गांव की औरतें gaav-ki-auraten

gaav-ki-auraten- गांव की औरतें दिन भर काम करती है । घर द्वार से खेत तक । जिसे एक पल भी आराम नहीं है । उनकी सुबह रोज़ काम से होती है । किसी के लिए चाय तो किसी के लिए नाश्ता । पचास तरह की ऐसे काम है , जो निर्धारित है , प्रतिदिन । जिसे उसके सिवा कोई नहीं करते हैं । जिसे करने से इंकार भी नहीं कर सकती है । बहाना उसने कभी सीखा ही नहीं है । 

gaav-ki-auraten

सिर पर  मटका 

बगल में लटका
उसका लड़का..!
फिर भी मन नहीं भटका
और सावधानी से
सम्भालें है दोनों को
बड़ी जिम्मेदारी से
लड़के और मटके को
ऐसे काम करती है
गांव की औरतें
सूरज के
निकलने से पहले 
उठ जाती है 
जो बड़े ध्यान से 
घर का कोना- कोना 
बुहार देती है
घर के बाहर
रंगोली सजाती है
हाॅ॑ वो घर- आंगन को
संवारती है
गांव की औरतें
बैठ जाती है चूल्हे के पास
आग और धुआं है खास
एक एक रोटी को घुमाती है
कई बार बदन जल जाती है
फिर भी मुस्करा के
सबको खिलाती है
और सबके स्वाद के खातिर
दो -चार बातें भी सुनती है
बचा खुचा जो खुद खाती है
गांव की औरतें
उसी रास्तों से
गुजरती है
जिस रास्ते से
उसके पति
गुजरते हैं
बार-बार खेतों में
पीछे पीछे चलती है
जो काम पति करते हैं
वही काम करती है
गांव की औरतें
और शाम होते ही
जुट जाती है
खाना बनाने में
सबको खिलाने में
बच्चों को सुलाने में
देर हो जाती है
खुद को सोने में
फिर भी हॅ॑सती है
गांव की औरतें
फिर भी अवहेलना, उपेक्षित है
दुषित भावनाओं से कुपित हैं
ये जो सुन्दर भवन खड़ा है
किसके त्याग, तपस्या से बढ़ा है
नींव की गहराई को यहाॅ॑ कौन पढ़ा है
ऐसे काम करती हैं
गांव की औरतें !!!

अलग है
बिल्कुल अलग है
चलने में
बैठने में
उठने में
गांव की औरतें
शहर की औरतों से
जिसे जानतीं है
शहर की औरतों
अलग हैं
गांव पिछड़ापन है
तो
शहर प्रतिनिधित्व करते हैं
गांव की औरतों की !!!!
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___ राजकपूर राजपूत


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