प्रेम : एक आत्मा का दान Love: A Gift of a Soul Article in Hindi

प्रेम : एक आत्मा का दान Love: A Gift of a Soul Article in Hindi 

प्रेम — यह केवल एक शब्द नहीं, बल्कि एक सम्पूर्ण जीवन-दर्शन है। यह वह सुगंध है, जो बिना दिखाई दिए भी पूरे वातावरण को महका देती है। यह वह दीप है, जो स्वयं जलता है, पर औरों को प्रकाश देता है। प्रेम माँगने की नहीं, देने की वस्तु है। जो सच्चा प्रेम करता है, वह किसी उत्तर की अपेक्षा नहीं करता; उसके लिए प्रेम ही साध्य है और प्रेम ही साधन।

Love: A Gift of a Soul Article in Hindi 


प्रेम उस झरने की तरह है, जो पर्वत की ऊँचाइयों से बहता हुआ, हर सूखी भूमि को जीवन देता है — बिना यह सोचे कि सामने कौन है, और वह इसका क्या मूल्य देगा। प्रेम देने से घटता नहीं, वह तो बाँटने से और बढ़ता है। परन्तु दुर्भाग्यवश, आज की दुनिया ने प्रेम को भी सौदेबाज़ी बना दिया है — जहाँ भावनाएँ भी तौलकर दी जाती हैं, और संबंध भी स्वार्थ की ज़मीन पर बनाए जाते हैं।

आज प्रेम की बातें तो बहुत होती हैं, परंतु उसमें आत्मा का स्पर्श नहीं होता। कहीं न कहीं बनावटी बातें आत्मा को असहज कर देते हैं । लोग जब तक किसी से कुछ प्राप्त कर सकते हैं, तब तक प्रेम का अभिनय करते हैं। उनके शब्द मीठे होते हैं, व्यवहार आकर्षक होता है, पर भीतर एक सन्नाटा छिपा होता है — स्वार्थ का, छल का। जैसे ही प्रयोजन पूरा होता है, प्रेम का चेहरा उतर जाता है, और सामने आता है उदासीनता का असली रूप। यह प्रेम नहीं, छलावे हैं। यह प्रेम नहीं, मंच पर खेला गया एक नाटक है — जिसमें भावनाओं का उपयोग तो होता है, पर उनका आदर नहीं।

प्रेम कोई सार्वजनिक वितरण प्रणाली नहीं है, जिसे हर किसी में बाँट दिया जाए। यह वह अमृत है, जो केवल पात्र को ही दिया जाना चाहिए — उस व्यक्ति को, जो इसकी मर्यादा समझ सके, इसे संभाल सके। प्रेम वह पुष्प है, जो उसी बग़ीचे में खिलता है, जहाँ उसे देखभाल, धैर्य और अपनापन मिलता है। हर हृदय इस पुष्प को नहीं संजो सकता।

प्रेम करने के लिए पहले हृदय को विस्तृत करना पड़ता है, स्वार्थ को त्यागना पड़ता है। यह त्याग का दूसरा नाम है — जहाँ ‘मैं’ की कोई जगह नहीं होती। यह उस दीपक की तरह है, जो आँधी में भी दूसरों के लिए जलता रहता है। प्रेम में कोई लेखा-जोखा नहीं होता; वह तो बस बहता है — जैसे गंगा की धारा, जो सबको धोती है पर कभी शिकायत नहीं करती।
जो प्रेम को वास्तव में समझता है, वह कभी उसे बाँधने का प्रयास नहीं करता। वह जानता है कि प्रेम स्वतंत्र होता है — एक पंछी की तरह, जिसे यदि पिंजरे में बंद कर दिया जाए, तो वह धीरे-धीरे मरने लगता है। प्रेम बंधनों से नहीं, बल्कि विश्वास से जीवित रहता है। इसलिए, यदि प्रेम में कभी बिछड़ाव हो, तो इतना स्थान अवश्य होना चाहिए कि वापसी पर दो हृदय सहजता से पुनः जुड़ सकें।

इसलिए प्रेम करो — पर उस प्रकार नहीं, जैसे आज की दुनिया करती है; प्रेम करो उस प्रकार, जैसे वृक्ष छाया देते हैं, जैसे सूरज उजाला देता है, जैसे माँ ममता देती है — निस्वार्थ, निश्चल, और निशब्द।

परंतु आजकल प्रेम दिखाई नहीं देता। लोग इस कदर बदल गए हैं कि सामान्य व्यवहार भी दुर्लभ हो गया है। थोड़े-से अहंकार के टकराव में लोग क्षण भर में बिखर जाते हैं।
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- राजकपूर राजपूत "राज "
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