मैं जब भी poem on life

poem on life

 मैं जब भी 

तन्हाई में होता हूॅं

रात के अंधेरे में

सितारों के बीच में

और ढूंढता हूॅं

जीवन का अर्थ

तब लगता है

जीवन व्यर्थ

सुना-सुना 

सभी दिशाओं में

झीगुरें के प्रतिध्वनियां

गुंजित होती है

अंतर्मन में

और सवाल उठता है

भीतर ही भीतर 

कौन बैठा है

मेरे अंतस में

जो नित्य प्रतिदिन

मुझे ऊर्जा देती है !!

मैं जब भी तन्हा हो जाता हूॅं

सुनता हूॅं अपने भीतर का अन्तर द्वंद

चलता रहता है हरदम

एक विचार राग बनकर

कई सवाल बनकर

खुद ही सवाल करते हुए

जवाब देते हुए

कशमकश में पड़ा हुआ

कभी हारा कभी जीता हुआ

तुम्हारे बगैर

शायद ! ये राग

टूटेगा नहीं

तुम आ जाओ

तुम्हारे बिना

ये हृदय अधूरा है !!!

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