नदी और पहाड़ का रहस्य- प्रेम कहानी The Secret of River and Mountain Love Story

The Secret of River and Mountain Love Story नदी पहाड़ों को अपने कोमल और शीतल जल से धीरे-धीरे काट रही थी — न जाने कब से।

पहाड़ अडिग खड़ा था, यह सोचकर कि नदी उसकी ऊँचाई में सुरक्षित है।

पर नदी का स्वभाव अलग था; वह बस कह नहीं रही थी, हां वो साथ रहना नहीं चाहती थी । इसलिए पहाड़ों के बीच से रिसकर निकल जाना चाहती थी — दूर, बहुत दूर।

The Secret of River and Mountain

परंतु उसके साथ क्यों है? यही प्रश्न पहाड़ को सोचने पर विवश कर रहा था।

पहाड़ का हृदय नदी की आंतरिक खुशी को महसूस कर रहा था, परंतु जाने कैसे दे?

नदी के साथ रहने से ही तो उसके भीतर शीतलता और नरमी है; उसका हृदय हरा-भरा है।


“मैं तुम्हारी नहीं हो सकती…” नदी ने कहा।


पहाड़ मुस्कुराकर बोला —

“मैं तो उम्र भर तुझसे प्यार कर सकता हूँ…”


नदी बोली —

“झूठ है यह… हम कभी मिल नहीं सकते…”


पहाड़ ने कहा —

“मुलाक़ातें ज़रूरी नहीं होतीं।

बस तुम कहीं भी रहो — मेरा होना।

मैं तुम्हें दूर से ही चाह लूँगा, बस तुम मुझे एक बार अपना मान लो।

मुझे तुम्हें चाहना अच्छा लगता है — तुम्हें पाने से भी ज़्यादा।


मैंने कभी शर्तें नहीं रखीं,

कभी नहीं कहा कि तुम भी मुझे वैसे ही चाहो, जैसे मैं तुम्हें चाहता हूँ।

बस तुम्हें सच्चा प्यार किया है , दिया है — बिना किसी उम्मीद के।


अगर तुम्हें मेरे प्यार में सुकून मिले, तो इसे स्वीकार कर लो —

तुम्हारी ख़ुशी ही मेरी ख़ुशी है।


तुम मुझे गुलाब के फूलों की तरह,

उनके काँटों की तरह स्वीकार कर लो —

वैसे भी मैं बेहतर हूँ…”


वह कुछ न बोली — बस चली गई।

जैसे उसके दिल में कोई उम्मीद बची ही न हो…

या फिर, पहाड़ के प्यार की सच्चाई से वह डर गई हो। इसलिए पहाड़ पीछे हटकर रास्ता दे दिया । ताकि नदी जैसे जीना चाहती है जी लें । प्यार स्वतंत्रता देता है,, बन्धन नहीं । और नदी उछलती हुई चली गई बहुत दूर ....



नदी चली गई थी...

उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा।


पहाड़ वहीं खड़ा रहा — चुप, शांत, लेकिन भीतर से टूटा हुआ।

उसके किनारे की मिट्टी ढह गई थी... शायद नदी की याद में, शायद उसकी जिद में।


बरसों बीत गए।

नदी बहती रही — जंगलों, मैदानों, घाटियों से होती हुई आगे बढ़ती रही।

हर जगह कुछ देर ठहरती, फिर आगे बढ़ जाती।

कभी उसने खुद को समंदर की ओर बढ़ता पाया, तो कभी रेगिस्तान की ओर मुड़ती रही।

एक दिन, नदी थक गई।

उसका प्रवाह उतना वेगवान नहीं रहा।

उसने अपनी यात्रा के हर पड़ाव को देखा —

कहीं उसे पूजा गया, कहीं गंदा कर दिया गया,

कहीं उसने जीवन दिया, कहीं विनाश भी,

कहीं रोका गया तो कहीं टोका गया । 

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लेकिन भीतर कहीं एक हिस्सा — पहाड़ के साथ का — उसमें अब भी ज़िंदा था।

वो याद करती थी उस शांति को, जो सिर्फ पहाड़ के पास महसूस होती थी।

वो स्थिरता, वो मौन, वो निःस्वार्थ प्रेम...

जहाँ उसे कोई बाँधता नहीं था, फिर भी वो बंधी हुई-सी लगती थी.. एक सुरक्षित घेरा को । वह गलत थी .. बहुत ।।।

-राजकपूर राजपूत "राज "


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