१- उसके इरादे -His Intentions Story
गोविंद के दो दोस्त थे — अजय और भरत। तीनों बचपन के साथी थे, साथ खेले, साथ बढ़े, और साथ ही ज़िंदगी को समझना शुरू किया। उनकी दोस्ती में शरारतें थीं, हँसी के पल थे, और वो समझदारी भी, जो सच्चे रिश्तों की पहचान होती है।
सब कुछ ठीक ही चल रहा था, जब एक दिन अजय और गोविंद के बीच किसी बात को लेकर तकरार हो गई। बात छोटी थी, पर अहं बड़ा हो गया। अजय ने बुरा मानकर बात करना छोड़ दिया और गोविंद ने भी पीछे हट जाना बेहतर समझा। वह सोचता था — जब रिश्ते ज़बरदस्ती निभाने पड़ें, तो उन्हें ठहर जाने देना ही अच्छा होता है।
"हर किसी की अपनी-अपनी ज़िंदगी होती है, अपनी-अपनी चाहतें होती हैं," गोविंद ने खुद से कहा और अजय से दूरी बना ली।
लेकिन भरत से उसकी बातचीत अब भी चलती रही। भरत दोनों का साझा दोस्त था — कभी अजय के साथ, कभी गोविंद के साथ। एक दिन भरत ने आकर गोविंद से कहा,
"अजय तुम्हारे लिए बहुत बुरा सोचता है... तुम्हें कोसता है... यहां तक कि बद्दुआएं देता है।"
गोविंद थोड़ी देर तक चुप रहा। फिर हल्के से मुस्कुराया और पूछा,
"और तुमने तब क्या कहा?"
भरत की नज़रें झुक गईं। वह बोला,
"मैं क्या कहता? मैं चुप रहा..."
गोविंद का चेहरा गंभीर हो गया। उसकी आँखों में कोई शिकायत तैर रही थी। उसने कहा,
"मतलब, तुम सच भी नहीं कह सकते? उस दिन की बहस में तुम भी तो थे... सब देखा था तुमने..."
भरत ने सिर झुकाते हुए जवाब दिया,
"हाँ, था… पर अजय मानेगा तब न, जब खुद पूछेगा तो बात अलग है । मुझे लगता है इस मामले में चुप रहना ही ठीक है। मुझे मत घसीटो इसमें।"
एक लंबी खामोशी उतर आई। गोविंद ने भरत की ओर देखा, उसकी आँखों में अब कोई उलाहना नहीं था, बस एक गहरा ठहराव था। फिर उसने कहा —
"न अजय सच को स्वीकार करेगा,
न तुम सच का साथ दोगे।
सच कहने के लिए किसी की अनुमति नहीं चाहिए, भरत...
पर हाँ, सुविधा से जीने वालों को चुप रहना ही भाता है।"
भरत कुछ नहीं कह सका। शायद उस दिन उसने पहली बार देखा कि चुप्पी भी एक पक्ष लेती है — और अक्सर वह पक्ष सच्चाई का नहीं होता।
२-उसके इरादे -His Intentions Story
उसने बहुत बड़ी ग़लती की थी। हाँ, वह ग़लती थी, लेकिन उसी ग़लती से उसे बहुत लाभ भी हुआ। उसके धन में वृद्धि हुई, जिसे वह छोड़ना नहीं चाहता था। छोड़ना तो दूर, वह उसे सुधारना भी नहीं चाहता था। वह दुनिया को पीछे छोड़कर आगे बढ़ना चाहता था। नैतिक और अनैतिक कार्य उसके लिए कोई मायने नहीं रखते थे।
कुछ लोगों ने उसे समझाया—"ऐसा मत करो, यह पाप है, अनैतिक है। देर-सवेर इसका दंड अवश्य मिलेगा।"
लेकिन उसने तर्क दिया—"दुनिया भी तो इसी गति से आगे बढ़ रही है।"
उसका मतलब था—यदि दुनिया सही है, तो वह भी सही है।
आख़िरकार, जब अधिकांश लोग किसी मार्ग को अपनाते हैं, तो वही मार्ग ‘परम नैतिक मूल्य’ बन जाता
है।
पढ़िए कविता ->
सफलता और वास्तविकता"
कितना दूर जा सकता है, सफलता,
अगर शामिल नहीं होगी उसमें वास्तविकता।
क्या अर्थ है ऊँचाई का उस शिखर पर,
जहाँ पैर टिके हों झूठ की धरती पर?
चमकते सपने, दिखावों की रेखा,
अगर भीतर हो खोखली कोई लेखा।
तो क्या वाकई वो मंज़िल हुई,
जो सच्चाई की कीमत पर कहीं गई?
हर मुस्कान जो पर्दे के पीछे है फीकी,
हर तालियाँ जो बजती हैं केवल दिखावे की।
क्या वो सफलता नहीं एक छलावा,
जिसका आधार ही हो बस बहलावा?
वास्तविकता है वो बीज जो ज़मीन से जुड़ा,
संघर्षों की मिट्टी में धीरे-धीरे फूटा।
उससे उपजा जो फल, वो मीठा भी होगा,
और आत्मा को भी कहीं गहराई में छूआ।
झूठ की दीवारें ढह जाती हैं अक्सर,
और समय के साथ मिट जाते हैं अवसर।
पर सत्य पर टिकी जो मेहनत की नींव,
वही बनती है सदा के लिए जीवन की नींव।
तो पूछो खुद से हर कोशिश के पहले,
क्या ये रास्ता है सच्चा, या है केवल झमेले?
क्योंकि सफलता का मूल्य तभी सार्थक होगा,
जब साथ में सत्य और आत्मसम्मान भी होगा।
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-राजकपूर राजपूत
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