रोज-रोज Everyday Poetry

Everyday Poetry 

रोज की तरह
सूरज निकलता है
अपनी रौशनी के साथ में
रोज की तरह
पंक्षी उड़ते हैं
आसमान में
अपनी तलाश में
रोज की तरह
चॉंद निकलता है
अपने सफ़र में
रात में
और रोज की तरह
मेरी तनहाई आती है
उसकी यादों में
जिसकी तस्वीर 
मेरे दिल में है
मधुर सपनों के साथ
मेरी नींदों में !!!

Everyday Poetry



रोज की तरह
वो घर से
सम्हल कर निकलें
जैसे आजकल जमाना बुरा है
भरोसा नहीं किसी पर
मतलबी दुनिया
मतलब के रिश्ते
काम नहीं आते
वो जानता था
और मानता था
इसलिए सारे लक्षण उसी पे
परिलक्षित होने लगे
धीरे-धीरे !!!!

जो दूसरों को जलाते हैं
आखिर में खुद ही जल जाते हैं
जैसे माचिस के लकड़ी !!!

अभी तो शुरुआत है
फिर आघात है
चालाकी उसने भी सीखी
हमने भी सीखी
मौके की ताक पे
सभी बैठे हैं !!!!

रोज की तरह
सूरज निकले
चांद निकले
सितारे निकलें
लेकिन आदमी
तरीके बदल दिए हैं
इरादे बदल गए हैं 
सभी घर से निकलते हैं 
इसी मानसिकता से !!!!

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