कुमुदिनी - एक अंतर्द्वंद्व में उलझी हुई लड़की Kumudini - The story of a Girl Caught in a Dilemma

Kumudini - The story of a Girl Caught in a Dilemma कुमुदिनी की उम्र ही क्या थी — सोलह या सत्रह बरस की, जब उसकी डोली सजी। घर में जैसे ख़ुशियों का सैलाब उमड़ आया था। सबको लगता था, जैसे कुमुदिनी का भाग्य चमक उठा हो। सुसराल में बड़ा घर था, बीस–पच्चीस एकड़ ज़मीन, खेतों में मशीनें चलती थीं, मज़दूर सारी ज़िम्मेदारी संभालते थे। सबको यक़ीन था — बेटी को वहाँ कोई तकलीफ़ नहीं होगी, बस घर के चंद काम ही तो करने होंगे। माँ की आँखों में सुकून था, लेकिन कहीं गहराई में एक धुंधली सी चिंता भी थी… जिसे वो शब्दों में नहीं ढाल सकी।उन लोगों का व्यवहार कैसा होगा? उसकी बेटी के प्रति ।

Kumudini - The story of a Girl Caught in a Dilemma

से सब कुछ सही लगता था। लेकिन एक बात थी, जो कुमुदिनी को अंदर ही अंदर खाए जाती थी — शादी से पहले उसके माता-पिता ने लड़के के बारे में कुछ भी जानने की ज़रूरत नहीं समझी। वह क्या करता है? उसका स्वभाव कैसा है? जीवन के प्रति उसका नजरिया क्या है? किसी ने इन सवालों की परवाह नहीं की। बस एक "अच्छा घर" देखा और बेटी सौंप दी… जैसे बेटी नहीं, कोई ज़िम्मेदारी हो, जिसे जल्द-से-जल्द निभा देना था।


सुरेश एक ऐसा पुरुष था, जो किसी भी स्त्री के जीवन में सिर्फ़ अंधकार और असुरक्षा भर सकता था।


उसके भीतर न तो कोई महत्वाकांक्षा थी, न ही ज़िम्मेदारी का कोई भाव। वह हर दिन अपने भाइयों से पैसे मांगता, जैसे यह उसका जन्मसिद्ध अधिकार हो। और जो थोड़ी-बहुत आमदनी होती, वह शराब, जुए और आवारगी में उड़ जाती।


वह अपने कर्तव्यों से भागता था, रिश्तों को बोझ समझता था और जीवन को एक मज़ाक बना रखा था।


उसके भाई, जो कभी उसके सबसे बड़े सहायक थे, अब उससे घृणा करने लगे थे।


वे अक्सर कहते —


"सुरेश निकम्मा है। इसे अगर ज़िंदगी भर का वक़्त भी मिले, तो भी कुछ नहीं कर पाएगा।"


सच तो यह था कि सुरेश का चरित्र ही खोखला था —


एक ऐसा इंसान, जो न किसी का सहारा बन सकता था, न ही किसी के भरोसे के लायक था।


जब कुमुदिनी के भाई कहते कि सुरेश निकम्मा है, तो वह भीतर ही भीतर सुलग उठती, पर कुछ कह नहीं पाती। कड़वी बात यह थी कि उनके शब्दों में पूरा असत्य भी नहीं था। सुरेश सचमुच ऐसा ही था—अस्वस्थ नहीं, मजबूर नहीं, बस स्वभाव से ही लापरवाह, स्वार्थी और क्रूर।


वह दिनभर घर में पड़े-पड़े इधर-उधर की बातें करता, काम-धंधे का कोई स्थायित्व नहीं था, और न ही कोई कोशिश। घर चलाने का भार पूरी तरह कुमुदिनी पर था—चाहे वह सास-ससुर की सेवा हो,  घर की ज़रूरतें। सुरेश ने जैसे जीवन को एक लापरवाह तमाशा समझ रखा था—जिसमें वह केवल दर्शक था, और कुमुदिनी, अनिच्छित पात्र।


उसके स्वभाव में न कोमलता थी, न ज़िम्मेदारी। ताने देना, देर रात घर आना, और कभी-कभी नशे में धुत रहना—यह सब अब कुमुदिनी की दिनचर्या बन चुका था। और सबसे ज़्यादा दुख की बात यह थी कि उसे अपने व्यवहार पर कोई पछतावा नहीं होता।


कुमुदिनी अपने भीतर यह जानती थी कि उसका पति केवल निकम्मा ही नहीं, बल्कि बुरा इंसान भी है। एक ऐसा पुरुष, जिसने उसके प्रेम और समर्पण को कभी मूल्य नहीं दिया।अपनी गलतियों को दूसरों पर थोपता था । और संतुष्ट हो जाता कि वह महान है ।


आख़िर अपनी पीड़ा किससे कहें?"


वह अपने माता-पिता से अत्यंत प्रेम करती थी, इसीलिए कभी अपनी व्यथा उनके सम्मुख नहीं रखी। जानती थी कि यदि एक बार भी कुछ कह दिया, तो वे उसे तुरंत अपने पास बुला लेंगे। परंतु वह नहीं चाहती थी कि उसकी पीड़ा किसी और के जीवन में बोझ बन जाए। इसी कारण, वह अपने दुखों को हृदय में ही दबाए रही, मौन रहकर सब कुछ सहती रही – ताकि किसी और को कष्ट न पहुँचे।


धीरे-धीरे कुमुदिनी के मुख की आभा फीकी पड़ने लगी।


उसके मन में एक अजीब-सी उदासी घर कर गई थी, और अकेलेपन की छाया ने उसकी जीवन-शक्ति को धीरे-धीरे निगलना शुरू कर दिया। उसकी आंखों की वह पहले वाली चमक जैसे बुझ-सी गई थी — अब वहां एक स्थायी थकान और भीतर का दर्द झलकता था। जहां किसी की बातें सुनीं न जाए और चुपचाप जीना पड़े वहां विचार का मरना निश्चित है । यहीं हो रहा था कुमुदिनी के साथ ।


समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा, पर सुरेश की आदतें दिन-ब-दिन और अधिक बिगड़ती चली गईं। उसके भाइयों के लिए अब यह सब सह पाना कठिन हो गया था। कई बार उन्होंने उसे प्यार और क्रोध के मिश्रित स्वर में समझाया —


"सुरेश, कुछ तो सोच! हम मेहनत करें और तू आराम से ऐश करे? कब तक?"


पर सुरेश पर किसी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। जब सारे प्रयास व्यर्थ हो गए, तो अंततः भाइयों ने उसे उसकी ज़मीन-जायदाद का हिस्सा देकर अपने से अलग कर लिया — ताकि घर की शांति बनी रहे, और जीवन किसी तरह आगे बढ़ सके।


अब सुरेश जैसे पूरी तरह बेलगाम हो गया था।


दिन भर इधर-उधर गांव-गांव भटकता रहता। जहां कहीं जुए की महफ़िल जमती, वहीं जा पहुंचता। देर रात तक बाहर रहना, शराब के नशे में डूबकर घर लौटना — यही उसकी दिनचर्या बन चुकी थी।


कुमुदिनी यदि अब कुछ कहने का साहस करती, तो सुरेश क्रोधित होकर गरज उठता —


"औरत होकर मुझसे ज़ुबान लड़ाती है? अपनी औक़ात में रहो! तुम्हारे बाप की कमाई नहीं खा रहा हूँ!"


ऐसे अपमानजनक वचनों को सुनकर कुमुदिनी मौन हो जाती। हृदय की गहराइयों में एक आहत स्वर उठता —


"मरे तो मुझे क्या? अपने बाप की कमाई खा रहा है तो खाए... सब बर्बाद कर दे! एक दिन जब भीख मांगनी पड़ेगी, तब शायद अक्ल आए!"


लेकिन अगले ही क्षण एक और विचार उसकी आत्मा को झकझोर देता —


"ये संपत्ति क्या केवल उसी की है? क्या इसमें मेरा कोई अधिकार नहीं? मैं क्या करूं जिससे यह सुधर जाए? क्यों कुछ कर पाने में असमर्थ हूँ?"


वह बार-बार अपने आप से प्रश्न करती और फिर स्वयं को ही समझाने की कोशिश करती। यह द्वंद्व, यह असहाय पीड़ा, उसे भीतर तक तोड़ देता। उसका कोमल हृदय भावनाओं से भर उठता — और फिर, उसकी आंखों से अश्रुओं की अविरल धारा बह निकलती।


समय और आगे बढ़ा। सुरेश की हालत अब और बिगड़ चुकी थी। वह पूरी तरह नशे और जुए का गुलाम बन चुका था। इसी बीच कुमुदिनी गर्भवती हो गई। उसके मन में और चिंता भर गई — "कैसा भविष्य होगा इस बच्चे का?"


अब उसने सुरेश को प्रेम से समझाने की कोशिश की। उसकी गलतियों को उसके सामने नहीं जताती, बल्कि प्रेम से उसे जोड़ने की कोशिश करती। शायद प्यार में कुछ बदलाव आए,उसने तो अपने प्रेम में स्वयं को ही अर्पित कर दिया था, पर सुरेश ने उसके उस निश्छल समर्पण को भी एक मजबूरी का नाम दे दिया। वह क्या जाने प्रेम क्या होता है — उसके हृदय में तो भावनाओं के लिए कभी कोई जगह ही नहीं थी। प्रेम से उसका नहीं, जैसे सदियों पुराना कोई अजनबीपन था।"


पर इस सबके बीच उसके मायके वालों को कुछ अनहोनी का अंदेशा हो गया। बिना बताए एक दिन उसके पिता हाल-चाल लेने आ पहुंचे।


घर की हालत देख वे सन्न रह गए। टूटी हुई खाटें, बिखरे हुए बर्तन, गंदगी — कहीं से भी यह घर नहीं लगता था।


उन्होंने कुमुदिनी की आंखों में देख लिया वो दर्द जो कभी शब्दों में नहीं कहा गया।


उन्होंने कुमुदिनी से पूछा —


"बेटी, तू खुश तो है ना?"


कुमुदिनी ने नज़रें झुका लीं। कुछ नहीं कहा। बस चुप रही।


आंखों में आसूं लेकर बस इतना ही कह पाया


"हां"
जैसे उसकी भी शिकायत थी । अपने मां-बाप के लिए । जो उसे इस जिंदगी के रचनाकार हैं ।


उसकी चुप्पी ने सब कह दिया।


अपनी बेटी की आँखों में तैरते आँसू और चेहरे पर पसरे हुए दर्द को देख, पिता का हृदय भीतर से टूट चुका था। वे खुद को उस हर पीड़ा का ज़िम्मेदार मान रहे थे, जो उनकी बेटी झेल रही थी। मन ही मन वे पछता रहे थे कि उन्होंने सिर्फ धन-दौलत की चकाचौंध में आकर अपनी लाड़ली को उस इंसान के हवाले कर दिया, जो उसके प्यार, सम्मान और सुख का कभी हक़दार ही नहीं था। उन्हें लग रहा था जैसे उन्होंने कोई गुनाह किया हो — ऐसा गुनाह, जिसकी सज़ा उनकी बेटी भुगत रही है ।


उस दिन के बाद कुमुदिनी के पिता ने फैसला किया — अब और नहीं। उन्होंने सुरेश से कोई बहस नहीं की, कोई उलाहना नहीं दिया। बस कुमुदिनी को साथ ले जाने की तैयारी की।


पिता ने गहरे स्वर में कहा, "चलो, बेटी। यह जीवन नहीं है। ग़लती मेरी थी… और अब उसे मैं ही सुधारूंगा।"


कुमुदिनी ठिठक गई। एक पल के लिए जैसे समय थम गया।


क्या सच में लौट जाना ही ठीक होगा?


लेकिन इस बार पिताजी साथ हैं — सहारा बनकर।


मन में अनगिनत विचार उमड़ने लगे।


पेट में पल रहा शिशु… उसका भविष्य…


क्या वह अंधेरे में जन्मेगा या रौशनी में आँखें खोलेगा?


क्या वह भी वही पीड़ा सहेगा, जो उसने सही?


नज़रों के सामने पूरी ज़िंदगी का फ़िल्म-सा चलने लगा।


और फिर उसने गहरी साँस ली…


कदम आगे बढ़ा दिए — अपने और अपने बच्चे के उजले कल की ओर।


लगभग साल भर में सुरेश ने दूसरी शादी कर ली, लेकिन अपनी पुरानी आदतों को छोड़ना उसका बस का नहीं था।


कुछ वर्षों में उसने अपने पास की सारी जमीन-जायदाद बेच डाली, मानो अपने भविष्य को मिटा देना चाहता हो।


जिस लड़की से उसने जीवन बांधा था, वह भी उसके साथ नहीं चल सकी और अंततः उसे छोड़कर चली गई।


अब सुरेश का नाम सुना जाता है होटलों में, जहाँ वह जूठे बर्तनों को साफ़ करता है—


एक ऐसा काम जो कभी उसकी शान की ऊँचाईयों से बहुत दूर था।


कभी जो ज़माना उसके कदमों में झुकता था, आज वह ज़माना उसकी पीठ देख कर हँसता है।


इधर कुमुदिनी अपने मायके में है, अपने बच्चे के साथ, सुरक्षित, सशक्त। धीरे-धीरे उसने सिलाई-कढ़ाई सीखकर खुद का काम शुरू किया। अपने पिता की मदद से एक छोटी सी दुकान खोल ली। अब वो दूसरों की मदद भी करती है — उन लड़कियों की, जो किसी न किसी 'सुरेश' के साथ अपनी आवाज़ खो बैठी हैं।

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उसने सीखा —


समझौता करना कभी-कभी ज़रूरी होता है, लेकिन अपनी आत्मा और अस्तित्व से समझौता करना खुद को खो देने जैसा है।


नजरअंदाज की चुप्पी एक दीवार की तरह होती है, जो शायद कुछ समय तक हमें बचा ले, पर वह दीवार कभी दीर्घकाल तक टिक नहीं पाती।


चुप्पी का सहारा लेना ठीक है, पर जब तक अपने भीतर की आग बुझती नहीं, तब तक मौन भी एक तरह का दर्द है।


कभी-कभी आवाज़ उठाना ज़रूरी हो जाता है — वह आवाज़ जो केवल शब्द नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व की पुकार होती है, जो हमें पहचान देती है, हमें जिंदा रखती है।


-राजकपूर राजपूत "राज"


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