खिलौने टूट जाते हैं खेलते खेलते
किस्तम छूट गई है मिलते मिलते
आखिर कब तक समेटते रहे हम
थक गए हैं पुराने कपड़े सिलते सिलते
ऑऺधी ही ऐसी चली कभी रुकी नहीं
हरे पत्ते भी गिर गए हैं हिलते हिलते
तुझसे ही उम्मीद थी सफ़र के मुकाम तक
और तुम भी चली गई मुझे देखते देखते
1 टिप्पणियाँ
बहुत ही सुन्दर रचना सर
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