दुनिया से दूर अपनो के बीच

दुनिया से दूर अपनों के बीच में 

duniya-se-dur-apanon-ke-bich-mainअभी तक मैं खुद को बच्चा समझता था । माॅ॑ से ही कापी पेन के लिए कहता था । पिताजी से कहने की हिम्मत नहीं थी । पता नहीं क्यों..? किसी बात की चिंता नहीं थी । घर में जरुरत की चीजें कैसे आते हैं ..? माॅ॑-बाप मुझे बस पढ़ा-लिखा रहे हैं और मैं पढ़ रहा हूॅ॑ । पढ़ाई-लिखाई के समय ना जाने कितने मधुर सपने देखें थे। कई सपने बुनते भविष्य की,, आसानी से पूरे होते दिखते थे । पैसा वाला मैं बन ही जाता था । घर की हालतों को सहजता से पूरा कर लेता था । बहुत ही सुखद और मनमोहक था । वो काल्पनिक दुनिया । जहाॅ॑ मेरा परिवार खुशी से रहते थे । लेकिन बारहवीं कक्षा के बाद मुझे अहसास होने लगा कि मेरे माॅ॑-बाप हमारी जिंदगी के लिए कड़ी मेहनत करते हैं । दिनभर खेतों में पड़े रहते हैं । जहाॅ॑ भी मजदूरी का काम मिल जाते हैं,, चले जाते हैं । बदन से जब कपड़ा निकालते थे तो जला शरीर का रंग (सफेद और काला) सारी तकलीफों को बयां कर जाते थे । हालांकि कि उनको इस बात की चिंता नहीं थी । माॅ॑-बाप को तो हमारे भविष्य की चिंता सताते थे । हम लोग दो भाई और एक बहन है, । मैं बड़ा हूॅ॑, भाई-बहन में । इसलिए माॅ॑-बाप का भरोसा मुझ पर ज्यादा था । घर की हालतों को सुधारने में मदद करेंगे । बस इसी वजह से मैं भी अपनी जिम्मेदारी नीचे दबा जा रहा था । कुछ तो करना पड़ेगा । 

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आगे की पढ़ाई करूॅ॑ या ना करूॅ॑ । क्या काम किया जाय ? इसका निर्णय लेना बहुत कठिन हो गया था ।सही मायने में बेरोजगारी का अहसास बारहवीं कक्षा के बाद से होने लगते हैं। माॅ॑-बाप मेरी परेशानी को आसानी से समझ रहे थे । 

पिताजी ने कहा-" काॅलेज की पढ़ाई-लिखाई के लिए क्या कर रहे हो ।"
"प्राइवेट करूंगा !"
"क्यों..?"
"कुछ काम करूंगा"
"अभी हम दोनों में इतनी ताकत है बेटा, कि तुम लोगों की इच्छाओं को पूरी कर सकते हैं । "
पिताजी के बातों में अपनापन था हम लोगों के प्रति ।
"आखिर ये सब काम एक दिन मुझे ही तो करना है..!"

मेरी बातों को सुन पिताजी चुप हो गए । पिताजी की ऑ॑खें बता रही थी कि उसे  इस बात की खुशी थी कि मैं अपनी जिम्मेदारी को समझ रहा था । फिर भी मुझे कोई काम ना करने की सलाह देते थे । जो मुझे और दुःखी कर जाते । अंदर ही अंदर मुझे कुछ करने की चिंता सताने लगते थे ।
बारहवीं के आधार पर मैंने कई नौकरियों के लिए आवेदन किए लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ । देखते ही देखते काॅलेज की पढ़ाई-लिखाई भी पूरी हो गई । न जाने कितने आवेदन किए । कहीं पैसों के लिए तो कहीं पहुंच नहीं बना पाने के कारण असफल हो जाता था । पिताजी मानसिक तसल्ली देते थे । कोई बात नहीं  बेटा !  गरीब आदमी कहीं भी काम कर सकता है । 

मानसिक दबाव इतना था कि सोच-सोच के मैं थक जाता था और अंत में निर्णय लिया कि मैं भी परदेश जाऊंगा । 

मेरा एक दोस्त प्रयागराज में राजमिस्त्री का काम करते हैं। वह मुझे कई बार कह चुके हैं , आने के लिए । उससे फोन से बात किया तो बताया कि वहाॅ॑ बहुत अच्छा काम चल रहा है। और लोगों के लिए भी जगह है। अगर साथ में और लोग आना चाहतें हैं उसे भी ले आना। 

इधर घर में माॅ॑-बाप को बाहर भेजना पसंद नहीं था। फिर भी  मैंने अपने माता-पिता को समझा बूझा लिया ।
यहाॅ॑ रह के कुछ नहीं मिलेगा। ऊपर से घर में कर्ज चढ़ जाएंगे । वहाॅ॑ जाऊंगा तो दो पैसे बचेंगे और घर खर्च भी आसानी से निगलेगे।  मेरे समझाने से घरवाले भी मान गए ।
कभी घर से बाहर नहीं गया था । न जाने क्यों मेरा हृदय अंदर से कशक रहा था । माॅ॑ -बाप की ऑ॑खें भी भर गई थी । कंठ रूंध रहा था । माॅ॑ के पैर छूते समय वह फफक के रो पड़ी ।अपना खयाल रखना बेटा ! माॅ॑ की ममता भरी दुआऍ॑ मुझे रोक रहे थे।  घर की चौखट मुश्किल से पार हुआ।
 
जैसे -जैसे कदम आगे-आगे बढ़ रहे थे । गांव के पीपल, तालाब, घर, माॅ॑-बाप और भाई-बहन से लेकर हर एक पेड़ और गुजरें हुए पल हृदय में चुभ रहा था। जैसे फिर कभी मुलाकात नहीं होंगी । मैं जिसके साथ जा रहा था । उसे देखता तो उसके चेहरे में जिम्मेदारी साफ झलक रही थी । घर का । उसको शायद मेरे जैसा अहसास नहीं था । वो पैसा छोड़ने के लिए गांव आया था । मेरे दोस्त ने उसके साथ ही आने के लिए कहा है । जो वही काम करता है । दूसरे साईड में । 
बस और ट्रेन दोनों ही जगहों पर समानों को उतरना और चढ़ाना उसी का काम था । मैं तो पहली बार गांव से बाहर निकला हूॅ॑। और बारह घंटों के सफ़र के बाद हम दोनों प्रयागराज पहुंच गए ।
वहाॅ॑ मेरा दोस्त महेंद्र मुझे लेने आ गए थे । जिसे बचपन से जानता हूॅ॑ । मुझसे दो-चार साल आगे पढ़े थे । मेरे गांव के पास का ही है उसका गांव । बस पहचान से दोस्ती हो गई थी ।  अपने गांव में बहुत जमीन जायदाद बना चुके हैं । इस साईड में उसी का चलता हैं । जिसकी शादी बाल विवाह के रूप में हुई थी । जिसका एक बच्चा भी है । जिसे वे लोग गांव में ही छोड़ के आए थे। दादा-दादी के पास । चार पांच साल का हो चुका था शायद । कई साल हो गए हैं रहते हुए । 

वहाॅ॑ बहुत सारे झुग्गी झोपड़ी थे । पांच मंजिला मकान बन रहा था। जहाॅ॑ एक झुग्गी झोपड़ी में( पहले का बना हुआ) मेरा समान रखावा दिया गया । 

महेंद्र ने कहा तुम अपने परिवार के साथ नहीं आए हो इसलिए खाना-पीना हमारे साथ ही कर लेना । बर्तन धोना मांजना लड़कों को जजता नहीं है। संगीता (उसकी पत्नी)भी कह रही थी।
 जो मुझे भी लगा कि सही तो कह रहे हैं और मैं मान गया ।
महेंद्र का झुग्गी में जरूरत के सभी समान थे । उसका झुग्गी कुछ बड़ा था । पक्के कमरें जैसे ।  वह कई सालों से रहते हैं । उसे काम कम ही करना पड़ता था । अपने साईड से निकल कर बाहर जब चलें जाते तो वह किसी बड़े आदमी से कम नहीं दिखते थे । वे मानते थे कि शहरों में बहुत दिमाग से काम लेना पड़ता है तब कहीं यहाॅ॑ पर ठीक पाओगे । इसलिए तो गांवों में इतना जमीन जायदाद बना चुके है । 
 
मैं दूसरे दिन से ही काम में लग गया। गांव में सब जानते है कि मैं मेहनती लड़का नहीं हूॅ॑ । पढ़ाई लिखाई के साथ थोड़ा बहुत मेहनत किया था । इसी अभ्यास की वजह से ज्यादा तकलीफ़ नहीं हुई । इसके बावजूद मैंने कामजोरी करना नहीं सीखा था । मेरी मेहनत में अपने पराये का अंतर नहींं था । काम किसी का भी रहे अपना समझ के करता हूॅ॑ । 
कुछ लोग मुझमें हॅ॑सते थे । इतना पढ़ा-लिखा होकर मेहनत मजदूरी करते हैं । आजकल ज्यादा पढ़ा- लिखा होने पर भी परेशानी होती है । लेकिन क्या करूं ..! इस हॅ॑सी को सुधारने के लिए मैं शहर में अच्छे से काम ढूंढने का प्रयास भी किया लेकिन व्यर्थ रहा । बिना पहचान के अच्छे काम नहीं मिलते हैं । 
लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं थी । मेरे कुछ ख्वाब थे जिसे मैं हमेशा बुनता था । स्वयं आत्म निर्भर होने का ।

समय गुजरते गए और मुझे परदेश की सीख देते गए। महेंद्र उस साईड में काम कम ही करता था। चालाकियां सीख गई थी । मतलब निकालने में माहिर । वह तो ठेकेदार का सुपरवाइजर जैसा था । ठेकेदार भी उसे कुछ भी नहीं कहता । जब भी ठेकेदार अपने मोटरसाइकिल से आते तो उसे कही और अपने साथ ले जाते थे । उसके कई जगहों पर और काम चलता है । जो देर रात तक वापस आते हैं । अपनी पत्नी को भी काम बंद करने के लिए कह देते। दूसरे मज़दूर और मिस्त्री को उल्टा हुक्म देते थे। उस हुक्म मेंं मैं भी था । 
कई बार मुझे लगता कि मैं महेंद्र का ही मजदूर हूॅ॑। मकान मालिक और ठेकेदार कुछ नहीं बोलते थे । शेखर ही कुछ ज्यादा बोल जाते थे । अपने-पराए का अंतर नहींं था उसे । हालांकि बाद में मुझे समझा देते थे । तुम अपना हो,,, तुम्हें कहूंगा तो सबमें फर्क पड़ेगा । 
  
वहाॅ॑ काम करने वाले सभी लोग बताते हैं कि शेखर ठेकेदार का चापलूस है। उसके ग़लत कामों में भी साथ देते हैं । ऐसा करने के लिए उसे पैसा मिलता है । जबकि ठेकेदार अय्याश आदमी है और महेंद्र पैसों का लालची । 
 
मैं इन सब बातों पर गौर नहीं दिया। मेरे सपने ही मेरे मायने थे,,, कमाने के । जिसके के लिए आया हूॅ॑ । जैसे ही पूरा हो जाएगा, मैं चला जाऊंगा । फिर भी सोचता हूॅ॑ ,यदि किसी को समझना चाहते हो तो परदेश में समय गुजारों। अच्छे-अच्छों की परख हो जाती है। अपने आप से बातें करने लगता ।

महेंद्र का देर रात तक घुमना मुझे अच्छा नहीं लगता था । जब झुग्गी में खाना खाने जाओ और महेंद्र नहीं रहता तो मुझे बड़ा अजीब महसूस होता था । इतने दिन हो गए हैं शहर आएं । कभी भी मैं और महेंद्र साथ बैठ के बातचीत नहीं किए हैं । एक दिन काम के समय जब उसे कहा तो कहने लगे !
"सूरज दुनिया की चिंता मत किया करो । मैं तुम्हें कभी कहूंगा तब कहना । अपने कामों में ध्यान दो दूसरों की बातों पर नहीं । "
जिसे सुन के मुझे बहुत हैरानी हुई । मुझे ये क्या समझते हैं ..? या भरोसा करते हैं । क्या पता..? या केवल अपने लिए ही जीते हैं । खैर, मुझे क्या !!

कई बार ऐसे ही कह चुके थे लेकिन उन्हें को कोई फर्क नहीं पड़ता था । उसकी पत्नी भी उसकी इस आदत से नाराज़ रहती थी । वह भी अहसज महसूस करते थे । लेकिन कभी ऐसा लगता कि उसकी पत्नी और महेंद्र के बीच मेंं रिश्ता बहुत कमजोर है । जो एक दूसरे का परवाह ज्यादा नहीं करते हैं । महेंद्र घर से बाहर बहुत मौज मस्ती करते थे । जिसे उसकी पत्नी अच्छी तरह से जानती थी । फिर भी उन लोगों में कभी इस बात की शिकायत नहीं सुनी । पता नहीं क्यों.? क्या केवल बातें करने का तरीका है ?

मकान मालकिन रोज ही उस साईड में आ जाते थे। शायद अपने बन रहे मकान को देखना अच्छा लगता था ।  एक कुर्सी मेंं बैठकर कुछ लिखती रहती थी। अखबार पढ़ती थी लेकिन कहती कुछ नहीं। शायद घर में बोर हो जाती होगी। समय बिताने आती थी । बेहद ही खूबसूरत और गम्भीर महिला थी । मुझे कई बार ध्यान से देखती। मानों मुझ पर दया और सहानुभूति हो । मेरी मेहनत को बहुत पसंद करती थी । कुछ घंटे बैठकर चली जाती थी ।
शायद ! लोगों ने बता दिया था कि मैं बहुत पढ़ा-लिखा हूॅ॑ । फिर भी ऐसा काम क्यों करता हूॅ॑ । सोचने दें । मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा । 

 मुझे सीमेंटों के धूल मेंं काम करना पड़ता था । जिससे कपड़े गन्दा होना स्वाभाविक  है । । घर में माॅ॑ ही साफ कर देती थी लेकिन यहाॅ॑ कौन करेगा ? इसलिए कपड़े धोने से बचने के लिए मैंने अलग से कपड़े रखे थे । जिसे मैं हफ्ते भर पहनता था ।  वैसे भी अपने सपनों की वजह से अच्छे कपड़े-लत्ते पहनने में मेरी कोई रुचि नहीं थी । न ही सुध । सोचने का समय नहीं था ।
 
मुझे यह एहसास नहीं था कि अच्छे कपड़े कुछ लोगों के नजरिए पर प्रभाव डालता है । मेरे खराब कपड़े और अपने कामों में मग्न रहने के कारण लोग मुझे महत्त्व नहीं देते थे । भोला भाला मान के मुझसे और काम करवाते थे । मैंने कभी भी किसी का काम को करने से इंकार नहीं किया था । पता नहीं क्यों लोग आजकल ज्यादा बातें करने वालों की ज्यादा सुनते और उसे ही मानते हैं । शायद ! जानते हैं ऐसे लोग थोड़ा समझदार और बदमाश होते हैं । फ़ालतू में टेंशन कौन ले । 

इधर महेंद्र जब तारीफ करते तो मुझे न जाने क्यों अंदर ही अंदर बुरा लग जाते थे । क्योंकि जब भी वह ऐसे बोलते कुछ ना कुछ काम जरूर करने का निर्देश देते थे। जिससे का खुद का शोषण हो रहा है... महसूस कर जाता था । काम बन्द हो जाने के बाद भी केवल मुझसे छोटे मोटे कामों को करवाते थे । मानों उसका बंधुवा मजदूर हूॅ॑ ।  जिसे देखकर वहाॅ॑ के मजदूर मुझको हमेशा टोकते थे । जिस काम के लिए पैसा लेते हैं । ओवर टाइम का पैसें मिलते हैं,,। तुम फोकट में कर देते हो । यही बात बाकी मजदूरों को भी खलते थे कि मैं महेंद्र का पिट्ठू हूॅ॑ और महेंद्र ठेकेदार का ।
जिसे मैं समझता था लेकिन करें भी तो क्या करें । उसके ही घर में खाना पीना था और गांव के पास का आदमी भी । बचपन से अच्छी दोस्ती थी । आखिर उसी ने ही मुझे शहर लाया है ।
साफ इन्कार भी तो नहीं कर सकते थे । अजीब उलझन में फंसा हूॅ॑ । मेरे अन्दर की भावनाएं उसके अहसानों को दिल से मानते थे । लेकिन वो केवल मुझसे मतलब निकालते हैं । 
महेंद्र कहता था कि सूरज मेरे गांव का है । मेरे भाई समान है । मेरी कोई बात कभी भी नहीं काट सकते हैं ।
मेरी वजह से ही तो शहर में आया है। ऐसे ही एहसान जताते थे । 
रोज-रोज अकेले रहने से संगीता महेंद्र की गैर-मौजूदगी में मुझे अलग नजरों से देखने लगी थी । जब नज़रें मिलती तो उसकी ऑ॑खों की लालिमा यौन चाहतों को प्रर्दशित कर जाती थी । बड़ी मुश्किल से मैं पाॅच दस मिनट का खाना खा पाता था ।असहज महसूस करते ।  उसके पति की कमजोरी उसे ऐसा सोचने को मजबूर करती होगी शायद !!  या फिर उसके भीतर की भावनाएं ही बूरी है । मन खाली होता है तो कुछ भी सोच सकता है । वक्त के साथ साथ परदेश बहुत कुछ सीखा रहे थे । 

एक दिन आखिर संगीता ने मुझे खुल के कह दी । 
क्यों सूरज तुम्हें किसी की याद नहीं सताती है ? कुंवारे हो मन को कैसे मनाते हो ..?  कैसे रातें काट लेते हो !!" कह के मुझे घुरती रही ।

उस समय उसके चेहरे पर चमक बिखर गई थी । उसके होंठों में अजीब-सी थरथराहट थी । शब्द लड़खड़ा रहे थे । मैं कुछ कहता तो निश्चित ही और कुछ खुल के कहती । 
फिर भी कहा -" ऐसा कुछ भी नहीं । कुछ सपने हैं । उसी के बारे में सोचता हूॅ॑ । ऐसी सोच में ध्यान ही नहींं जाता है और आप क्यों ऐसे सोचते हैं । आप लोगों के पास तो अब सब कुछ है । गांव में पर्याप्त जमीन जायदाद है । यहाॅ॑ भी कुछ खास काम नहीं करने पड़ते हैं ।  आप लोग चाहे तो और भी कई खुशी ले सकते हैं । जैसे मेरा मन है कि जिस दिन में संभल जाऊं तो नए-नए जगहों पर घूमूॅ॑ और अपने परिवार के साथ रहूॅ॑ । "
" ये सब अभी सोच रहे हो । हकीकत में मन फिरता है । इसे कौन संभाल पाया है । और आखिर यहाॅ॑ से क्या लेके जाओगे । जो कुछ दिया है हमें भगवान ने उसे भोगने का अधिकार है । "
उसने कुछ नजरिए खुद के लिए स्थापित कर चुके थे शायद ! वह रिश्तों की अहमियत कम, खुद की जिंदगी के मजे लेने को ज्यादा महत्व समझती थी । उसकी बातों से साफ झलक रही थी कि उसे अपने पति के व्यवहार बुरा नहीं लगती है । 
जब नजर उठाकर देखा तो उसके ऑऺखों में समझदारी की चमक थी । उसे भरोसा था कि उसने जो कुछ कहा सही है । 
मैं सिर झुका के खाना खाया और अपने झुग्गी में आ गया  ।

मेरा मन कभी तन्हा नहीं हुआ था । ऐसे में वे सोचते कहाॅ॑..? मैं केवल अपनो के सपने सजाने में ध्यान रखता था । जब पैसा हो जाएगा तब भाई-बहन के लिए क्या चीज खरीद के लिए जाउंगा ? जिससे वो खुश हो जाएं । माॅ॑-बाप के लिए गर्म कपड़े । और भी जरुरत के समान । थका शरीर गांव में बीते दिनों और आगे के ख्यालों में कब मघुर सपने दे जाते  खुद को ही पता नहीं चल पाता था । यही मेरी ताकत थी । जिससे हर नए दिन नए ऊर्जा से काम करता था । 

संगीता के व्यवहार के बारे में सोचता तो ऐसा लगता था कि वह भी मुझे उपभोग की वस्तु समझती है ।
ये सच है कि आदमी का लार हर खाने की चीजों को देख टपकटा है या मुॅ॑ह के कोर में इकट्ठा हो जाते हैं ।  मिर्च, इमली, मिठाई से लेकर सूरा-कूकुर को खाते देख भी आ जाते हैं । इंसान विवेकवान है । समझ अनुसार थूकते और घुटकते है । मुझे पसंद नहीं..! महेंद्र और उसके पत्नी के प्रति घृणा के भाव जाग जाते थे । कितने दोनों एक-दूसरे से अलग हैं । अपनी-अपनी वासनाओं को चोरी छिपे पूरा करने की कोशिश करते हैं । और बाहर में शरीफ़ बनते हैं । 

 धीरे-धीरे मेरा शरीर और मन थकने लगा ।उस समय और ज्यादा थका सा महसूस किया जब उस साइड में काम करने वाले सभी लोग यह कहने लगें कि मेरा भी चरित्र ठीक नहीं है । मेरा व्यवहार महेंद्र जैसा ही है । अपनी सुविधा के खातिर दुसरो पर आश्रित है । दोस्ती के नाम को खराब कर रहे हैं । पीठ पीछे अपने दोस्त के पीठ में खंजर घुसा रहा है । उस साइड में खुद को उपेक्षित और अकेला महसूस करने लगा । जिस खुशी से कमाने शहर आया था । वह रोजी-रोटी और काम सब सही मिलें । लेकिन इंसान अपने नहीं मिलें । अफ़वाहें ऐसा फैला कि कुछ लोगों ने तो मुझे अपनी ऑ॑खों से ही देख लिया है । जबकि मुझे इस बात की कोई खबर नहीं है । पीठ पीछे की बातें कुछ मुझे भी सुनाई पड़ी । उस वक्त मेरे शरीर में कोई जान नहीं थी । 
 
महेंद्र के झुग्गी में खाना पीना के साथ काम करना भी थकाते थे । मेरी शारीरिक भाषा सब कुछ बताते थे ।

उस दिन भी मैं सीमेंट की धूल से सना हुआ था । कितना भी झड़ाता कुछ चिपक ही जाते थे। ।
पास बैंठी मकान मालकिन जिसे देख रही थी । उसने पास बुला कर मुझसे से कही -
' मेरे घर मेंं कुछ कपड़े है मेरे पति का । जिसे उसने एकाध बार ही पहने होंगे । तुम्हारे नाप में ठीक आएगा । तुम कहो तो ला दूंगा । " 
एक पल के लिए मैं मकान मालकिन को देखता रहा ।  पहले से दिमाग खराब ऊपर से ये भी.. । ऐसा लगा कि जैसे मेरे स्वाभिमान को ठेस पहुंचा दिया है । वह इतने असहाय दिखते हैं ।हर कोई मुझ पर दया दिखाते हैं । 
"मैं किसी दूसरे के पहना हुआ कपड़ा कभी नहीं पहनता हूॅ॑ और ना ही इतना गरीब हूॅ॑ । कोई मुझ पर दया करें । मेहनत का खाता हूॅ॑ । भगवान ने भुजाओं में इतनी ताकत जरुर दिया है कि मुझे किसी के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ी है ।"
जिसे सुन के मकान मालकिन के चेहरा उतर गया । मेरे चिढ़ कर कहने से थोड़ी नाराजगी हुई लेकिन कुछ भी नहीं बोली । वह मुझे एकटक देखने लगी । ना जाने कैसा लड़का है …? वह कुछ देर तक बैठी रही । फिर चली गई । 
मुझको भी अपना व्यवहार अच्छा नहीं लग रहा था । इस तरह से बोलते हैं कोई । मैं भी पछता रहा था । ना जाने कैसे मुॅ॑ह से निकल गया !! मकान मालकिन बहुत अच्छी है । उसने हमेशा मेरे कामों की तारीफ़ की है ।
फिर भी ..! मेरा भी तो मान सम्मान है.. । उसका भी कुछ ख्याल रखते । लेकिन नहीं सोची । खैर अब मुॅ॑ह से निकल गया सो निकल गया ।अब शब्द वापस तो नहीं होंगे । 
कई सवाल खुद से करते और जवाब भी ढुंढ़ते । सोचते- सोचते तनाव में आ जाते । आखिर लोग मुझे गरीब और बेवकूफ क्यों समझते हैं .? 
महेंद्र के झुग्गी में खाना बनने से पहले मैं अक्सर चौकीदार के पास बैठा करता था । बातों ही बातों में उसने अपने दिल की बात कही। जिसे सुन चौकीदार ने कहा
 
" महेंद्र के झुग्गी में खाना-पीना ही गलत है । जिससे तुम्हें सब लोग उसका चापलूस मानते हैं । तुम्हें पता नहीं  वह तुम्हारे मेहनत का भी पैसा खाते हैं । काम खत्म होने के बाद जो छूटपुट काम कर देते हो उसका भी पैसा ठेकेदार से निकाल लेता है  । तुम्हारे मेहनत के नाम पे । दुनिया बहुत चालाक है और तुम भोले । आज-कल सभी अपने स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहते हैं । "

कुछ समय के लिए हम दोनों चुप हो गए । दोनों एक-दूसरे के मुॅ॑ह ताकने लगे । मेरे चेहरे पर थकावट साफ झलक रही थी । कुछ लम्बी सांस ली । कुछ देर तक बैठें रहे । फिर खाना खाने महेंद्र की झुग्गी में आ गए । आज भी संगीता मुझे उसी नजर से देख रही थी । मुझको कोई फर्क नहीं । खाना खाएं और अपने झुग्गी में आ गया ।
मैं सोच-सोच परेशान हो रहा था । मैंने कोई ऐसा काम नहीं किया है । हमेशा अपने कामों से मतलब रखने पर भी सब गलत क्यों सोचते हैं । सम्मान नहीं देते है ।  सोचते सोचते ऑ॑ख लग गई । 
दूसरे दिन निर्णय किया कि मैं आज से अपने ही झुग्गी झोपड़ी में खाना बनाऊंगा ।बर्तन-भाडा़ सब खरीद लाए ।
 
 जब मैं अपने झुग्गी में खाना बना रहा था तब महेंद्र आ कर कहने लगें । 
"ये सब क्या है..? कुछ गलत कर दिया । "
"बस ऐसे ही..! आखिर कितने दिनों तक मदद करते रहोगे । अब मुझे कई बार शहर कमाने आना पड़ेगा । हर बार किसका भरोसा करुंगा । "
जिसे सुन वह चुप हो गया । यदि लगाव होता तो कुछ अखरता उसे ।जैसा सूरज सोच रहा था ।ऐसी कोई बात कहने की जरूरत नहीं पड़ी। कुछ समय बैठें फिर चला गया  । मुझे बहुत पछतावा था कि मैंने इतने दिनों तक अपना शोषण अपने ही हाथों से करवाता रहा । 

उस दिन से मुझे मानों हल्का महसूस होने लगा । अब महेंद्र बेवजह मुझे काम नहीं बताते थे और बताते भी तो बहाने कर देते थे । जिसके कारण उसका मुॅ॑ह फूला रहता था । अजीब सी कड़वाहट भरें बातें करते थे । 
उसकी पत्नी भी वैसी थी । उन दोनों का रिश्ता बड़ा अटपटा था । दोनों के रिश्ते दिखावे पर टिकी हुई थी । जिसे बाहरी लोगों को जताते थे ।हम एक हैं । उनके लिए शादी जैसा रिश्ता भी मानों केवल सामाजिकता हासिल करना बस है । 
 
मुझे ताज्जुब उस समय लगा जब कुछ लोग महेंद्र के डर से मुझे ही मतलबी आदमी समझने लगे । काम भी दिया । खाना भी खिलाएं और छोड़ दिया ।  जिसे समझाने में मुझे बहुत तकलीफ़ हुई । ख़ैर ! दुनिया में अच्छे बुरे कितने भी रहो । कोई ना कोई सबके चाहने वाले होते हैं । इसी आधार पर सही गलत का निर्णय करना उचित नहीं है । मैंने किसी का अहित नहीं किया है । बस अपने लिए अच्छा हूॅ॑ । बाकी दुनिया कुछ भी सोचें । 
एक दिन मालकिन सभी मजदूरों को काम बन्द होने के बाद एक जगह बुलाएं । जब मैं पहुंचा तो वहां सभी लोग इकट्ठे हो गए थे । सबको नए कपड़े बांटे जा रहे थे । मेरा मन असहज महसूस करने लगा । उस दिन के वजह से तो नहीं कर रहे हैं । कोई पर्व भी नहीं । घर में किसी का जन्मदिन होगा ।  कुछ शंकाओं के कारण मैं आखिर में गया । 
'कुछ अवसर है मेम !" मैंने कहा
"नहीं,,बस यूॅ॑ ही.. । "
"फिर भी.!"
"सभी लोग तो मेरे हैं । आखिर मकान भी तो मेरा ही बन रहा है । बस आप लोगों के प्रति प्रेम जाग गया है ..! "
उसनेे मेरी ऑ॑खों मेंं झांकते हुए कही । जिसे देख मैं शर्मिंदा होने लगा ।
" मुझे माफ़ करना । उस दिन मुझे आपसे नहीं कहना चाहिए था ।  गलत था मैं । "
"कोई बात नहीं । तुमने तो मुझे मेरी गलती का अहसास कराया था । मेरा प्रेम उस समय छोटा था और संकुचित भी । जो अनजाने में कह दी । "
मैं, उसके दिल की गहराई को देखने लगा । कितनी अच्छी सोच है । पूरे इस साईड में मेरी बातों को  इतना महत्व किसी ने नहीं दिया है । जितना मेम दे रही है । उसकी बातों से एक अद्भुत अपनापन का एहसास हो रहा था । जैसे उसे इस शहर में एक सहारा मिल गया हो । मानसिक रूप से,,।
"आप बहुत अच्छी है।आपकी सोच भी "  मैंने कहा ।
"नहीं, इसमें तारीफ जैसी बात कहाॅ॑ है ? तुम्हारे बारे में कहना मेरी संकुचित और खुदगर्ज़ी सोच थी । मैंने तो इसे केवल (अपने सोच को) व्यापक  किया है ।"
मुस्कुराते हुए कही । उसकी बातों से मुझे अंदर ही अंदर शर्मिंदगी महसूस हो रहा था । जब सोच में समानता हो तो अपनापन के भाव जाग जाते हैं । मेरे दिल में मेम के प्रति आदर और सम्मान भाव जागृत हो गए ।
समय गुजरते गए और मैं उस साइड में काम करता रहा । जब मकान का काम फाइनल होने वाले थे तो महेंद्र अपने किराए के मकान में चले गए । जब ज्यादा काम चलता है तब ही वे लोग साइड मेंं रहते हैं । अब वह कम ही आते हैं। कुछ मिस्त्री और मजदूरों को दूसरे साइड में ले गए । 
साल-डेढ़ साल में मेरे पास भी पर्याप्त पैसा इकट्ठा हो गए थे । जो सपने अपने गांव में देखें थे उसे अब मैं आसानी से सजा सकता हूॅ॑ । 
कुछ दिन और काम किया । उसके बाद घर जाने की तैयारी करने लगा । घर जाने की खुशी में रात को नींद नहीं आ रही थी । ना जाने कब सवेरा होगा । 
सुबह मेम से मैंने जब छुट्टी ली तो उसकी ऑ॑खों में अद्भुत दुलार और स्नेह देखा । जो मुझे भविष्य की आशीर्वाद दे रही थी । इस शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया है । कुछ अपने बनें,, कुछ अपने टूटे ।
जब मैं गांव के करीब पहुंचा तो मेरे पैर सबको समटने और गले लगाने के लिए आतुर हो रहे थे । अद्भुत प्रेम की अनुभूति हो रही थी । जैसे मैं अपनों के बीच आ गया हूं । उस आंनद को बता नहीं सकता । जिसे मैं उस दिन महसूस कर रहा था । 
कुछ दिनों बाद मैं अपने गांव मेंं एक दुकान खोल ली । उसे ही सजाने लगा । माॅ॑-बाप को काम करने से मना करता था लेकिन वो मेहनत करने के आदी थे ‌ ।बैठ के रहना नहीं सिखा था । कभी कभी काम कर ही लेते थे । 
भगवान की कृपा से मेरी दुकान से इतनी कमाई हो जाती है कि मैं अपने परिवार का खर्चा निकाल सकूॅ॑ । खेतों की फसलों से दो पैसे बच भी जाते हैं । इसके साथ ही मुझे खुशी इस बात की है कि आज मैं दुनिया से दूर अपनो के बीच हूॅ॑ ।
  ---राजकपूर राजपूत''राज''
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