परत-दर-परत जमी है
स्मृतियों के अखण्ड कोनें में नहीं कमी है
वो अल्हड़ ,बेफिक्र नादान
खोल दी तुने मेरी पहचान
वह मघुर बचपन की याद
कीचड़ से सने और धूल की बात
ठण्डी़,गर्मी और बादलों की बरसात
बेफिक्र घुमना -फिरना ,लम्बी-लम्बी मुलाकात
हॅ॑सी -हॅ॑सी में बनी थी
घरोदें मेरी मिट्टी की बनी थी
जहाॅ॑ मेरा गुड्डा, तुम्हारी गुडिया रहती थी
कितना मजा आता था,ब्याह रचानें में
खुशियाॅ॑ ही खुशियाॅ॑ थी,हमारे खेल-खिलौनें में..
लेकिन इस भाग-दौड़ भरी दुनिया में
अरमानों की इस पुडि़या में
आज सूख गई हैं ,हॅ॑सी मेरे चेहरे से
क्या कोई देखा है?मुस्कुराते चेहरे से...
परन्तु,अभी भी पुकारता है वह दिन
कहता है ,आया करो ,स्वागत करेगा ये दिल
रूआसा हुआ चलता हूॅ॑ ,और वह पेड़ देखता हूॅ॑
जिसके तले मेरा बचपन खेला था
हॅ॑सी के पल, दोस्तों से गुजारा था
आज हॅ॑सी सुने हो गए हैं
मेरे दोस्त चुप हो गए हैं
जल्दी से बचपन खोया
आज युवा हो गए हैं
0 टिप्पणियाँ