताकती रहती थीं, जैसे आँखों से कोई बात कहना चाहती हों। मैंने भी कोशिश की कि उन्हें किसी चीज़ की कमी न हो — शायद इसी तरह मैं उनके उस मौन प्रेम का उत्तर दे रहा था।
यह सब कहते-कहते उसकी आवाज़ भर्रा गई, और आँसू बह निकले।
"कितनी अजीब बात है — जीवन में अगर हमें किसी ऐसे के साथ रहना पड़े, जिसे हम पसंद न करते हों, तो सुख भी बोझ बन जाता है। लेकिन अगर साथ अपना हो — मन का, आत्मा का — तो दुःख भी जैसे अपना लगता है। मां को मुझे समझने में बहुत समय लग गया। और जब उन्होंने समझना शुरू किया, तब तक... बहुत देर हो चुकी थी।
माँ बड़े भाई के साथ रहना चाहती थीं। उनका लगाव और झुकाव भी उसी की ओर था। लेकिन भाई ने कभी ध्यान नहीं दिया। इसलिए मां भीतर ही भीतर एक खोखली ज़िंदगी जीती रहीं।"
अपने आंसू पोंछते हुए दिलीप ने कहा ।
अपने भाई से कई बार कहा कि माँ को अपने पास रख लो। वह तुम्हारे बिना खुद को अधूरा महसूस करती हैं। उनका मन अब टूट चुका है। मां हर किसी के साथ नहीं रह सकतीं। बंटवारा तो भाइयों के बीच ज़रूर होता है, लेकिन प्रेम का नहीं होना चाहिए। माँ तुम्हें मानती हैं, इसलिए तुम्हारे साथ ही वह खुश रह सकती हैं। इसलिए उन्हें अपने पास रख लो।
लेकिन फिर भी वे नहीं माने। माँ को इस डर से अकेला छोड़ दिया कि कहीं वह ज़्यादा दिन उसके पास आएंगे तो बुज़ुर्ग मां मेरे ही हिस्से आ जाएंगी।माँ इस अनदेखी को समझती थीं। इसी कारण उन्होंने अपने जीवन की प्रसन्नता और उत्साह खो दिया।
दिलीप ने कितनी भी कोशिश की, माँ अपनी उदासी और जड़ता से बाहर नहीं निकल सकीं। दिलीप पूरे हृदय से चाहता था कि माँ अपना शेष जीवन खुशी-खुशी बिताएं, लेकिन...!
अब दिलीप मन-ही-मन खुद से बातें करने लगा। माँ के प्रति उसका प्रेम उमड़ आया और उसकी आंखों से आंसू बह निकले। वह चाहता था कि माँ अभी और जिएं, ताकि वह उन्हें सारी दुनिया की खुशियां दे सके।
सहसा बुढ़ा पड़ोसी दिलीप और आए हुए लोगों को बताया कि उसकी माँ की नाड़ी का चलना बंद हो गया है ।
"इतनी आसानी से चली गई । मुझे छोड़कर । "
इतना कहकर दिलीप जोर-जोर से रोने लगा । उसकी पत्नी(सुरेखा) और बच्चे भी दहाड़ मारकर रोने लगे ।
"सहज मृत्यु की राह बड़ी सरल प्रतीत होती है। पहले इन्द्रियाँ रोग और जर्जरता से म्लान पड़ती हैं, मानो जीवन की लौ स्वयं क्षीण हो रही हो। पर आत्महत्या का मार्ग पीड़ादायक है — वहाँ इन्द्रियाँ और मन इतनी आसानी से प्राण नहीं त्यागते; वे संघर्ष करते हैं, तड़पते हैं। यह वेदना बाहर से देखने वाले भी महसूस कर लेते हैं ।"वृद्ध पड़ोसी ने कहा ।
जब मृत्यु की आहट सुनाई दी, तो भाई भी माँ के पास चला आया। चेहरे पर असहजता साफ़ झलक रही थी, पर आँखें सूखी रहीं — जैसे आँसुओं का स्रोत कहीं बहुत पहले सूख चुका हो। शायद वर्षों की दूरी ने माँ के लिए उसके मन में शेष बचे प्रेम को भी धीरे-धीरे बुझा दिया था। जहाँ लगाव न हो, वहाँ बिछड़ने का दर्द कैसा?
अब वह उन लोगों में से हो गया है जो जीवन को तर्कों और निष्कर्षों की कसौटी पर जीते हैं — जहाँ हर भावना से पहले कारण पूछा जाता है।
दिलीप अलग था। वह भावनाओं की एक तरल नदी था, बहता, महसूस करता, हर स्पर्श को आत्मा से आत्मसात करता। उसका विश्वास था कि जब कोई पूरी तरह बौद्धिक हो जाता है, तो वह भीतर की इंसानियत को मार देता है। संवेदनाएँ तर्कों के नीचे दब जाती हैं, और सुविधाओं के बोझ तले हृदय की नर्मी कुचल दी जाती है। फिर मनुष्य केवल सोचता है, महसूस नहीं करता — और यही सबसे बड़ी त्रासदी होती है।
रात आधी से भी आगे बढ़ चुकी थी। कुछ पड़ोसी लौट चुके थे। भाई भी माँ के पास ठहर न सके।
रुके थे तो बस वे ही लोग — जो दिलीप के सच्चे चाहने वाले थे, या फिर वे, जिनका जीवन ही दूसरों के दुःख में शामिल हो जाने का नाम है।
जब अंतिम विदाई की तैयारी शुरू हुई, तो भाई किसी जल्दी में थे — मानो कोई अनकहा बोझ उतार फेंकना चाहते हों।
पर दिलीप की अंतिम इच्छा थी कि सभी अपने जन समय पर पहुँचें। माँ का चेहरा आख़िरी बार देख लें, उनके स्पर्श को अंतिम बार महसूस कर लें।
अब दिलीप के मन में एक खालीपन उतर आया था — ऐसा खालीपन जो किसी अपने के चले जाने के बाद ही उतरता है।
लोग अक्सर सोचते हैं कि बुढ़ापे में बस सेवा और देखभाल की ही ज़रूरत होती है।
वे यह नहीं समझ पाते कि जब कोई कहीं चला जाता है,या फिर घर देर से आए तो सबसे पहले बेचैन होती हैं वही बूढ़ी आँखें।
हर आहट पर चौंक कर पूछती हैं —
"कहाँ गया है? अब तक लौटा क्यों नहीं?"
उन आँखों में वर्षों का प्रेम होता है, चिंता की झुर्रियों में गुँथा हुआ स्नेह।
वे बच्चों को सँजोकर रखती हैं — जैसे कोई थका हुआ पंछी अपने आख़िरी घोंसले में सुकून ढूँढता है।
ऐसा निश्छल प्रेम भला और कहाँ मिलेगा?
सोचते-सोचते दिलीप की आँखें भीग गईं —
भीतर कुछ टूट रहा था, और बाहर एक अटूट मौन पसरा हुआ था।
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