धीरे धीरे इंसान सामाजिक जीवन से दूर हो रहे हैं- Individualism-and-social-life-article-literature-life
बिल्कुल, इंसान धीरे धीरे अपने सामाजिक क्रियाकलापों से दूर होता जा रहा है । उसकी रूचि और चाहत बदल गई है । जहां पहले के लोग अपने दिनचर्या में सामाजिकता के गुण को समाहित करते थे । सामुहिक जिम्मेदारी को समझते थे तथा उसमें शामिल होने के लिए तत्पर रहते थे । एक दूसरे से संवाद या हालचाल पूछते थे । पूरे समाज किसी न किसी सामाजिक कार्यों से जुड़े रहते थे । राम राम का अभिवादन होता था । इन्हीं अभिवादन आदि से परस्पर जुड़ाव महसूस करते थे । सामाजिक कार्य में उत्साह था ।
जहां पहले से ही सामाजिकता के गुण शामिल था
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बचपन से ही सामाजिकता के गुण विकसित हो जाते थे । अधिकांश खेल सामुहिक रूप से खेले जाते थे । जिसमें पूरे मोहल्ले के बच्चे शामिल होते थे । लेकिन आज स्थिति अलग है । कोई किसी से मतलब नहीं है । टीवी और मोबाइल पर्सनल कमरे में देखा जाता है । जिसमें किसी अन्य व्यक्ति का होना । मजा किरकिरा होना है । सामुहिक उत्सव की जगह व्यक्तिगत उत्सव में शामिल होते हैं । अब किसी सामाजिक कार्यों में उत्साह नहीं दिखाई देता है । जन्मदिन, सालगिरह आदि पर्व मनाते हैं । एक कमरे में । अब कहीं रामलीला, कृष्ण लीला आदि का आयोजन कम ही दिखाई देते हैं । जहां एक जगह बैठकर पूरी बस्ती देखें । अब ऐसी जगह भी नहीं है । सामाजिक जगहों पर व्यक्तियों का अतिक्रमण हो गया । व्यक्तिगत जीवन शैली में जीने वाले सामाजिक जीवन का परिहास करते हैं ।
व्यक्तिवाद होना बुरा नहीं है । लेकिन व्यक्तिवादी हो कर दूसरों की जिंदगी में दखल देना गलत है । ढोंग है । वो सामाजिक होकर अपने व्यक्तिगत विचार को थोपना चाहते हैं सभी पर !!!!
जब बुद्ध गृह त्याग किए
यशोधरा सो रही थी
पुत्र राहुल मां से चिपका
चैन की नींद सो रहे थे
जाग रहे थे तो केवल बुद्ध
द्वंद्वों में
अशांति के साथ
संसार की स्थिति पर
सोच में डूबे हुए
गृह त्याग करूं
या संसार के दुःख देखूं
व्यक्तिवादी बनूं या सामाजिक
जैसे आजकल के लोग
यशोधरा को बड़े मानते हैं
बुद्ध का गृह त्याग से
लेकिन अंततः बुद्ध त्याग किया
संसार के दुःख देखकर
व्यक्तिवादी होने से बेहतर
समिष्ट हो जाना !!!
-राजकपूर राजपूत
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