ईमानदारी की थकान -कहानी The Fatigue of Honesty - Story MereGeet

The Fatigue of Honesty - Story MereGeet नौकरी लगे अभी मुश्किल से एक वर्ष ही व्यतीत हुआ था, परंतु गौरव के मुखमंडल पर प्रसन्नता की आभा स्पष्ट दृष्टिगोचर होती थी। ईश्वर की अनुकंपा से उसे एक उत्तम पद प्राप्त हुआ था, जिसके विषय में सामान्य जनों को विशेष जानकारी नहीं थी। वह अपने कार्यों का निष्पादन अत्यंत निष्ठा एवं ईमानदारी से करते थे।

प्रत्येक दिवस की भांति जब वह पान के ठेले पर कुछ लेने जाते, तो परिचितजन स्नेहपूर्वक पूछ बैठते—
"कहिए गौरव जी, नौकरी कैसी चल रही है? साथ में कितने लोग कार्यरत हैं? किसी प्रकार की असुविधा तो नहीं?"


The Fatigue of Honesty - Story MereGeet 


गौरव मंद मुस्कान के साथ उत्तर देते—
"सब कुशल है। कार्य संतोषजनक है और सहकर्मी भी सहयोगी एवं सौम्य स्वभाव के हैं।"

अब तो यह प्रश्न ऐसा लगने लगा था जैसे सरकारी फार्म में स्थायी कॉलम हो — "वेतन तो ठीक-ठाक है न?"
और गौरव का उत्तर भी मानो किसी रटे-रटाए बाबू की तरह — "हाँ, ठीक है।"

एक दिन गाँव के परम पूज्य, बहुप्रतिष्ठित, जन-जन के प्रेरणास्रोत, यानी वही प्रभावशाली व्यक्ति, तथाकथित बुद्धिजीवी भी यही प्रश्न लेकर आ गए।
गाँववाले उन्हें केवल मुखिया ही नहीं, बल्कि चलता-फिरता समाधान केंद्र मानते थे।

तथाकथित बुद्धिजीवी ने मुस्कुराकर वही राग छेड़ दिया —
"वेतन तो है, पर असली मज़ा तो 'ऊपर' से आने वाली आमदनी में है। बिना उसके तरक्की की सीढ़ियाँ बड़ी धीमी चढ़ती हैं। और अगर कहीं एकाध झटका लग जाए तो समझो बूस्टर डोज़ मिल गया!"

अब ये बात उसने किस अंदाज़ में कही, समझने वाले समझ गए।
वैसे भी, गाँव के उस जागरूक और ‘सेवाभावी’ व्यक्ति की शिक्षा का स्तर इतना ऊँचा था कि लोग उनकी बातों को देवता से भी ऊपर मानते थे।
कोई सरकारी काम अटक जाए, तो लोग उनसे सलाह नहीं, 'सेवा शुल्क' देकर समाधान ले आते थे।

उन्हें तो हर विभाग में सीधा प्रवेश प्राप्त था — कोर्ट-कचहरी, तहसील-दफ्तर, और ज़रूरत पड़ी तो अस्पताल के पीछे के दरवाज़े तक!
हाँ, उनकी एक ख़ास बात थी —
वे हमेशा पहले अपना 'कल्याण' सुनिश्चित कर लेते थे, फिर अगर समय और मन हुआ तो दूसरों के हित की भी सोच लेते थे।

और यही कारण था कि गाँव में उन्हें "हमारा आदमी" कहा जाता था —
...बस यह स्पष्ट नहीं था कि "हम" में वह खुद भी शामिल थे या केवल बाकी लोग!
जब गौरव से वह प्रश्न पूछा गया, तो वह क्षणभर के लिए अचकचा गया। यह कैसा प्रश्न था, जो कार्य की निष्ठा और ईमानदारी की सराहना करने के बजाय अनैतिक कमाई की ओर संकेत कर रहा था? तथाकथित बुद्धिजीवी के होंठों पर व्यंग्यपूर्ण मुस्कान तैर गई। गौरव ने मौन रहना उचित समझा, किंतु उस व्यंग्य ने उसकी सत्यनिष्ठा को भीतर तक झकझोर दिया।
उसने अनुभव किया कि समाज की नैतिक चेतना किस दिशा में अग्रसर हो रही है — जहाँ सच्चाई की राह पर चलने वाला व्यक्ति उपहास का पात्र बनता है, और छल-कपट से अर्जित वैभव पर तालियाँ बजती हैं। दुख की बात यह थी कि वहाँ उपस्थित किसी ने भी उस तथाकथित बुद्धिजीवी को रोका या टोका नहीं।
उस दिन के बाद उसने उस दुकान की ओर रुख तक नहीं किया। मन में एक कसक थी — यह सोचकर कि आजकल तथाकथित बुद्धिजीवियों से समाज भरा पड़ा है, जिनके शब्दों में तर्क तो होता है, पर आचरण में सत्य और संवेदनशीलता का अभाव। जिनके विचार ऊँचे प्रतीत होते हैं, पर व्यवहार में खोखलापन झलकता है। ऐसे वातावरण में उसकी ईमानदारी जैसे उपहास का कारण बन गई थी — और यही बात उसे भीतर तक खल गई।
-राजकपूर राजपूत "राज "

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