ढोंग तो आजकल बुद्धिजीवी भी रचते हैं कविता हिन्दी

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 ढोंग तो आजकल

बुद्धिजीवी भी रचते हैं
फर्क है तो केवल समझने का
बहलाना,फुसलाना,दिखावटीपन
दाएं हाथ का काम है
उसके बुद्धि का
बस सुनते जाओ
उसकी टोलियों में जाओ
कई तर्क है
उसके पास नफरतों का
स्वीकार करना अपनी ग़लतियों का
कभी सीखा नहीं
प्रेम करना कभी दिखा नहीं
उसकी तलाश में
सत्य कभी दिखा नहीं
सियासत के ग्रुपों में बंट गए हैं
थकाना है 
प्रेम बढ़ाना कभी सीखा नहीं
ढोंग तो कथित बुद्धिजीवियों में है !!!!

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प्रोग्रेसिव विचार 

प्रोग्रेसिव होने का मतलब
पुरानी समझकर अच्छी चीजों को भी छोड़ देना नहीं है
जब तक स्थायित्व न हो
तुम्हारी इसी प्रोग्रेसिव के चक्कर में
जंगली और नग्नता
आ गई है जिंदगी में !!!

विचारवानों की तरह
सवाल उठा कर कहने लगे
तर्क देने लगे
लेकिन तुने स्थाई जीवन दर्शन का
निर्माण नहीं कर सकें
जबकि पूर्ण स्वतंत्रता
जंगली जीवन को
प्रेरित करते हैं !!!

दूसरों की आलोचनाओं को
पीएचडी की डिग्री मानते हो तो
तुम शिक्षित और वैज्ञानिक बन जाते हो
मुफ्त खाने की आदत को
हक़ मानते हो
तथाकथित बुद्धिजीवी बन जाते हो !!!

आदमी खुद को इतना बड़ा मान बैठा है

सच्चाई कम झूठ को सच मान बैठा है
खोया रहता है अपने ही आरजु में
भीड़ में अकेला मान बैठा है
वो खजुर आसमान छू रहा है
जमीन से बड़ा मान बैठा है
है दिन में सूरज रात में चांदनी बहुत
चंद पैसा पा कर आदमी बड़ा मान बैठा है
उसके तर्क में अहंकार की बू आती है
चरित्र नहीं मगर बहस में बड़ा मान बैठा है
आलोचना उसकी नफ़रत भरी हुई थी
वो खुद को अब कबीर मान बैठा है
अपनी ही कुठाओं से फसा हुआ आदमी
चालाकी को ही संस्कार मान बैठा है 
वो समझेंगे नहीं अब किसी की बातों को
अपने ही ज्ञान का अहंकार मान बैठा है
सियासत है शामिल अब जिंदगी में
रिश्तों को मतलब मान बैठा है
जिसका सुनना नहीं था राज उसका सुनना पड़ता है
उसने कहने को हक़ मान बैठा है  !!!!

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