शाम की उतरती बेला है Shaam par ghazal

Shaam par ghazal 

शाम की उतरती बेला है

और मेरा मन अकेला है

धीमी-धीमी रौशनी को

धीरे-धीरे अंधियारों ने घेरा है

सिमट के दुनिया ठहर गई

लौट गए लोग जिनका डेरा है

मैं रूका रहा डुबता सूरज देखता रहा

ऐसे तन्हा जीवन मेरा है !!!

गजल शाम 

शाम होते ही पसरने लगा अंधियारा 

जैसे सूनी-सूनी गलियों में कोई आराम पाता है

मैं भी लौटा उस गलियों की ओर

दिन का थका शाम को आराम पाता है !!!


कई शाम बीते दिन का गए नहीं लौटे

इंतजार खत्म नहीं हुआ उसकी आंखें नहीं सोते 

अभी भी पुकारतीं है वो बुढ़ी आंखें

एक बार शहर गए गांव क्यों नहीं लौटे!! 

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Shaam par ghazal



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