टूटी हुई छत Broken Roof Story

 Broken Roof Story आजूराम ने जब अपनी माँ से कहा, "चलो माँ, आखिर कितने दिनों तक इस टूटी हुई छत के नीचे रहोगी? बेटा कोई गैर थोड़ी होता है। तुम्हारा बेटा इतना सक्षम है कि तुम्हें आराम से रख सकता है।"



यह सुनकर गिरिजा का हृदय गद्गद हो गया। उसके भीतर अपने बेटे के लिए ममता उमड़ पड़ी। आखिर वह उसका बेटा ही तो है! अगर वह नहीं रखेगा तो कौन रखेगा? गाँव वाले व्यर्थ ही कहते हैं कि उसका बेटा बुरा है।



पर अगले ही पल उसका चेहरा सुर्ख हो गया। वह डर गई। इतने दिनों बाद उसकी सुध लेने अचानक क्यों आया है?



पति की मृत्यु के बाद से ही गिरिजा गाँव के पुराने स्कूल में रह रही है, जो अब पूरी तरह टूट चुका है। गाँव के बच्चों के लिए अब एक नया स्कूल बन गया है, जहाँ सभी बच्चे पढ़ते हैं। गिरिजा जिस पुराने स्कूल में रहती है, उसकी छत जगह-जगह से टूट चुकी है। बस एक कोना थोड़ा-सा ठीक है, जहाँ गिरिजा पर्दा डालकर रहती है।



गिरिजा का पति बहुत अच्छे इंसान थे। गाँव में उनका बड़ा मान-सम्मान था। वे सभी के सुख-दुख में सहभागी होते थे। पति के साथ रहते हुए गिरिजा को कभी किसी प्रकार की तकलीफ़ नहीं हुई। पर कहते हैं न, भगवान अच्छे लोगों को जल्दी अपने पास बुला लेते हैं। जैसे उसे भी दूसरों की ख़ुशी देखी नहीं जाती थी। पति के पुण्य ही थे, जिनकी वजह से गाँव वाले आज भी गिरिजा को मान-सम्मान देते थे।



पति की मृत्यु के बाद गिरिजा के ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। घर में पूछने वाला कोई नहीं था। बेटा अपनी ज़िंदगी में इतना व्यस्त था कि एक ही घर में रहने के बावजूद माँ की कोई खबर नहीं लेता था—माँ ने खाना खाया या नहीं, यह पूछना तो दूर की बात थी। फिर भी गिरिजा खुश थी, बेटे की खुशियाँ देखकर। आखिर बुज़ुर्गों को और क्या चाहिए? वह एक कोने में पड़ी रहती थी। जब खाना मिलता, खा लेती थी।



पर बेटे को यह भी मंज़ूर नहीं था। वह जैसे उसकी खुशियों में आँखों की किरकिरी बन गई थी। बहू खाना सरकाकर देती, कभी प्रेम से नहीं बोली। और अगर गिरिजा कुछ कह देती, तो बहू लड़कों की तरह उलझ पड़ती। केवल हाथ उठाना ही बाकी था। कुछ लोग कहते हैं कि सास कभी माँ नहीं बनती—यह गलत है। पर बहू भी तो कभी बेटी नहीं बनती।



आखिरकार एक दिन बहू ने हाथ भी उठा दिया। बेटा सब देख रहा था, लेकिन कुछ नहीं बोला। मानो उसे भी यह सब अच्छा लग रहा था। माँ बेबस सब सहती रही। इसके बाद तो बहू छोटी-छोटी बातों में हाथ उठाने लगी।



जिस घर में बेटा-बहू बुरे हों, वहाँ बूढ़ी आँखें पोते-पोतियों में आस ढूंढती हैं। लेकिन यहाँ सब एक जैसे निकले।



एक दिन तंग आकर गिरिजा घर छोड़कर निकल गई और गाँव के पुराने स्कूल की टूटी हुई छत के नीचे एक कोना पकड़ लिया। गाँव में भीख माँगकर दिन गुज़ारने लगी। गाँव वाले उसकी हालत समझते थे। बेटे के घर में उसे घुटन होती थी, पर यहाँ नहीं। कोई न कोई उसके पास बैठने आ जाता, बात कर लेता।



गाँव का मुखिया भला आदमी था। उसने गिरिजा का नाम पेंशन योजना में जोड़वा दिया। उसने अपने खाली मकान में रहने का प्रस्ताव भी दिया, पर गिरिजा नहीं मानी। गाँव वालों की वजह से ही उसे जीवन में कुछ शांति मिल जाती थी।



इससे पहले गाँव वालों ने कई बार आजूराम को समझाया कि बूढ़ा शरीर कितने दिन चलेगा? कम से कम उसे एक कोना तो दे दो। आखिर उसी की ज़मीन-जायदाद खा रहे हो। आजूराम हर बार दोष माँ पर डाल देता। कहता, "कुछ भी सहती नहीं, दिनभर बड़बड़ करती है। मैंने तो कभी अपनी माँ से झगड़ा किया ही नहीं। ये तो सास-बहू की लड़ाई है।"



गाँव वाले समझ गए थे कि आजूराम के मन में क्या है—वह जानबूझकर अनजान बना रहता है।



फिर अचानक इतने दिनों बाद आजूराम अपनी माँ को लेने क्यों आया? गाँव वालों को संदेह हुआ। गिरिजा को भी यही शंका हुई। आखिर अब क्यों?



फिर सोचा—"मेरी ज़िंदगी का क्या भरोसा? जितने दिन बचे हैं, अपने बच्चों के बीच रह लूँ। समय तो काटना है।" और वह चल दी।



गिरिजा ने बेटे का घर छोड़ने के बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा था। देखती भी तो क्या मिलता? उस घर में पति की यादें थीं, जो बहुत रुलाती थीं।



आजूराम और उसकी पत्नी के व्यवहार में बहुत बदलाव आ गया था। घर पहुँचते ही बहू ने चरण स्पर्श किया—जो उसने पहले कभी नहीं किया था। गिरिजा संशय में डूब गई—आखिर यह सब क्यों?



घर में बहुत कुछ बदल चुका था। बहू गहनों से सजी थी। घर में टीवी, कुर्सियाँ, अलमारी और ज़रूरी सामान था। एक कोने में नया मकान बन रहा था, जिसकी नींव खुद चुकी थी। यह सब देखकर गिरिजा को महसूस हुआ कि उसके बिना सब कितने खुश थे।



शुरुआत में दिन आराम से बीते। बहू प्रेम से खाना खिलाती थी, मीठी-मीठी बातें करती थी। कुछ ही दिनों बाद आजूराम ने गिरिजा से एक कागज पर दस्तखत करवाया और फोटो खिंचवाया—उसी जगह पर जहाँ मकान बन रहा था।



उस दिन गिरिजा को सब समझ आ गया। शासकीय आवास योजना उसके नाम पर आई थी, इसलिए इतना प्रेम दिखाया जा रहा था। उसका मन टूट गया। एक पल भी वहाँ रहना भारी लगने लगा।



लेकिन फिर खुद को समझाने लगी—"आखिर मेरा ही तो बेटा है। कितने दिन की ज़िंदगी बची है? जब तक प्रेम से बातें करते हैं, रह लेती हूँ। उसके बाद तो मेरा वही टूटा-फूटा घर और मेरा गाँव है।"



वह जानती थी, ये सब कितने बदल सकते हैं। इसलिए यहाँ कोई भी गाँव का व्यक्ति आना पसंद नहीं करता था। "वहाँ मेरे पास तो...!" सोचते ही उसकी आँखों में आँसू छलक आए।



दिन बीतते देर नहीं लगती। आवास बनकर तैयार हो गया। बेटा-बहू का असली रूप धीरे-धीरे बाहर आने लगा। कहते हैं, कुत्ते की पूँछ कभी सीधी नहीं होती, चाहे जितना भी जतन कर लो। बात बढ़ने से पहले ही गिरिजा ने सोच लिया कि उसे अपने पुराने ठिकाने लौट जाना चाहिए।



अंततः वह अपने टूटी-फूटी छत वाले घर में लौट आई। वहाँ दो-चार लोग उससे मीठे बोल बोलते थे। अगले दिन मुखिया ने जब देखा तो बोले—



"कब गाँव आ गई बुढ़िया? ज़्यादा दिन तक नहीं रख सके।" 

"अपनी मर्जी है, जब चाहे आ जाए।" 

"यहीं मरेगी और अग्नि-संस्कार मैं ही करूँगा।"



गिरिजा मुस्कराकर बोली—"अब तुम लोगों पर ही भरोसा है बेटा।"



मुखिया कुछ देर बैठा, फिर चला गया। वही तो था जो दवा-दारू से लेकर हर मुसीबत में साथ देता था। पेंशन से मिलने वाले पैसे भी वह अपने पास संभाल कर रखता था।



समय बीतता गया। गिरिजा का शरीर धीरे-धीरे टूटने लगा—शारीरिक और मानसिक रूप से।



एक दिन जब वह बस्ती से लौट रही थी, उसके पैर में ठोकर लगी और वह मुँह के बल गिर पड़ी। फिर कभी न उठ सकी। पूरे गाँव में शोक छा गया। बस्ती के लोग दस-बीस रुपये जोड़कर और उसके पास जमा पैसों को मिलाकर अंतिम संस्कार का प्रबंध किया।



मुखाग्नि देने के लिए उसके बेटे को बुलाया गया, पर वह केवल औपचारिकता निभाने आया था। गाँव वाले उससे खुश नहीं थे।



आज भी जब गाँव वाले उस टूटी हुई छत के पास से गुजरते हैं, तो गिरिजा की याद ज़रूर करते हैं।





-----राजकपूर राजपूत'राज'


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