प्रसन्नता: आत्मा की मौन स्वीकृति Happiness: The Soul's Silent Acceptance Article

 The Soul's Silent Acceptance Article प्रसन्नता कोई एक निश्चित स्रोत नहीं, वह तो जीवन के हर कोने में बिखरी एक सुगंध है—कभी किसी स्नेही मित्र की मुस्कान में, कभी पत्नी के नेत्रों की कोमल दृष्टि में, कभी पुत्र की खिलखिलाहट में, तो कभी परिवार के आलिंगन में। यह संपत्ति में भी मिल सकती है, वृक्षों की मृदुल छांव में या फिर किसी पक्षी की चहचहाहट में। किंतु यह सब तभी संभव है जब उसमें आत्मा का स्पर्श हो, अनुभूति की गहराई हो। बिना आत्मसात किए, बिना मन के ठहराव के, प्रसन्नता केवल एक क्षणिक भ्रम बनकर रह जाती है।

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प्रसन्नता का बीज अक्सर अभावों की सूखी भूमि में अंकुरित होता है। जब मन असंतोष की हलचलों से जूझता है और संतोष की ओर अपने पंख फैलाता है, तभी वह सच्ची प्रसन्नता की दिशा में पहला पग बढ़ाता है। यह एक यात्रा है, जहाँ हर क्षण रोचकता से भरपूर होता है, और सपने उस प्रसन्नता को और अधिक पूर्ण, और अधिक गूढ़ बनाने के उपाय तलाशते हैं। अंततः, वह जो भीतर एक संतोष की मधुर अनुभूति देता है—वही प्रसन्नता है, वही जीवन का मधुरतम रस है।


किसी इच्छित वस्तु की प्राप्ति के बाद मन अभ्यस्त हो जाता है । हां, उस समय मन में संतोष और प्रसन्नता एक दिखावा सा जान पड़ता है । जो लोगों की प्रमाणिकता की आशा करती है । 

उसकी आत्मा सुप्तावस्था में चली जाती है । भीतर की प्रसन्नता महसूस नहीं होती है । बाह्य लोगों द्वारा उसके कार्यों की सराहना गर्वोक्ति की प्रसन्नता देती है । 


जब कोई अभिलषित वस्तु अंततः प्राप्त हो जाती है, तो मन कुछ समय के लिए उल्लास से भर उठता है, परंतु शीघ्र ही वह उस उपलब्धि का अभ्यस्त हो जाता है। तब वह प्रसन्नता, जो प्रारंभ में उत्सव-सी प्रतीत होती है, धीरे-धीरे एक बनावटी मुस्कान में ढल जाती है—मानो मन स्वयं को और संसार को यह जताना चाहता हो कि वह संतुष्ट है। इस संतोष की छाया में एक मौन आकांक्षा छिपी रहती है—कि कोई उसे देखे, सराहे, उसे प्रमाणित करे।


ऐसे क्षणों में आत्मा जैसे किसी गहन निद्रा में लीन हो जाती है। भीतर का आनंद, जो आत्मा की गहराइयों से फूटता है, कहीं खो सा जाता है। और जब बाहरी संसार उसके कार्यों की प्रशंसा करता है, तो वह सुख गर्व की एक क्षणिक तरंग बन कर रह जाता है—गंभीर आत्मिक संतोष नहीं। यह वह प्रसन्नता नहीं होती जो भीतर से उपजती है, अपितु वह होती है जो बाहर की दृष्टियों और शब्दों पर आश्रित होती है—अस्थायी, अल्पजीवी और अधूरी।

जब मनुष्य की प्रसन्नता बाह्य स्रोतों पर आश्रित हो जाती है, तब वह स्वयं को दूसरों की प्रशंसा और स्वीकृति के आईने में देखने लगता है। वह कुछ लोगों की सराहना को अपने आत्म-मूल्य का प्रमाण मान बैठता है, और धीरे-धीरे यह आकांक्षा जन्म लेती है कि सभी लोग उसी मार्ग का अनुकरण करें, जिसे वह स्वयं श्रेष्ठ समझता है।


यहां से तुलना और अपेक्षाओं का चक्र प्रारंभ होता है। कोई व्यक्ति अपनी सामर्थ्य से अधिक व्यय कर बाह्य वैभव का प्रदर्शन करता है, और फिर उन लोगों को तुच्छ मानता है जो संयम और सादगी में विश्वास रखते हैं। वह यह मान लेता है कि जीवन का सुख केवल भौतिक उपभोग में ही निहित है। परंतु इसके विपरीत, वह व्यक्ति जो संयम को जीवन का आधार मानता है, उसी प्रदर्शनप्रियता को देख निरर्थकता का बोध करता है, और उसे अपव्यय एवं असंयम की संज्ञा देता है।

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इस प्रकार, दोनों ही दृष्टिकोण एक-दूसरे के विरोध में खड़े होते हैं, और प्रत्येक स्वयं को ही सत्य का वाहक मानता है। किंतु वास्तविक प्रश्न यह है कि क्या जीवन की पूर्णता बाह्य मान्यताओं में है, या उस आंतरिक संतुलन में जो न तो अपव्यय की ओर झुकता है, न ही कृत्रिम आत्म-संयम के अभिमान में बहता है?

अतः यह स्पष्ट होता है कि प्रसन्नता न तो मात्र मानसिक उत्तेजना है, न ही बौद्धिक विश्लेषण का परिणाम। यह कोई तर्क या तात्कालिक भावनात्मक अनुभव नहीं, बल्कि एक गहराई से उपजा हुआ आत्मिक भाव है, जो किसी बाहरी प्रमाण या पुष्टि का मोहताज नहीं होता।


प्रसन्नता की वास्तविक परिभाषा उस मौन स्वीकृति में निहित है, जो हमारे अंतःकरण से स्वयं ही प्रकट होती है—जहाँ न कोई द्वंद्व होता है, न अपेक्षा, और न ही किसी प्रदर्शन की आवश्यकता। जब मनुष्य स्वयं को, अपने कृत्य को, और अपने अस्तित्व को भीतर से स्वीकार कर लेता है, तब प्रसन्नता एक सहज अनुभूति के रूप में प्रकट होती है। यही वह क्षण है जहाँ आत्मा की शांति, और जीवन की पूर्णता, एकाकार हो जाती है।

-राजकपूर राजपूत "राज "

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